मशहूर शायर राहत इन्दौरी से अज़ीज़ अन्सारी की बातचीत

(बेरूनी मुमालिक में उर्दू)

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राहत इन्दौरी एक ऐसा शायर है जो हर उस मुल्क में जाना-पहचाना जाता है जहाँ उर्दू बोली और समझी जाती है। तीस-पैंतीस सालों से राहत ने मुशायरों के स्टेज पर एक हलचल-सी पैदा कर रखी है। वह मुशायरा मुकम्मल नहीं समझा जाता जिसमें राहत शरीक न हों। बीस-बाईस सालों से राहत बेरूनी मुमालिक के मुशायरों में भी हलचल पैदा किए हुए हैं- वहाँ भी वे उतने ही मक़बूल हैं जितने अपने मुल्क हिन्दुस्तान में- नए साल के मौक़े पर जब हमारी उनसे मुलाक़ात हुई तो हमने बेरूनी मुमालिक में उर्दू उनवान पर ही गुफ़्तगू करना मुनासिब समझा।

स. लोग कहते हैं कि आजकल आप अपने मुल्क के मुशायरों में बहुत कम शिरकत करते हैं- आप पर पहले भी कई इल्ज़ाम लगते रहे हैं। अब ये एक नया इल्ज़ाम, क्या कहेंगे आप इसके बारे में ।
ज. ये नया इल्ज़ाम बज़ाहिर ठीक है, लेकिन हक़ीक़त ये है कि जब मैं मुल्क में होता ही नहीं तो शिरकत कैसे कर सकता हूँ। बेरूनी मुल्कों के मुशायरों की तारीख़ें काफ़ी पहले तय हो जाती हैं। वहाँ एक या दो नहीं, लगातार आठ-दस मुशायरों की क़तार होती है। ये मुशायरे मुख़तलिफ़ शहरों में मुनअक़िद होते हैं। हम क़रार कर चुके होते हैं उनमें शरीक होने का। अब ऐसी हालत में अगर उन्हीं तारीख़ों में अपने मुल्क में मुशायरे हों और उनमें शिरकत न कर सकूँ तो इसमें मेरा क्या क़ुसूर।

स. कुछ और बताइए, इन मुशायरों के बारे में ।
ज. वहाँ मुशायरे हफ़्ते में तीन दिन यानी जुमआ, सनीचर और इतवार को ही मुनअक़िद होते हैं। बाक़ी दिनों में आराम होता है, दावतें होती हैं और मेहमान नवाज़ी का लुत्फ़ उठाया जाता है। जिस दिन अवामी मुशायरा नहीं होता उस दिन किसी रईस की हवेली पर महफ़िल होती है। यहाँ मुशायरे से ज़्यादा दाद मिलती है और साथ में ढेर सारे तोहफ़े। यहाँ एक फ़ायदा और होता है, जो शायर अपने साथ अपनी किताबें ले जाता है वह सब हाथोंहाथ अच्छे दामों में बिक जाती हैं।

स. इन मुशायरों की शुरुआत कब, कहाँ से और कैसे हुई?
ज. 1984 से बेरूनी मुमालिक में मुशायरे पढ़ रहा हूँ। पहला मुशायरा कराची (पाकिस्तान) में पढ़ा। इसमें हिन्दुस्तान के नामवर और बविक़ार शायर मदऊ किए गए थे। मैं उन सबमें नया और जूनियर था। तब से हर साल पाकिस्तान जाना होता है- कराची और लाहौर के अलावा वहाँ के सभी शहरों में मुशायरे पढ़ चुका हूँ।

स. यहाँ और वहाँ के माहौल में आपने क्या फ़र्क़ महसूस किया?
ज. वहाँ पहले अवामी मुशायरे नहीं हुआ करते थे। किसी क्लब किसी रेस्टॉरेंट में किसी ख़ास मौक़े पर कुछ ख़ास लोगों के बीच सुनना-सुनाना हो जाता था। यहाँ जो शायरी पढ़ी जाती उसकी ज़ुबान बहुत सख्त और मुश्किल हुआ करती थी। अवामी मुशायरों का चलन और आसान ज़ुबान का इस्तेमाल हम हिन्दुस्तानी शायरों ने शुरू किया। अब ये हाल हैं कि जब मुशायरा होता है तो हज़ारों की तादाद में लोग मौजूद होते हैं।

