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कश्मीरी पंडितों की ही ताकत थी कि वो हिन्दू बने रहे, वो कन्वर्ट नहीं हुए...

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अनिरुद्ध जोशी

Kashmiri Pandit
The Kashmir Files: हम दोनों ने 'द कश्मीर फाइल्स' देखी है। हमने 'द कश्मीर फाइल्स' देखी तो हमने देखा कि टॉकीज में बहुत लोग रो रहे थे। लेकिन सर! आपको विश्‍वास नहीं होगा कि हमें रोना नहीं आया, क्योंकि अब हमें रोना नहीं आता, क्रोध नहीं आता, हमें दर्द नहीं होता, क्योंकि वह भीतर ही भीतर जम गया है। हमने दर्द और क्रोध को हलाहल की तरह पी लिया है। मैं आपको सच बताऊं, कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार, नरसंहार की कहानी 1947 से ही शुरू हो गई थी। 90 में जो भारत के कश्मीर में हुआ, वह 47 में पीओके में हुआ था। आज जब हम 32 साल पुरानी कहानी को नहीं समझ पा रहे हैं तो 75 साल पूरानी कहानी को कैसे समझेंगे? और उसका बयान कौन कर पाएगा? आज सोशल मीडिया आदि 10 चीजें हैं तो हम समझ पा रहे हैं। लेकिन एक समय बाद सब भूल जाएंगे।
 
देखिए, यदि हम किसी भी कश्मीरी पंडित से कभी भी बात करेंगे तो आपको यह बात जानकर खुशी होगी कि कश्मीरी पंडित या कम्युनिटी है ना, मैं नहीं जानता कि उनकी क्या स्ट्रेंथ है, उनकी क्या ताकत है, क्योंकि आज इतने साल के बाद भी उन्होंने अभी ये 32 साल पीछे बात करें तो इसमें तकलीफ हुई है। हो सकता है कि ये जो काम हुआ है जिसकी वजह से हम जिस दिक्कत में आए थे। उससे पहले 10-15 साल पहले ही ये शुरू हो चुका था। ऐसे कुछ नहीं था...डिफरेंस बोला जाए तो हमें ये नहीं पता था कि कौन अपना है और कौन पराया। ये हमें शायद बाद में पता लगा हो। आज तक भी बहुत लोगों को भरोसा होगा कि बहुत सारे हमारे साथ गलत नहीं कर सकते। पर हां, भरोसा धीरे-धीरे टूटा, पर सबसे बड़ा घात हमारे साथ 1990 में हुआ था, जो 89 से शुरू हुआ था।
 

 
लेकिन अगर ये बोला जाए कि कश्मीरियों की स्ट्रेंथ क्या है तो उनके पास तीन स्ट्रेंथ थी, जो उनकी थी जिसने आज तक उनको बचाकर रखा है। वो एक ये है कि हर किसी इंसान को, एक हिन्दू को ये भरोसा होना कि वो हिन्दू होने का जो गौरव है वह बहुत बड़ी चीज़ थी, ताकत थी। वो हमेशा एक हिन्दू पंडित के साथ रही। अगर देखा जाए तो हिस्ट्री में भी बहुत सारे लोग कन्वर्ट हुए। कभी भी फोर्सली चाहे उनके ऊपर गोली से या तलवार से उनको चेंज करा दिया गया, पर कश्मीरी पंडित चेंज नहीं हुए। शायद उनकी जीत इसी में थी, पर शायद उनकी हार भी इसी में थी।
 
 
अगर कोई परिवार उनके सामने, उनके बच्चों के सामने या उनके परिवार की महिला है, उनके सामने फोर्सफुली गन पॉइंट पर उनको बोला जाता है कि भई अगर आपको जिंदा रहना है तो या तो कन्वर्ट होना पड़ेगा, आपको हिन्दू नहीं रहना पड़ेगा। यह उसके लिए बहुत आसान था। आज अगर वो कोई ऐसा हिन्दू परिवार होता जो कन्वर्ट हो गया होता तो आज उसकी स्टोरी नहीं हुई होती। पर कश्मीरी पंडित शायद ये नहीं मान पाया। पहले कश्मीर में सभी जगह पूरे हिन्दू ही थे। कन्वर्ट होने के बाद बहुत कम रह गए थे। लेकिन कौन लोग किन परिस्थिति में कन्वर्ट हुए, यह समझना होगा।
 
