कस्बाई जीवन का पता- 'लापतागंज'

अनहद
किसी भी रचना का मकसद होता है पाठक, श्रोता या दर्शकों को भावनात्मक अनुभव देना। दिवंगत व्यंग्यकार शरद जोशी की बेटी नेहा शरद चूँकि अपने धारावाहिक "लापतागंज" के जरिए यह काम बखूबी कर रही हैं, सो इस पर ऐतराज, सवाल नहीं उठाना चाहिए कि धारावाहिक में शरद जोशी की रचनाओं का बघार भर है। लेखन और धारावाहिक निर्माण बहुत अलग-अलग चीज है। निर्देशक को इतनी स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वो फेरबदल कर सके। यह धारावाहिक याद दिलाता है दूरदर्शन पर आने वाले बेहतरीन धारावाहिक "नुक्कड़" की।

" नुक्कड़" में भी बहुत सारे पात्र थे और इसमें भी हैं। मगर "लापतागंज" कुछ इकहरा-सा है। कस्बाई जीवन के बहुत से अँधेरे पहलू इसमें नहीं है। इसके बावजूद यह धारावाहिक वो देता है, जो दूसरे धारावाहिक नहीं दे पा रहे। मिसाल के तौर पर कस्बाई जीवन का धीमापन और सुकून जो शहरी जिंदगी से खो-सा गया है। पिछले तीस-चालीस बरस के दौरान हम कृषि आधारित समाज से उद्योग आधारित समाज बन गए हैं। गाँव और कस्बे कृषि आधारित समाज की देन हैं और शहर उद्योग आधारित समाज की। हम शहरों में बसे जरूर हैं, मगर हमारे सोए-जागे मनों में अभी भी कस्बों और गाँवों की याद जिंदा है।

कस्बों में सबका जीवन अलग-अलग होते हुए भी सामुदायिक ढंग से जुड़ा रहता है। शहर में हर घर, हर फ्लैट एक बहुत छोटा-सा टापू है और चारों तरफ अजनबीयत का अँधेरा भरा ठाठें मारता समंदर है। हर टापू पर एक परिवार है, जिसका दूसरे टापू वालों से कोई गहरा रिश्ता नहीं है। हमारा अंदरूनी मन अभी इसके लिए राजी नहीं हुआ है कि हम इस तरह रहें।

हम जब गाँवों में रहते हैं तो शहरों की तरफ हमारा मन भागता है। हम कहते हैं शहर अच्छा है, वहाँकोई किसी पर ध्यान नहीं देता। कोई कुछ भी खाए, कुछ भी पहने, किसी के भी साथ घूमे...। व्यक्तिगत आजादी के लिए शहर अच्छे लगते हैं पर जब हम इससे ऊबते हैं तो गाँव याद आने लगता है।

हमारे मन में कस्बा भी जिंदा है। हम एकसाथ दोनों चीजें चाहते हैं, कस्बाई जीवन की निश्चिंतता भी और शहरी जीवन की आजादी, कमाई और सुविधाएँ भी। सो "लापतागंज" में हम देखते हैं कि एक पात्र ओटले पर ही बैठा रहता है दिन-रात...। परम निठल्लेपन में। एक लड़का अच्छा खासा जवान हो गया है... मगर काम करने की बजाय वो लव करता है और दूसरे से लव लेटर लिखाता है। मगर क्या हम खुद ऐसे दिन-रात ओटले पर बैठ सकते हैं? हमारा कोई अपना नौजवान अगर करियर बनाने की बजाय ऐसे मटरगश्ती करे तो क्या हमें रास आएगा? बहरहाल "लापतागंज" वाकई यथा नाम तथा गुण है। ऐसे कस्बे, ऐसे गाँव तो अब लापता ही होते जा रहे हैं।

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