लफ़्ज़ों की रूह में उतर जाते थे जगजीत

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- दिनेश 'दर्द'

ग़ज़ल गायक जगजीत सिंह की पुण्यतिथि पर बाँसुरी वादक रोनू मजूमदार और भजन व ग़ज़ल गायक अनूप जलोटा से हुई बातचीत पर आधारित-
 
यूँ तो मौत के पास हर शख़्स का नाम-पता है। तय वक़्त और तारीख़ पर वो बिना दस्तक, अपनी डायरी में दर्ज नाम तक पहुँच भी जाती है। कहीं-कहीं तो हालाँकि हर मौत, तमाम ज़िंदा लोगों का भी बहुत कुछ तहस-नहस कर देती है। और कहीं किसी के मर जाने से किसी को कोई फ़र्क़ तक नहीं पड़ता। मगर आज हम यहाँ उस शख़्स का ज़िक्र कर रहे हैं, जिसकी मौत के साथ, उसके चाहने वालों का भी बहुत कुछ ख़त्म हो गया। कहने को बेशक ये बात कही जा सकती है कि रफ़्ता-रफ़्ता वक़्त हर ज़ख़्म को भर देता है। मगर कभी-कभी किसी के बग़ैर जीने का तज्रुबा, वक़्त की इस मिसाल पर सियाही उंडेल देता है। और ऐसे मोजिज़े (चमत्कार) बहुत कम ही होते हैं। इन्हीं चुनिंदा मोजिज़ों में से बात हो रही है उस मोजिज़े की, जो लफ़्ज़ों की रूह तक उतर कर दीगर शायरों की ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दिया करता था। इतना ही नहीं, वो अपने सुनने वालों को अपनी आवाज़ की उन गहराइयों में ले जाता था, जहाँ फ़ज़ा के साथ-साथ आँखें भी नम हो जाया करती थीं। और इस मोजिज़े का नाम था जगजीत सिंह।
 
नहीं हुई चित्रा जी से बात करने की हिम्मत : जगजीत साहब के बारे में इतना कुछ लिखा-पढ़ा जा चुका है कि कुछ भी लिखता, तो शायद वो दोहराया हुआ-सा ही लगता। उनके बारे में कुछ नया लिख सकूँ, इसी ग़रज़ से मैंने उनके क़रीबियों के नंबर डायल किए। सबसे पहला फोन लगाया उनकी पत्नी चित्रा जी को। अभी घंटी जा ही रही थी कि ज़ेहन में सैकड़ों सवाल चीख पड़े। मसलन, उनसे जगजीत जी के बारे में कुछ भी पूछने की हिम्मत कैसे जुटा पाऊँगा। क्या पूछूँगा। वो फोन रिसीव करेंगी, तो बात कैसे शुरू कर सकूँगा। अगर बात करते-करते वो रो पड़ीं, तो मैं उनको और ख़ुद को कैसे सम्हालूँगा। इसी तरह के तमाम सवाल-संशय परेशान किए हुए थे कि मैंने फोन काट दिया। और फिर हिम्मत नहीं जुटा सका।
 
बाँध से छूटे पानी की तरह बह निकले : मेरी फेहरिस्त में ख्यात भजन और ग़ज़ल गायक अनूप जलोटा और मैहर घराने के प्रसिद्ध बाँसुरीवादक पं.रोनू मजूमदार के नाम भी थे। रोनू जी से गाहेबगाहे बात होती ही रहती है। लिहाज़ा, बातचीत को लेकर मैं उनके साथ सहज हूँ इसलिए पहले रोनू जी को ही फोन लगाया। मेरे फोन लगाने की वजह मालूम पड़ते ही उन्होंने जगजीत जी के बारे में तमाम बातें ऐसे साझा कीं, जैसे एक मुद्दत से किसी से 'भार्इसाब' (रोनू जी, जगजीत सिंह को भाईसाब ही कहा करते थे) के बारे में बातें करने को तरस रहे हों। बाँध से छूटे पानी की तरह बह निकले। 
 