हजार घरों में सिर्फ 30-40 घर होंगे या 50 घर होंगे। मुझे अपना गांव भी याद है। कुपवाड़ा करके एक जगह है मेरी मैडम (पत्नी) श्रीनगर से है। मैं अपने गांव की बात करूं तो कुपवाड़ा में जाकर भी आप विश्वास करेंगे कि 40-50 मोहल्लों के बीच में कश्मीरी पंडितों का एक मोहल्ला था। जनसंख्या घनत्व की बात करें तो 100 लोगों के बीच में 2-3 लोग। हर एज़ (उम्र) के इंसान को हर औरत और मर्द किसी भी उम्र का होगा, उसने यह तकलीफ देखी होगी। वो हालात पहले से शुरू हुए थे। पर, उनकी एक ही ताकत थी कि वो हिन्दू थे और वह हिन्दू ही रहना चाहते थे। वो कन्वर्ट नहीं होना चाहते थे। वो गौरव के साथ जीना चाहते थे, मरना नहीं चाहते थे।
 
 
दूसरी उनकी ताकत ये थी कि अगर आप कहीं भी नोटिस करोगे, आज भी कश्मीरी अगर जिंदा है या कुछ कर पाया अपनी जिंदगी में तो वह सिर्फ और सिर्फ उस एजुकेशन को ही आधार बनाकर चलें, जो हजारों सालों से चला आ रहा है। 'पंडित' शब्द का मतलब ही एक टीचर होता है। पंडित ब्राह्मण कास्ट से ही आता है, पर वह टीचर ही रहा है। तो कश्मीर में सारे पंडित होने का मतलब यह है कि एजुकेशन डिपार्टमेंट में ही काम करते थे या टीचर थे मैक्सिमम लोग घर पर भी पढ़ाते थे। जो भी काम थे, वह सिर्फ पढ़ाई से रिलेटेड था। और, आज भी वो जी पाए हैं, आज तक तो वो सिर्फ इस पढ़ाई की वजह से यानी सरस्वती माता जिन्हें हम शारदा माता बोलते हैं वो आज भी हम उनको बहुत मानते हैं। शायद इसी वजह से आज तक हम जिंदा हैं। हमारी जीवनशैली हमने वही रखी है, जो हजारों सालों से चलती आ रही है। सिर्फ हमारा व्यवहार बदला होगा। हमारे कपड़े बदले होंगे। मगर जो आधार है वह सिर्फ शिक्षा है।
 
 
तो बोला जाए कि क्या हुआ था उस टाइम पर तो मेरा जन्म 1982 का है। मुझे सबसे पहले ये याद आती है कि जो जुलुस वगैरह इस फिल्म में दिखाए हैं और जो लोगों को पता है। जब जुलुस निकले थे वो दिन मुझे याद है, तब शाम के करीब 7-8 बजे होंगे। सब लाइटें बंद करके हम बैठ गए थे। पथराव हुआ था सभी घरों पर। हमारे घर पर बहुत ज्यादा ऐसा नहीं हुआ था। हमारे घर में घुसे नहीं थे, लेकिन हां, बाहर से बहुत ज्यादा शोर था। और घर पर पत्थर मार रहे थे। हमारे घर के भी शीशे टूटे थे। हम छिपे हुए थे।
 
 
और वो एक याद है, जो कि बहुत ही अच्‍छी याद नहीं है। और उसके बाद में ये निकले कि वो निकल गए हैं हमारे। अच्छा, आज की डेट में सोशल मीडिया है और मोबाइल है। पर उस वक्त हमें ये नहीं पता था कि हमारा अगला पड़ोसी क्या काम कर रहा है? क्या वह रुक रहा है, जा रहा है? जिंदा है या मारा गया है? किस गांव में हमारे रिश्‍तेदार हैं? अपने नानके हैं आपके मामा, आपके रिश्तेदार, जितने भी सारे रिश्तेदारों का कभी कुछ नहीं पता था। कोई खैर-खबर नहीं होती थी। कम्युनिकेशन बिलकुल बंद था। आप मूवमेंट नहीं कर सकते थे एक गांव से दूसरे गांव में।
 