स. आजकल आप कुछ और मुमालिक में मुशायरे पढ़ रहे हैं ।
ज. ख़ुदा का शुक्र है ‍िक मुझे कई मुल्क बड़ी इज़्ज़त से बुलाते हैं- अमेरिका, अरब मुमालिक, यू.के., ऑस्ट्रेलिया, जर्मन, मॉरीशस वग़ैरा-वग़ैरा।

स. पहले बात करते हैं अमेरिका की, वहाँ के बारे में कुछ बताइए।
ज. 1992 से अमेरिका जा रहा हूँ- कई शहरों में मुशायरे पढ़ चुका हूँ। वाशिंगटन, न्यूयॉर्क, लॉस एंजिल्स, ह्यूस्ट्न, शिकागो वग़ैरा शहरों में मुशायरे होते रहते हैं। नाम ज़रूर अमेरिका का है मगर यहाँ का सारा माहौल हिन्दुस्तान या पाकिस्तान का होता है- मुशायरा करने वाले भी हिन्दुस्तान के रहने वाले हैं या पाकिस्तानी बाशिन्दे। इन लोगों ने वहाँ अपनी जमाअतें बना रखी हैं जो बड़े-बड़े मुशायरे मुख़तलिफ़ शहरों में मुनअक़िद करती हैं। शायर को एक मुशायरे के लिए नहीं आठ-दस मुशायरों की सीरीज़ के लिए बुलाया जाता है। यहाँ की एक बज़्म है 'गेहवारा ए अदब' जो इस काम के लिए काफ़ी मशहूर है। डॉ. अब्दुल्ला और डॉ. नय्यर जहाँ (नय्यर आपा) के नाम इस ख़िदमत से जुड़े हुए हैं।

स. शायरों का इंतेख़ाब कैसे किया जाता है, इसके बारे में कुछ बताइए ।
ज. देखिए, वहाँ जो हिन्दुस्तानी या पाकिस्तानी हैं वही लोग मुशायरे करते हैं। उन्हें मालूम रहता है ‍िक कहाँ कौन सा शायर कैसा है। वे लोग अपनी पसन्द के शायर चुन लेते हैं। पहले सिफ़ारिश चल जाया करती थी लेकिन अब ऐसा नहीं होता। आजकल इंटरनेट, टीवी, और सीडी का ज़माना है। अगर किसी की सिफ़ारिश की भी गई तो उसकी सीडी मंगवा ली जाती है। सारे ज़िम्मेदार उसे देखकर फ़ैसला करते हैं। यह सब इसलिए करना पड़ता है कि एक शायर को वहाँ बुलाने पर चार-पाँच लाख रुपए का ख़र्च होता है।

स. किस तरह की शायरी वहाँ पसन्द की जाती है?
ज. ख़ास महफ़िलों की शायरी की ज़ुबान आज भी वही मिर्ज़ा ग़ालिब के इब्तेदाई दौर की ज़ुबान होती है, लेकिन अवामी मुशायरों में हमारी शायरी बहुत पसन्द की जाती है इसलिए हम वहाँ बार-बार बुलाए जाते हैं और ख़ूब सुने जाते हैं। संजीदा शायरी करने वाले भी पसन्द किए जाते हैं और मज़ाहिया शायरी करने वाले भी। मिज़ाह निगारों में साग़र-ख़य्यामी और एजाज़ पापुलर ज़्यादा पापुलर हैं।

