नज़्म 'बलूग़त' (वयस्क)

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शायर : अब्दुल अहद साज़

1. मेरी नज़्म
मुझसे बहुत छोटी थी
खेलती रहती थी पेहरों आग़ोश में मेरी
आधे अधूरे मिसरे मेरे गले में बाँहें डाले झूलते रहते

ज़ेहन के गेहवारे में हमकते,
दिल के फ़र्श पर रोते मचलते,
नोक-ए-क़लम पर शोर मचाते, ज़िद करते,
माअनी की तितलियों के पीछे दौड़ते फिरते थे अल्फ़ाज़

मेरी नज़्म
मुझसे बहुत छोटी थी
जाने समय कब बीत गया
गुड़ियों के पर निकले और वो परियों से आज़ाद हुईं
लफ़्ज़ जवाँ होकर इज़हार की रेह चल निकले

और मैं--------तन्हा,
अपनी पराई आँखों से ये देख रहा हूँ,
मेरी उंगली थाम के चलने वाली नज़्म
अब अपने पैरों पे खड़ी है

मेरी नज़्म
मुझ से बड़ी है

2.
नज़्म, 'ज़ियारत'

बहुत से लोग मुझ में मर चुके हैं------;
किसी की मौत को बारह बरस बीते
कुछ ऐसे हैं के तीस इक साल होने आए हैं अब जिन की रेहलत को
इधर कुछ सान्हे ताज़ा भी हैं हफ़्तों महीनों के

किसी की हादेसाती मौत अचानक बेज़मीरी का नतीजा थी
बहुत से दब गए मलबे में दीवार-ए-अना के आप ही अपनी
मरे कुछ राबेतों की ख़ुश्क साली में

कुछ ऐसे भी जिनको ज़िन्दा रखना चाहा मैंने अपनी पलकों पर
मगर ख़ुद को जिन्होंने मेरी नज़रों से गिराकर ख़ुदकुशी करली
बचा पाया न मैं कितनों को सारी कोशिशों पर भी
रहे बीमार मुद्दत तक मेरे बातिन के बिस्तर पर
बिलाख़िर फ़ौत हो बैठे

घरों में, दफ़्तरों में, मेहफिलों में, रास्तों पर कितने क़बरिस्तान क़ाइम हैं

मैं जिन से रोज़ ही होकर गुज़रता हूँ
ज़ियारत चलते फिरते मक़बरों की रोज़ करता हूँ

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