 
दूसरी बात यह कि जिस दिन हम निकले थे तो अचानक हम जिस तरह एक मवेशी या जानवरों की तरह हम एक ट्रक में बैठकर आए थे और हम कहां जा रहे थे, हमें ये बिलकुल पता नहीं था। इंडिया हम जिसे अपनी कंट्री समझते हैं जिसे हम भारतमाता बोलते हैं। शायद कश्मीरी पंडितों ने उस पर भी बहुत भरोसा किया था कि हम भारत में कहीं किसी जगह जाकर अपनी सेफ्‍टी ढूंढेंगे या भारत में हमारी कोई सुनेगा, पर ऐसा कुछ नहीं था। वह हमारी सबसे बड़ी भूल थी। हो सकता है किसी ओर के साथ ऐसा नहीं हुआ हो, उन्हें कहीं से मदद मिल गई हो।
 
 
जहां पर हम कश्मीर के बॉर्डर बनिहाल, एक ऐसी जगह आती है, पहाड़ आता है उसको क्रॉस करो तो कश्मीर उस तरफ होता है और इस तरफ जम्मू शुरू होता है। उस दौर में जम्मू एक ऐसा शहर था, जो बहुत ही पिछड़ा हुआ शहर हुआ करता था, पंजाब से सटा हुआ था। पर जब हम जम्मू भी आए या उधमपुर भी आए जितनी भी सारी जगहें आई, बनिहाल के बाद वहां पर कश्मीरी पंडित रहने लगे। कुछ लोग दिल्ली आए और कुछ लोग मुंबई चले गए।
 
आप विश्वास करेंगे कि उस ट्रक में हमारे पास सिर्फ और सिर्फ जान थी और कोई सामान नहीं था। शायद किसी ने चादर उठाई होगी, शायद किसी ने शॉल उठाई होगी। इससे ज्यादा किसी के पास कुछ नहीं था। वह कोई शायद 20 फीट लंबा ट्रक होगा जिसमें मवेशियों की तरह लोग भरे थे। ट्रक का सफर भी भयानक था। ट्रक का लंबा सफर तय करके हम जब आए थे, तो शायद यह लगा था कि हम कहीं जा रहे हैं तो वहां पर हमारे लिए कोई बहुत बड़ा बंदोबस्त होगा या कोई इंतजाम होगा। जहां-जहां वह ट्रक रुकने लगे, वहां से बस्तियां शुरू होने लगीं। रोड चालू होने लगी, लेकिन कहीं पर कोई भी बंदोबस्त नहीं था। किसी भी सरकार ने कोई भी बंदोबस्त नहीं किया हुआ था। कश्मीरियों के साथ सबसे बड़ा धोखा, चाहे वह जम्मू हो, उधमपुर हो, मुझे नहीं पता दिल्ली और मुंबई में क्या हुआ? वहां के लोग जो रहवासी थे जिनके पास जाकर हम शरण लेने वाले थे, उन लोगों ने भी बहुत ज्यादा इस चीज़, दर्द को समझा नहीं, शायद कश्मीर में मुसलमान से ज्यादा तकलीफ हमें बाकी एरिया में हुई। जहां पर भी रहे वहां काफी तकलीफ थी।
 
 
हो सकता है कि किसी ओर को कोई मदद मिल गई हो, पर हमें हर मोड़ पर दिक्कतों को झलने पड़ा। रास्तेभर में या जहां हम रुके वहां पर भी हमें सभी ने इस तरह ट्रीट किया जैसे कोई हम बहुत बड़ी गलती करके आए हों। क्योंकि पानी हमें चाहिए था तो पानी मांगना पड़ता था। खाने का सामान हो, राशन हो सभी उन रहवासियों से लेना पड़ता था। हमारे पास तन पर कपड़ों के अलावा कुछ नहीं था। हमारे पास रहने की भी कोई जगह नहीं थी। हमने दोहरी मार झेली। एक तो यह कि 24 डिग्री तापमान में रहने की आदत वाले व्यक्ति को एकदम से 48 डिग्री के तापमान में रहना पड़ा था। हमारी चमड़ी जल गई थी। हमें समझ नहीं आ रहा था कि हम किस तरह जिंदा रह पाएंगे?
 