गुरुजी के कहने पर लाइव कंसर्ट बंद किए : उन्होंने बताया कि भाईसाब मुझ पर छोटे भाई की तरह स्नेह रखते थे। 1983 से 1990 तक मैंने उनके साथ ख़ूब काम किया। हालाँकि 1990 के बाद भी मैंने उनके साथ काम करना पूरी तरह नहीं छोड़ा। केवल मेरे गुरुजी की आज्ञा थी कि मैं संगीत के शास्त्रीय पक्ष पर अधिक ध्यान दूँ, इसलिए भाईसाब के साथ लाइव कंसर्ट बंद कर दिए। मगर एल्बम पर काम करता रहा। उनका एल्बम 'सज्दा', जिसमें भाईसाब के साथ लता मंगेशकर जी ने भी अपनी आवाज़ दी थी और 'फेस टू फेस' आदि मैंने क्रमश: 1991 और 1994 में किए।
 
मेरी शादी में ख़ूब भाँगड़ा किया था उन्होंने : पहली बार विदेश यात्रा मैंने उन्हीं के साथ की थी। एक लाइव कंसर्ट के लिए वो मुझे अपने साथ यूएसए ले गए थे। मैंने अपनी शादी के बारे में बताया, तो कहने लगे, 'मेरा भाँगड़ा भी रखना यार।' और फिर मेरे पिताजी डॉ. भानू मजूमदार के साथ उन्होंने ख़ूब भाँगड़ा किया। आज भी जब शादी की वीडियो रिकॉर्डिंग में उन्हें नाचते हुए देखते हैं, तो आँखें भर आती हैं। शादी के मंडप में उन्होंने जो भाँगड़ा किया, वो आज तक सबको याद है। बड़ा प्यारा और अपनेपन से भरा हुआ साथ रहा उनका। एक बात और, वो ये कि मुझसे पंजाबी में ही बात किया करते थे भाईसाब। चूँकि मैं 9 भाषाएँ बोल लेता हूँ। हिन्दी तो मेरी मातृभाषा है, वो तो मैं बोलूँगा ही और फिर मैं बनारस का हूँ। इसके अलावा जो भाषा मैं बहुत अच्छे से बोल लेता हूँ, वो है पंजाबी।
 
आँखें भर आईं और गाड़ी रोकना पड़ी : अभी परसों (07/10/2014) की ही बात है शायद, जब मैं गाड़ी चला रहा था। उस समय भाईसाब की ही याद में एक ग़ज़ल, 'कोई ये कैसे बताए के वो तन्हा क्यों है, वो जो अपना था, वही और किसी का क्यों है...', बज रही थी। ये ग़ज़ल सुनते ही मेरी आँखें भर आईं और आख़िर मुझे गाड़ी रोक देना पड़ा। ऐसा हो भी क्यूँ नहीं। आख़िर साज़ और आवाज़ का बिल्कुल वही रिश्ता है, जो पानी से नमी का होता है, जो हवाओं से ख़ुशबू का होता है। जिस तरह नमी से पानी को अलग किया जाना मुमकिन नहीं, उसी तरह ख़ुशबू को हवाओं से जुदा कर पाना भी नामुमकिन है। शायद इसीलिए उनकी आँखों में एकाएक नमी छा गई।
 
