ग़ज़लें : जोश

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Aziz AnsariWD

1.
क़सम है आपके हर रोज़ रूठ जाने क ी
के अब हवस है अजल को गले लगाने क ी

वहाँ से है मेरी हिम्मत की इब्तिदा अल्लाह
जो इंतिहा है तेरे सब्र आज़माने क ी

फूँका हुआ है मेरे आशियाँ का हर तिनका
फ़लक को ख़ू है तो हो बिजलियाँ गिराने क ी

हज़ार बार हुई गो मआलेगुल से दोचार
कली से ख़ू न गई फिर भी मुस्कुराने क ी

मेरे ग़ुरूर के माथे पे आ चली है शिक न
बदल रही है तो बदले हवा ज़माने क ी

चिराग़े देरो हरम कब के बुझ गए ए जो श
हनोज़ शम्मा है रोशन शराबख़ाने की

2.
ख़ुद अपनी ज़िन्दगी से वेहशत सी हो गई ह ै
तारी कुछ ऐसी दिल पे इबरत सी हो गई ह ै

ज़ौक़े तरब से दिल को होने लगी है वेहश त
कुछ ऐसी ग़म की जानिब रग़बत सी हो गई ह ै

सीने पे मेरे जब से रक्खा है हाथ तून े
कुछ और दर्दे दिल में शिद्दत सी हो गई है

मुमकिन नहीं के मिलकर रसमन ही मुस्कुरा द ो
तुमको तो जैसे हमसे नफ़रत सी हो गई

अब तो है कुछ दिनों से यूँ दिल बुझा-बुझा-स ा
दोनों जहाँ से गोया फ़ुरसत सी हो गई

वो अब कहाँ हैं लेकिन ऐ हमनशीं यहाँ तो
मुड़-मुड़ के देखने की आदत सी हो गई ह ै

ऐ जोश रफ़्ता-रफ़्ता शायद हमारे दिल से
ज़ौक़े फ़सुरदगी को उल्फ़त सी हो गई ह ै
---------------

3.
वो जोश ख़ैरगी है तमाशा कहें जिस े
बेपरदा यूँ हुए हैं के परदा कहें जिस े

अल्लाहरे ख़ाकसारिए रिनदाँने बादा ख्वार
रश्के ग़ुरूरो क़ैसरो कसरा कहें जिस े

बिजली गिरी वो दिल पे जिगर तक उतर ग ई
इस चर्ख़े नाज़ से क़दे बाला कहें जिस े

ज़ुल्फ़े हयात नोएबशर में है आज तक
ज़ख़्मे गुनाहे आदम ओ हव्वा कहें जिस े

कितनी हक़ीक़तों से फ़ज़ूँतर है वो फ़रेब
दिल की ज़ुबाँ में वाद ए फ़रदा कहें जिस े

मेरा लक़ब है जिसका लक़ब है शमीमे ज़ुल्फ़
मेरी नज़र है चेहरा ए ज़ेबा कहें जिस े


लो आ रहा है वो कोई मस्तेख़राम से
इस चाल से के लरज़िशे सेहबा कहें जिस े

तेरे निशाते ख़ाना ए अमरोज़ में नहीं
वो बुज़दिली के ख़तरा ए फ़रदा कहें जिसे

ख़ंजर है जोश हाथ में दामन लहू से त र
ये उसके तौर हैं के मसीहा कहें जिसे
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