स. वहाँ के अख़बार और रिसालों के बारे में कुछ बताइए।
ज. अख़बार और रिसाले बहुत हैं। कनाडा से एक रिसाला शाए हो रहा है 'राबेता' और टोरंटो से 'नया अदब'। न्यूयॉर्क और वाशिंगटन से इतने अख़बार निकलते हैं कि इतने दिल्ली और कराची से भी नहीं निकलते होंगे। ये तमाम अख़बार फ़्री बाँटे जाते हैं। क्लबों और रेस्टॉरेंट के बाहर स्टॉल पर इन्हें रख दिया जाता है, जिसे जो पढ़ना हो उठा ले। अख़बार पर होने वाला ख़र्च इश्तेहारात से पूरा किया जाता है।

स. हिन्दुस्तान के अख़बार वहाँ मिलते हैं या नहीं ।
ज. हिन्दुस्तान के सिर्फ़ दो अख़बार वहाँ मक़बूल हैं, सियासत और मुनसिफ़। इत्तेफ़ाक़ से ये दोनों हैदराबाद से शाए होते हैं।

स. अरब मुमालिक में कैसा माहौल है?
ज. यहाँ भी हिन्दुस्तानी-पाकिस्तानी बाशिन्दे बहुत हैं। अपने ज़ौक़ की तस्कीन के लिए ये लोग मुशायरे करते रहते हैं। सऊदी अरेबिया, सल्तनत ओमान, बहरीन, मसक़त वग़ैरा में अक्सर मुशायरे होते हैं। आपको ये भी बताता चलूँ कि ऑस्ट्रेलिया में बज़्मे अदब क़ायम है। जो बहुत काम कर रही है। जर्मन और मॉरीशस में भी मुशायरों का दौर शुरू हो गया है।

स. यूके में भी हमने सुना है हमारी ज़ुबानों की ख़ूब हलचल है ।
ज. आपने ठीक सुना है। लन्दन और बर्मिंघम में उर्दू-हिन्दी के जानने और चाहने वाले बहुत हैं। यहाँ मुशायरे काफ़ी मक़बूल हैं। अब यहाँ कवि सम्मेलन भी होने लगे हैं।

स. आप क्या सोचते हैं, मुशायरों का जो ये दौर चल रहा है, क्या आगे भी जारी रहेगा?
ज. अभी कुछ सालों तक तो ख़तरा नहीं है, लेकिन ये दौर शायद ज़्यादा दिनों तक न चले। हिन्दुस्तानियों और पाकिस्तानियों को बाहर निकालने की फुसफुसाहट सुनाई देने लगी है। अगर ऐसा हुआ तो वहाँ के बाशिन्दों से कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। नई नस्ल को भी हमारी तहज़ीब में कोई दिलचस्पी नहीं।

स. काफ़ी लम्बे अरसे से आप बाहर मुशायरे पढ़ रहे हैं। कोई अन्दाज़ा है आपने कितने मुशायरे अब तक पढ़ लिए होंगे?
ज. सन 2008 शुरू हो चुका है, मगर इससे पहले ही मैं अपने बेरूनी मुमालिक के मुशायरों की सेंचुरी पूरी कर चुका हूँ।

स. काफ़ी लम्बे अरसे से आप बाहर मुशायरे पढ़ रहे हैं। कोई अन्दाज़ा है आप ने कितने मुशायरे अब तक पढ़ लिए होंगे ।
ज. सन 2008 शुरू हो चुका है। मगर इस से पहले ही मैं अपने बेरूनी मुमालिक के मुशायरों की सेंचुरी पूरी कर चुका हूँ।

स. एक आख़री सवाल और, जिन मुमालिक का ज़िक्र अभी आपने किया, वहाँ के लोगों के बारे में कुछ बताइए।
ज. सारे ही मुल्कों के लोग हमसे प्यार करते हैं। मुसीबत के वक़्त दिल खोलकर मदद करते हैं। वे सब हमारे सच्चे हमदर्द हैं। हिन्दू-मुस्लिम की या हिन्दुस्तानी-पाकिस्तानी की कोई तफ़रीक़ उनमें नहीं है।

राहत साहब आपने अपना क़ीमती वक़्त मुझे दिया, आपका तहेदिल से शुक्रिया।
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