 
उस समय राज्य में फारुख अब्दुल्ला की पार्टी का कांग्रेस से एलायंस था। जब हम कश्मीर को समझें तो यह 90 में शुरू हुआ और ये कभी ऐसा नहीं था। ये 1948 से ही शुरू हो गया था। अफगान से जब कबाइली आना शुरू हुए थे। कश्मीर में आए दिन कुछ-न-कुछ रहता था, पर एटलिस्ट कश्मीरियों का ये था कि कश्मीरी मैक्सिमम जगह पर एक बहुत प्रभावी पोजिशन में थे चाहे वह स्कूल में पढ़ाते थे, टीचर थे और उनका रवैया बहुत अच्छा था। उनका ज्यादा समय पढ़ाई में रहता था इसलिए उनके साथ कोई दुश्मनी होती नहीं थी। और लोग (मुस्लिम) भी उनको मानते थे और उनकी डिपेंडेंसी भी थी और उनको बहुत ज्यादा मैटर नहीं करते थे कश्मीरी पंडित। यानी भाईचारा इतना था कि एक दूसरे पर अविश्‍वास नहीं था। तो अगर मैं कहूं कि कम्युनल होना ये 1948 से चालू हुआ था।
 
 
पहले हिन्दुओं को मारना चालू किया गया था। तभी से मेरे फादर के साथ बहुत इंसीटेड हुए थे, जो मेरे फादर ने मेरे साथ शेयर किए हैं। जो हमारे दादा वगैरह के टाइम पर 1948 में बहुत कहानी हुई थी। उस टाइम 1948 से 1950 तक बहुत कश्मीरियों को मारा गया था। और अगर हिस्ट्री में आप 500-600 साल पीछे जाओगे तो कश्मीर में पहले 100 प्रतिशत हिन्दू ही थे। तो आज 2 प्रतिशत हम जो कह रहे हैं, वो बचे हुए हिन्दू हैं जिन्होंने अपने आपको बचाकर रखा और फाइनली उन्हें भी 1990 में कश्मीर छोड़ना पड़ा। 
 
तो उस समय कश्मीरी पंडित परिवार में जो सीनियर होता था, उसके सामने एक ही बात थी कि या तो वह अपने बीवी-बच्चों को सेफ रखें या मरने के लिए तैयार रहें। तो उसने उस समय जो भी चयन किया हो, जैसे हम कहते हैं क्षत्रिय राजपूत, लेकिन कश्मीरी पंडित कभी भी हथियार नहीं उठाता था और न उठा सकता था। और वह शायद आज भी वेट कर रहा है कि हथियार तो नहीं उठाएगा कि जो हमारी भारत सरकार है चाहे कितनी ही बदल गई, कांग्रेस से बीजेपी आई, पर हमारी बहुत ज्यादा उम्मीद किसी चीज से नहीं है।
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कश्मीर फाइल हो या जितने भी इंसीडेंट पीछे हुए हैं 32 साल में या आने वाले 50 साल में, 40 साल में हमें किसी से कोई उम्मीद नहीं। न कभी किसी सरकार से थी और न कभी किसी सरकार से हो सकती है। सिर्फ ये है कि हां एटलिस्ट अब लोगों को शायद ये पता है कि जो कश्मीरी पंडितों के साथ हुआ है वो अब किसी के भी साथ हो सकता है। अभी हम दिल्ली का केस लें या कहीं ओर का। ये पहले कश्मीर में बहुत नॉर्मल था। कश्मीरी पंडित ने जो बहुत कुछ देख रखा था, मैं जो कह रहा हूं 90 से पहले वहां पर कश्मीरी पंडितों ने उसे इग्नोर मारा था कि ये शायद होता है, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता पर ये होता-होता, धीरे-धीरे ऐसा होता गया कि एक दिन अपना घर छोड़ना पड़ता है। हमने इसे बहुत कैजुअल समझा था। हमने कभी नहीं सोचा था कि हमारे साथ रहने वाला हमारा पड़ोसी हमारे साथ कभी ऐसा कर सकता है। हम सोचते थे यह हमारा अपना है। वो हमारे यहां खाते थे। उनके घर में रेडियो, टीवी, किताबें, कॉपियां कुछ भी नहीं होता था। सिर्फ कश्मीरी पंडितों के घर पर उनका आना-जाना रहता था। सारी डिपेंडेंसी पंडितों पर थी।
 
