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फ़ाज़िल अंसारी बुरहानपुरी की ग़ज़लें
Webdunia
शनिवार, 30 अगस्त 2008 (15:45 IST)
1. दिल के मकाँ में, आँख के आंगन में, कुछ न था
जब ग़म न था, हयात के दामन में, कुछ न था
ये तो ज़रा बताओ हमें एहले-कारवाँ
इन रेहबरों में क्या है जो रेहज़न में कुछ न था
ज़ुलमत का जब तिलिस्म न टूटा निगाह से
रोशन हुआ के दीदा-ए-रोशन में कुछ न था
वो तो बहार का हमें रखना पड़ा भरम
वरना ये वाक़िआ है के गुलशन में कुछ न था
मुझ पर बतौरे-ख़ास थी उसकी निगाहे-लुत्फ
कहता मैं किस तरह मेरे दुश्मन में कुछ न था
ये भी दुरुस्त है के नशेमन में बर्क़ थी
ये भी गलत नहीं के नशेमन में कुछ न था
फ़ाज़िल रुख़े-हयात पे यूँ थीं मसर्रतें
जैसे ग़मे-हयात की उलझन में कुछ न
2. शोलों से हवादिस के गुज़र ज ाऊ ँगा इक दिन
सोने की तरह मैं भी निखर जाऊंगा इक द िन
मैं ज़िन्दा हुआ मुर्दा परस्ती से जहाँ की
सोचा भी न था मिट के उभर जाऊँगा इक सिन
बनते रहें हालात मेरी राह के पत्थर
तूफ़ान की मानिन्द गुज़र जाऊ ँगा इक दिन
रेह ख़िज़्र के साथ ऎ ग़मे-हस्ती के मेरा क्या
सौ साल जिऊँगा भी तो मर जाऊँगा इक दिन
शीराज़ा-ए-हस्ती है बंधा तार-ए-नफ़स से
ये तार जो टूटा तो बिखर जाऊँगा इक दिन
बिगड़े हुए हालात से मायूस नहीं मैं
उम्मीद है फ़ाज़िल के संवर जाऊँगा इक दिन
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