तबसिरा : किताब 'सुख़नवर'

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- अज़ीज़ अंसारी
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मौलाना अबुल कलाम आज़ाद अकेदमी इंदौर की ताज़ा पेशकाश है 'सुख़नवर'। इस किताब में आज़ादी के व़क्त अपने कलम का जादू जगाने वाले और उसके बाद से लेकर आज तक के शोअरा के कलाम का इन्तिख़ाब - शामिल है। पचास फ़ीसदी से ज़्यादा शोअरा तो अल्लाह को प्यारे हो चुके हैं। उनका ताअरूर्फ़ और कलाम शाए करके उन्हें फिर से ज़िंदा करने की कोशिश की गई है।

इंदौर, हिंदुस्तान का एक सनअती शहर है। लेकिन यहाँ अदबी और सक़ाफ़ती हलचल हमेशा बनी रहती है। उर्दू-हिन्दी दोनों ज़ुबानों के चाहने वालों की कमी नहीं है। पूरे मुल्क से शायर, कवि और दीगर फनकार यहाँ आते रहते हैं। और सराहे भी खूब जाते हैं। हाल ही में मुन्नवर राना इंदौर मदऊ किसे गए और शायरी के दीवानों ने उन्हें सरआँखों पर बिठाया। उन्हें इतनी इज़्ज़त दी के शायर पूरे मुल्क के किसी शहर में उन्हें इतनी मोहब्बत और इज़्ज़त नहीं मिली होगी।

इंदौर में चंद शोअरा ऐसे हैं जिनका कलाम किताबी शक्ल में मनज़र ए आम पर आ चुका है। मगर ज़्यादातर शोअरा का कलाम किताबी शक्ल हासिल नहीं कर सका है, इसकी कई वजूहात हो सकती हैं। यहाँ बात हम 'सुख़नवर' की कर रहे हैं। शोअरा का नाम पता, कलाम और तस्वीर हासिल करने में यक़ीनन मेहनत की गई है। ऐसा भी नहीं है कि किताब में शामिल हर शायर इंदौर ही में क़याम कर रहा हो। इंदौर से बाहर गुजरात, राजस्थान, महराष्ट्र, दिल्ली बगैर सूबों में शोअरा यहाँ से जाकर बस चुके हैं। कुछ तो मुल्क से बाहर पाकिस्तान तक जा चुके हैं। मगर उन सबका कलाम और तआरूर्फ़ सुख़नवर में शामिल किया गया है इस मेहनत और कोशिश की जितनी तारीफ़ की जाए कम है।
  मौलाना अबुल कलाम आज़ाद अकेदमी इंदौर की ताज़ा पेशकाश है 'सुख़नवर'। इस किताब में आज़ादी के व़क्त अपने कलम का जादू जगाने वाले और उसके बाद से लेकर आज तक के शोअरा के कलाम का इन्तिख़ाब - शामिल है। पचास फ़ीसदी से ज़्यादा शोअरा तो अल्लाह को प्यारे हो चुके हैं।      


कहीं-कहीं ऐसा मेहसूस होता है कि शायर से बगैर पूछे उसका कलाम और जानकारी ले ली गई है। जब के वह शायर कोई नायाब तो था नहीं अगर उससे ख़ुद पूछ कर उसके बार में कुछ लिखा जाता तो वह जानकारी और ज़्यादा हक़ीक़त के क़रीब होती।

किताब में कुछ ऎसे शोअरा भी शरीक हैं जिनके बारे में लोग बहुत कम जानकारी रखते हैं। हम यहाँ कुछ ऐसे ही शोअरा के कलाम से चन्द शेर बतौर नमूना पेश कर रहे हैं।

नवाब एहसान अली बहादुर (मरहूम)

हो गई सदमा ए फ़ुरक़त से ये हालत एहसान
दोस्त भी अब मेरे मरने की दुआ करते हैं

एहसान देखो टूटने पाए न कुफ़्ल ए ज़ब्त
लब हिल गए तो लज़्ज़त ए ज़ख़्म ए जिगर गई

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दानिश कुरैशी (मरहूम)

ज़र परस्तों पर और भी इक तन्ज़
फ़ाक़ामस्तों इक आह और सही

अभी इन्साँ पे ऐसा व़क्त भी आएगा ए दानिश
के अपनों से भी अपनी शक्ल पहचानी न जाएगी

कयामुद्दीन सेहबा (मरहूम)

हासिल ए ज़िंदगी लम्हात तेरी यादों के
राज़ दर राज़ थे इस राज़ को समझा होता

जो भर जाता है दिल तो अश्क आ जाते हैं आँखों में
सुबू लबरेज़ होने पर तलाश ए जाम होती है

ज़रीफ़ इंदौरी (मरहूम) मिज़ाह निगा र

कमज़ोर को दबाते हैं दुनिया में सब ज़रीफ़
मादा से छेड़ करता है नर देखता हूँ मैं

किसी को टुकड़े भी मिलते नहीं हैं माँगे से
ख़ुदा की शान कहीं खीर खाई जाती है

ग़रीक़ ख़ैरआबादी (मरहूम)

इश्क़ का रंग कहीं सोज़ कहीं साज़ में है
एक नग़्मा है मगर मुखतलिफ़ अंदाज़ में है

ना बाज़ आएँगे हम भी सय्ये तकमील ए नशेमन से
मिटाया जाएगा आ़खिर हमारा आशयाँ कब तक

जीवनलाल गोहर मुलतानी (स्वर्गीय)

मसल रहे हैं कली-कली को ख़िजाँ के बेरेह्म हाथ गोहर
और उस पे दावा ये है सबका के फस्ल ए गुल मुस्कुरा रही है

उनके दर का फ़क़ीर हूँ गोहर
ये मेरी शान ए शहरयारी है

नादिम इंदौरी (मरहूम)

नादिम है मेरी ज़ात से घर ही में अन्जुमन
मैं आ रहा हूँ सोज़ के सांमाँ लिए हुए

सब कुछ तू इसमें पाएगा क्या इश्क़, क्या जमाल
नादिम दिल ऐ शिकस्ता पे नज़रें जमा के देख

वासिल इंदौरी (मरहूम)

रात दिन जिस तरह वासिल को जलाया तुमने
जुल्म इस तरहा भी करता है मेरी जाँ कोई

करू तुझको हर इक़ क़दम पे मैं सज़ेद
सर ए राह तेरा ऩक़्श ऐ पा चाहता हूँ

इन शेयरों के अलावा भी इंदौर के मोतबर और उस्ताद शोअरा जैसे शाँदा इंदौरी, कैसर इंदौरी, नश्तर इंदौरी, सागर चिश्ती, सादिक़ इंदौरी, वगैरा का कलाम 'सुखनवर' में है। इंदौर के मक़बूल और मशहूर शोअरा जैसे काशिफ़ इंदौरी, मुज़्तर इंदौरी, नूर इंदौरी और राहत इंदौरी भी 'सुखनवर' में मौजूद हैं। नए पुराने इन तमाम शोअरा के कलाम के साथ किताब का पेश लफ़्ज़ जो प्रो. मुख़्तार शमीम ने लिखा है, पढ़ने लायक है। इसे पढ़कर इंदौर में उर्दू की पूरी तारीख़ ऩजरों के सामने घूमने लगती है।

मौलाना अबुल कलाम अज़ाद अकेदमी की इस मुबारक तख्नलीक़ के लिए जितनी तारीफ़ की जाए कम है।
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