जगजीत के साथ दिलजीत भी थे वो : कहने लगे, जितने बड़े लेजेंड्री गायक थे। उनकी आवाज़ में दर्द का सैलाब भी वैसा ही था। रुला देते थे बस। गाने के अलावा उनकी एक ख़ास बात ये थी, कि वो एक मददगार इंसान थे। वो मदद करने के बाद कभी उसके बारे में बात नहीं करते थे। सचमुच एक दानी पुरुष थे वो। जितने भी लोगों की उन्होंने मदद की, उनमें से बहुत कम लोग हैं, जो सामने आकर इस बात को कहेंगे, मगर मैं कहूँगा कि मेरी भी मदद उन्होंने की थी। मैंने कहीं फेसबुक पर भी इस बात का ज़िक्र किया है कि मेरे बहुत कठिन समय में जगजीत भाई ने मेरी मदद की थी, लेकिन फिर कभी उसका ज़िक्र नहीं किया। इतना बड़ा दिल था उनका, वो दिलों को जीतने वाले थे। मैं कहूँगा कि जगजीत के साथ-साथ 'दिलजीत' भी थे वो। ऐसा व्यक्ति मेरे जीवन में फिर नहीं आया कभी।
 
किसी को तकलीफ़ में देख नहीं पाते थे : उनका मदद करने का आलम ये था कि तकलीफ़ में किसी को देख ही नहीं पाते थे वो। आप उनके साथी कलाकारों से पूछें, तो आपको मालूम पड़ जाएगा कि वो कितने बड़े राजा किस्म के आदमी थे। ऐसी तबीयत आपको किसी में देखने को नहीं मिलेगी। ऐसी बात नहीं है कि वो अब नहीं रहे, तो मैं बस कहने के लिए कह रहा हूँ। ये सत्य बात है, मेरे बहुत कठिन समय में मेरे बहुत काम आए बहुत।
 
सो नहीं सका था उस रात : मैं बाल मुरलीकृष्ण जी के साथ जुगलबंदी के टूर पर अमेरिका जा रहा था, तब जाते समय रास्ते में ही उनके कोमा में जाने की ख़बर आ गई थी। मैंने उसी समय उनके कोमा से लौट आने की प्रार्थना की। मगर ईश्वर ने मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। डॉक्टरों ने भी जवाब दे दिया था। प्रोग्राम देते वक़्त मुझे उनके न रहने की ख़बर मिली। फिर उस रात सो नहीं सका था मैं। उनके साथ किए काम की सारी यादें एकसाथ घूम गईं। 'झुकी-झुकी सी नज़र...', 'सच्ची बात कही थी मैंने, लोगों ने सूली पे चढ़ाया...', 'बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी...' सहित कई ग़ज़लें आज भी दिलो-दिमाग़ में गूँजने के साथ-साथ रगों में बहती रहती हैं।
 
रोनू, तू मेरा दर्द समझता है : मुझसे हरदम कहते थे, 'रोनू ! तेरी बाँसुरी का मैं दीवाना हूँ, मेरे दर्द को बस तू ही समझता है।' सारी इंडस्ट्री जानती है, कि हम एक-दूसरे के कितना क़रीब थे। मैंने जब उन्हें छोड़ा, तो वो दु:खी हो गए। आज भी लोग उनके गायन के साथ मुझे बाँसुरी बजाते हुए पुराने वीडियो देखते हैं, तो कहते हैं कि रोनू मजूमदार उनके दर्द को समझते थे। उनके साथ किए काम की याद कभी हल्की पड़ती ही नहीं। वो यूँ ही उम्रभर मेरे साथ रहेगी। उनके जैसा फ़नकार, ऐसा बड़ा भाई और ऐसा व्यक्ति नसीब से ही मिलता है।
 