 
पर जो लोग, जिन लोगों को खिलाया-पिलाया गया, पढ़ाया-लिखाया गया, उन लोगों ने फाइनली गन उठाकर कश्मीरी पंडितों को भगाया था। पहले कश्मीर का कल्चर डिफरेंट था जितना हिन्दू-मुस्लिम साथ में रहे, उतना शायद पूरे हिन्दुस्तान में नहीं होंगे। आज भी कोई कश्मीरी पंडित किसी कश्मीरी मुसलमान के खिलाफ बोलता हुआ नहीं दिखाई देगा। शायद कोई मुलमान भी कश्मीरी पंडितों के खिलाफ बोलता हुआ शायद दिखाई नहीं दे। पर मैं यह कहना चाहता हूं कि इतना भाईचारा होने के बाद भी ये कश्मीरी पंडितों के साथ हुआ है तो हिन्दुस्तान में कोई भी सेफ नहीं है। ये पहले अफगानिस्तान में हुआ, फिर पाकिस्तान में हुआ लेकिन हम सब लोगों ने इसे बहुत हल्के में लिया और इसे सभी भूल गए।
 
 
जो उस टाइम भारत के कश्मीर के साथ हुआ उसमें सभी मिले हुए थे। चाहे वह राज्य सरकार हो या केंद्र सरकार हो। राजनीतिज्ञ हो या स्थानीय मीडिया, सब मिले हुए थे। यह सब डिजाइन था, पूरा प्लान था। फारुख अब्दुल्ला को पता था कि आगे मुझे उनको कमांड देना पड़ेगी, तो मुझे कमांड न देनी पड़े इसलिए वे इस्तीफा देकर चले गए। इसमें सेंट्रल की भी गलती थी। हमारे साथ में सेंट्रल गवर्नमेंट का भी सपोर्ट नहीं था। उस समय मुफ्ती मोहम्मद सईद सेंट्रल में गृहमंत्री थे। 89 के पहले तक राजीव गांधी भी प्रधानमंत्री थे। अपोजिशन पार्टी उस समय कुछ नहीं कर पाई। जगमोहन सिंह तबाही के बाद आए। उन्होंने ही आकर बाद में हमें संभाला।
 
 
हमारी संपत्ति की हानि हुई। आज वह संपत्ति हमें कोई लौटा नहीं सकता। कश्मीरी के साथ जो हुआ है, जो उसकी पीड़ा है कोई नहीं जानता। हमारी फर्स्ट जनरेशन सिर्फ सदमे से मरी वो कोई लौटा नहीं सकता। आपको शायद यकीन न हो कि हम 24 डिग्री के ऊपर के टेम्प्रेचर को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो हम 48 डिग्री टेम्प्रेचर में कैसे रह सकते थे सर? हम पत्थरों के ऊपर सोए हैं, क्योंकि मैं आपको बता हूं कि जम्मू सिटी ऑफ स्टोन है। वहां पर सिर्फ पत्थरों का बिछौना है, जो तवी नदी से बनता है। उन पत्थरों के बिछौने पर वे कश्मीरी पंडित सोए थे, जब वे आए थे। आप 24 डिग्री वाले आदमी को 48 डिग्री पर रखोगे तो उसकी क्या दशा होगी? वह शायद अभी किसी को समझ नहीं आएगा। लेकिन ये है कि संपत्ति गई, जानमाल की हानि हुई, पढ़ाई गई, आप विश्वास करेंगे मेरे को 3 साल तक कोई एडमिशन नहीं मिला था। मैं दूसरी में पढ़ता था। मेरी माता और भाई आए थे साथ में, पर मेरे फादर वहीं रह गए थे। उनको ये लगता था कि उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता। पर 8 महीने बाद उनको ये समझ में आ गई कि उन्हीं का बिगाड़ सकते हैं, क्योंकि वे एक कश्मीरी पंडित थे।
 
