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बादल दरिया पर बरसा हो
ग़ज़ल
Webdunia
- अज़ीज़ अंसार ी
WD
बादल दरिया पर बरसा हो ये भी तो हो सकता है
खेत हमारा सूख रहा हो ये भी तो हो सकता है
उसके लबों से हमदर्दी के झरने बहते रहते हैं
दिल में नफ़रत का दरिया हो ये भी तो हो सकता है
ऊँची पुख़्ता दीवारें हैं क़ैदी कैसे भागेगा
जेल के अन्दर से रस्ता हो ये भी तो हो सकता है
दूर से देखो तो बस्ती में दीवाली ख़ुशहाली है
आग लगी हो शोर मचा हो ये भी तो हो सकता है
जाने कब से थमा हुआ है बीच समन्दर एक जहाज़
धीरे-धीरे डूब रहा हो ये भी तो हो सकता है
दीप जला के भटके हुए को राह दिखाने वाला ख़ुद
राह किसी की देख रहा हो ये भी तो हो सकता है
हुक्म हुआ है काँच का बरतन सर पर रखकर नाच अज़ीज़
बरतन में तेज़ाब भरा हो ये भी तो हो सकता है
किसी गली में खुला
किसी गली में खुला दिल का दर न था कोई
तमाम शहर में अपना ही घर न था कोई
उठाए फिरता रहा जिसको अपने काँधों पर
वो मेरा अपना था बारे दिगर न था कोई
तमाम शहर में शीशे के थे दर ओ दीवार
मगर किसी को भी पत्थर का डर न था कोई
मैं तन्हा कब से खड़ा हूँ वफ़ा की मंज़िल पर
मेरा नसीब मेरा हमसफ़र न था कोई
मलामतों के तो पत्थर थे उसके हाथों में
नज़र के सामने शीशे का घर न था कोई
तड़पते देखा उसे तो हमें यक़ीन हुआ
हमारा नाला ए दिल बेअसर न था कोई
हमारा हाल लिखा था हमारे चेहरे पर
हमारे हाल से यूँ बेख़बर न था कोई
चिराग़े ज़ीस्त हमारा ये बुझ गया कैसे
जहाँ रखा था हवा का गुज़र न था कोई
उस एक ग़म के सहारे ख़ुशी से जी लेता
हज़ारों ग़म थे ग़म ए मोतबर न था कोई
किसी की याद थी साग़र था चाँदनी शब थी
कमी ये थी मेरे काँधे पे सर न था कोई
ज़िया से जिसकी हर इक शै पे नूर छाया था
वो इक चिराग़ था शम्श ओ क़मर न था
अज़ीज़ कल भी नवाज़ा गया था मेहफ़िल में
तुम्हारे शहर में क्या बाहुनर न था कोई
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