अनूप जलोटा ने जगजीत सिंह को कुछ यूँ किया याद-

अनूप जलोटा ने जगजीत सिंह को कुछ यूँ किया याद-
 
लगता ही नहीं कि वो चले गए : उन्होंने बताया कि जगजीत जी से बहुत प्रेम मिला। बड़े भाई की तरह थे वो और ऐसा सौभाग्य बहुत कम लोगों को मिला है। मेरे पूछने पर, कि उनके चले जाने के बाद कैसे बीत रहे हैं आपके दिन? अनूप जी ने फौरन कहा, 'कौन कहता है कि वो चले गए। जगजीत साहब, लगता ही नहीं कि चले गए हैं। जब वो थे, तब भी हम उनको इतना सुनते थे, अब भी उतना ही सुनते हैं। सो, हमें तो कोई फ़र्क़ पड़ा ही नहीं। पूछने पर, कि उनसे जुड़ा कोई वाक़िआ जो आपके लिए यादगार हो, उन्होंने बताया कि 'तीन साल पहले हमारे जन्मदिन पर आए और कहने लगे, 'मैं गाऊँगा।' और ख़ूब जमकर गाया उन्होंने। हमारे उनके साथ कई जुगलबंदी के प्रोग्राम हुए। लंदन में भी हमने साथ में प्रोग्राम दिए।'
 
आख़िरी दो दिन मेरे साथ थे जगजीत जी : उन्होंने बताया कि, ऊपरवाला भी कभी-कभी अजब संयोग कर देता है। एक बार ऐसा ही संयोग हुआ कि उनकी ज़िंदगी के आख़िरी दो दिनों की प्रोग्रामिंग उसने मेरे साथ कर दी। हुआ यूँ, कि एक प्रोग्राम के सिलसिले में मेरा देहरादून जाना हुआ। मेरे ऑर्गनाइज़र ने जगजीत सिंह साहब को बुलाने की मंशा ज़ाहिर करते हुए कहा कि दो दिन के प्रोग्राम में अगले दिन उनका कार्यक्रम रख लेंगे। लिहाज़ा, मैंने उनसे बात की और वो मान गए। लेकिन वो एक दिन पहले ही देहरादून आ गए। मैंने वजह पूछी, तो कहने लगे, 'मेरा मन हो रहा तुम्हारे साथ रहूँ। फिर तीसरे दिन जब वो बंबई लौटे, तो मालूम पड़ा कि कोमा में चले गए हैं, उन्हें ब्रेन हैमरेज हो गया है। इस तरह ऊपरवाले के संयोग से उनके आख़िरी दो दिन मेरे साथ गुज़रे।
 
 
जिस्म मरते हैं, रूह कभी नहीं मरती
दरअसल, तक़दीर ने ज़िंदगी की सुबह से लेकर ज़िंदगी की शाम तक जिस शख़्स के बेइंतिहा इम्तेहान लिए हों, वो आख़िर ज़िंदगी की जंग जीतता भी, तो कब तक? लिहाज़ा, हार गया। आख़िर मौत ने हरा दिया उस जगजीत सिंह को। उस जगजीत सिंह को, जिसने उम्र भर ज़िंदगी के गीत गाए, हर किसी से मुहब्बत निभाई और हरदम वफ़ा का पास रक्खा। हर किसी के लिए उनके ज़ेहनो-दिल में दर्द था। दर्द की इसी शिद्दत के चलते शायद मौत ने ब्रेन हेमरेज के बहाने उन्हें घेर लिया। पहले ब्रेन हेमरेज, फिर कोमा और फिर 10 अक्टूबर 2011 को उन्हें साथ ले गई। कहने को मौत जीत गई लेकिन करोड़ों दिलों में अपनी रुहानी आवाज़ की शक्ल में आज भी जगजीत सिंह ज़िंदा हैं। क्योंकि जिस्म मरते हैं, रूह कभी नहीं मरती।
 
 
उनकी गाई कुछ ग़ज़लें/गीत/नज़्में-
 
- झुकी-झुकी सी नज़र बेक़रार है के नहीं
- तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
- तुम को देखा तो ये खयाल आया
- कोई फरियाद तेरे दिल में दबी हो जैसे
- देख लो ख़्वाब मगर ख़्वाब का चर्चा न करो
- जिनको दुनिया की निगाहों से छुपाए रखा
- तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त मैं जलाता कैसे
- ये तेरा घर, ये मेरा घर
- प्यार मुझसे जो किया तुमने तो क्या पाओगी
- मेरी आंखों ने चुना है तुझको दुनिया देखकर...। 
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