 
पलायन के बाद कितने लोग हैं, हमारी दादी-नानी जो मेरी थी, रोज शाम को ऐसा गाना गाती थी और गाते-गाते अपना घर की याद आती थी तो रोती थीं। और 2-3 महीने जो हुए रोते-रोते ही अपनी आंखें बंद कर लीं। ऐसी ही कई लेडीज हैं, जो रोते-रोते ही एक्सपायर हो गई और जो मेरी दादी थीं वो मेंटली हो गईं। ये सोचकर कि मुझे जाना है। मुझे मेरे घर जाना है। नहीं-नहीं, वो मेरा वेट कर रहा है मुझे घर जाना है। तो उनके दिमाग में आ गया कि मेरे को 2 महीने हो गए जम्मू में लेकिन मैं घर नहीं जा पा रही हूं। बच्चों की साइकोलॉजी आप देखोगे, जो 80-90 के दशक में हुए वे शायद ज्यादा जानकारी नहीं दे पाएं, पर वे यही बता पाएंगे, जो 50 के या 60 के दशक के लोग हैं, उनमें वो मेंटल ट्राम अभी तक नहीं गया। आज भी उन्हें ये डिस्टर्ब करता है। शायद आधे लोगों को तो नींद भी नहीं आती थी। आप सोचिए कि एक आदमी अपनी 60-70 साल की पूरी उम्र कश्मीर में अपने घर पर निकालता है और अचानक एक दिन उसे अपना घर छोड़ना पड़ता है। उसने पूरी जिंदगी जो कमाया था, चाहे वह छोटा-सा खेत कमाया था, चाहे छोटा-सा घर बनाया था, जो भी मेहनत से बनाया था, वो सब छोड़ना पड़ता है। तो जो आपने अभी पूछा कि हमारा कैसा घर था। 
 
जिस ट्रक में हम बैठे थे तो करीब-करीब हमारे मोहल्ले में सिर्फ 7 घर बचे थे। उनमें से सारी औरतें, बच्चे, बुढ़े लोग वगैरह बैठे थे। ट्रक में हम भरे हुए थे। किसी को भी पता नहीं था कि कहां जा रहे हैं और हमारे पिताजी जो थे उन्होंने कहा था कि हम नहीं जाएंगे, हम यहीं पर रहेंगे। हमें लगता है कि एक्चुअली हमारे साथ एक बहुत बड़ा धोखा भी हुआ था। हमारे साथ धोखा यह हुआ था कि हमें यह कहा गया था कि हमें कुछ दिनों या हफ्तों के लिए जाना है, पर आज 32 साल हो गए। हमारे साथ वह धोखा नहीं हुआ होता तो हम मर ही जाते तो अच्छा था।
 
 
हमारे साथ धोखा यह हुआ कि शायद सरकार ने कहा कि अगर आपको जान बचानी है तो कुछ दिनों की बात है। सरकार के नाम से जिस तरह के एक मैसेज हमारे तक पहुंचाई गई कि आपके साथ कुछ नहीं होगा। जो हमारे बगल के आस-पड़ोस के जान-पहचान के मुस्लिम लोग थे। उन्होंने भी यही बात कहीं थी कि आप टेंशन मत लो, हम आपकी प्रॉपर्टी का खयाल रखेंगे। उसकी देखरेख करेंगे। हमने भरोसा करके चाबी उनको हैंडओवर की और उन्होंने कहा कि आपको एक हफ्‍ते बाद दे देंगे। एक्चुअल में उनको पता था कि एक समय बाद यह सभी उनका ही होने वाला है। अब ये कभी नहीं आएंगे।
 
 
देखिए सर, हमारे पास काफी बड़ा सेब का बाग था। अखरोट के हमारे पेड़ होते थे। हमारे खेल-खलिहान थे। अच्‍छी-खासी जमीन थी। हमारा घर ही 4 मंजिला था। आप सुनकर हैरान हो जाएंगे कि हमारा घर न जला है, लोगों के घर जले थे। न हमारा घर टूटा है, लोगों के घर टूटे थे। पर हमारा घर चोरी हुआ था। 15 साल तक उसकी एक-एक ईंट चोरी होती रही। लोग हमें बताते रहे कि अब आपकी एक दीवार चली गई, अब आपके दरवाजे चले गए। जो भी अंदर था सब लूट के ले गए। 15 साल के बाद घर में एक तिनका तक नहीं बचा। कश्मीर में महंगे घर अच्छी लकड़ियों के होते हैं। मैक्सिमम लोगों के घर इसी तरह चोरी होते रहे। लकड़ी-पत्थर सभी काम आता है। वहां सीमेंट का उपयोग बहुत कम होता है। हम जिस दिन से निकले, उसी दिन से शायद यह चोरी होना शुरू हुई और शायद सबसे पहले हक उसी ने मारा होगा, जो हमारा पड़ोसी था। इंफॉर्मर वहीं होते थे, जो हमारे अगल-बगल के पड़ोसी होते थे। सारे मुसलमान ऐसे नहीं थे। 20 परसेंट अच्छे थे और 30 परसेंट ऐसे थे, जो अटैक कर रहे थे। बाकी न्यूट्रल थे जिन्हें कोई मतलब नहीं था कि कश्मीरी पंडित बचे या मर जाए। हम पलायन नहीं करते लेकिन जब बात बेटी पर आई, हमारी औरतों के रेप पर आई तब हमें पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा। 
 
कश्मीर फाइल्स में 2-4 स्टोरियां बताई गई हैं, पर एक्चुअल में सिक्स हंड्रेड से ज्यादा स्टोरियां होगीं। हमें नहीं पता कि कितनी स्टोरी होगी। कोई भी आंकड़ा कोई नहीं बता सकता। पर सभी दिल दहलाने वाली स्टोरियां हैं। अगर हम कहते हैं कि 4 लाख लोग पलायन कर गए या चलो 2 लाख लोग मान लो तो यकीन मानिए कि 2 लाख स्टोरीज़ होंगी। हर फैमिली की अपनी स्टोरी है, हर सदस्य की एक स्टोरी है, जैसे हमारे पिताजी 7-8 माह तक वहीं रहे। हमें यह नहीं पता था कि वे कहां होंगे और उनके साथ क्या हो रहा होगा? कैसे हैं, ठीक हैं या नहीं? कोई फोन नहीं, कोई मैसेज नहीं।
 
 
पर फाइनली वे आए (जम्मू में) तो हमें पता चला कि उनका भी भरोसा टूट गया। जब उनका कश्मीर लौटने का भरोसा टूट गया तो हमारा भी टूट गया। मैं भी 25 साल के बाद कश्मीर गया। पर मेरे दिमाग में वही बात आई कि हम खुश नहीं हैं तो वो भी खुश नहीं है। हमारा नुकसान सिर्फ ये है कि अगर थोड़ी-बहुत तकलीफ होती। हम कहीं पर न कहीं हो सकता है कि हम कन्वर्ट हो जाते। पर आज एटलिस्ट अपने घर पर होते। अगर हिन्दू बने रहने की सजा यही है तो वह हमें मिली। हमने हिन्दू और कश्मीरियत को बचाकर रखा। पर हमें किसी ने भी सपोर्ट नहीं किया। जितने भी एनजीओ थे, वे कहीं नहीं थे या हमारे लिए नहीं थे। मीडिया कहीं नहीं थी। उस टाइम केंद्र की सरकार को सब पता था। उन्हें यह स्थिति बताई गई थी। लेकिन उनको अपनी पॉलिटिक्स को बचाना था, हमें नहीं।
 
 
कश्मीरी पंडितों की 3 गलतियां थीं। एक गलती यह थी कि वह हिन्दू बने रहना चाहता था। दूसरी गलती उसकी हिन्दुस्तान के ऊपर भरोसा थी। तीसरी गलती ये थी कि उसे भरोसा था कि शायद मैं कहीं जाकर एड्जस्ट हो जाऊंगा। कोई हिन्दुस्तानी मुझे सपोर्ट करेगा। सबसे पहले गाली निकालने वाला एक हिन्दुस्तानी था, जो जम्मू के लोकल लोग थे। हो सकता है कि कुछ लोगों के साथ यह नहीं हुआ हो। सबसे ज्यादा तकलीफ कश्मीरी लड़कियों और औरतों को उन्हीं हिन्दुस्तानी ने दी जिनके पास कश्मीरी पंडित पानी मांगने गए थे। पानी के लिए रुलाया। ये लोग एक्सेप्ट ही नहीं कर पा रहे थे कि ये लोग कश्मीर से यहां क्यों आए? 10 साल तक उन्होंने हमें रुलाया, तरसाया। पर ये हैं कि आज जम्मू के लोग ये जानते हैं कि कश्मीरियों की वजह से ही यहां विकास हुआ। हमने वहां के लोकल लोगों को पढ़ाया। उनको बिजली लाकर दी। उनको ट्रांसपोर्ट का काम कराया। जितने भी कार्य थे उन्हें अपनी शक्ति से, मेहनत से, अपने ज्ञान से और मनोबल से लाकर दी।
 
 
आज जम्मू जो शहर है वह कश्मीरी पंडितों के द्वारा ही बसाया गया है। पहले वह ऐसा नहीं था लेकिन आइडिया और हमारी सोच ने वहां के लोगों का जीवन बदला। पढ़ाई का स्तर बढ़ा। आज हिन्दुस्तान 75वां साल मना रहा है लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं कि कश्मीर एक बहुत ही डेवलप और एडवांस स्टेट रहा है, हमेशा से। अभी 30 साल से टेररिज्म है लेकिन वह पहले रिच स्टेट रहा है। उधर भिखारी नहीं होते। आज भी बहुत रेयर हो। कश्मीरी पंडितों ने कश्मीर को भी सेव किया था और बाद में जम्मू को भी सेव किया है। कश्मीरी पंडित आज जहां-जहां भी हैं, अच्छी जगहों पर हैं। और यह उन मां-बाप या जो उनको लेकर आए कश्मीर से उनको क्रेडिट जाता है, क्योंकि उन्होंने अपने बच्चों को सिर्फ और सिर्फ भूखा रहकर भी एजुकेशन दिया। बिना खाए बच्चों को पढ़ाया है और पढ़ाई से बच्चे आगे बढ़ते गए।
 
 
आज की डेट में यूएएस हो, योरप हो, ऑस्ट्रेलिया हो, चाइना हो, कोई मुल्क बता दो आप। हिन्दुस्तान का कोई स्टेट बता दो आप, जहां कश्मीरी पंडित अच्‍छी पोजिशन पर नहीं हैं, क्योंकि उसका वैपन या हथियार उनका एजुकेशन ही है। और यह उसका वैपन अभी से नहीं, हजारों साल से है। आज कश्मीरी पंडित वैल सेटल हैं। कोई हमसे पूछता है कि अब आप कश्मीर जाना चाहते हैं? तो हमारा कहना है कि कश्मीरी पंडित वापस जाना चाहता है, मगर हमें कश्मीर वो चाहिए, जो हमने 90 में छोड़ा है, वो कश्मीर हमें वापस चाहिए।
 
- अर्जुन भट्ट (एक कश्मीरी पंडित)

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