वसंत पंचमी : शुभ सरस्वती का श्वेत और वासंती दिवस

Webdunia
- रजनीश बाजपेई
 
उपनिषदों में कहा जाता है कि जगत का ज्ञान एक त्रिवेणी है। यहां दो ही दिखाई पड़ते हैं- जानने वाला है और जानी जाने वाली वस्तु। इन दोनों के बीच का जो संबंध है वह है ज्ञान, जो अदृश्य है। इसकी ही प्रतीक हैं वीणा-पुस्तक धारिणी मां सरस्वती। जो शुभ्र हैं, निर्मल हैं, सहज हैं, धवल हैं, शांति और नीरवता की प्रतिमूर्ति हैं। वसंत पंचमी के अवसर पर ज्ञान की इस देवी को प्रणाम! इस दिन को भारत के महर्षियों ने मां सरस्वती को प्रसन्न करने का सबसे अच्छा अवसर घोषित किया है।
जीवन जगत पर शोध के लिए इस देश का कोई सानी नहीं। यहां प्रतीकों की वैज्ञानिकता पर अवश्य संदेह किया जा सकता है। पर जिसने ये प्रतीक दिए थे, उनकी वृहद दृष्टि व ज्ञान के आगे आज भी नत होने को जी चाहता है। यह बात जरूर है कि ये प्रतीक गलत हाथों में पड़े और अंधविश्वासों की समानांतर धारा भी चल पड़ी। लेकिन कई बार ऐसे विश्वास किसी के प्रति गहरे समर्पण के कारण भी पनप जाते हैं।
 
प्रयाग को महर्षियों ने तीर्थराज कहा है। वहां तीन नदियों का संगम है। गंगा, यमुना तो दिखाई देती हैं, पर कहते हैं कि कभी सरस्वती नदी भी थी लेकिन इसमें संदेह है क्योंकि आप ज्ञानी को तो देख सकते हैं, लेकिन क्या उसके ज्ञान को देख सकते हैं? इसलिए हमने सरस्वती को ज्ञान का प्रतीक बताया। वास्तव में जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, उसे हम देख नहीं सकते हैं। पंखे घूमते हैं, पर बिजली को कौन देख पाया है? ऑक्सीजन के बिना पलभर भी जीवन संभव नहीं, लेकिन भला कौन दावा कर सकता है कि मैंने ऑक्सीजन देखी है? यह कुछ स्थूल उदाहरण हैं, पर हम जब स्वयं विचार करते हैं तो पाते हैं कि जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है वह अदृश्य है, अलौकिक है।
 
हमने सरस्वती को यूं ही ज्ञान की देवी नहीं कहा। बड़े-बड़े कारण रहे हैं इन मिथकों पीछे। ऋषियों द्वारा दी गई एक ऋचा में उनका संपूर्ण जीवन अनुभव और ज्ञान छुपा था जिनसे ज्ञान की अनगिनत धाराएं फूटी थीं। यूं ही नहीं कह दिया 'सत्यमेव जयते' और 'संतोषं परमं सुखं' या यूं ही नहीं दे दिए ये संकेत कि गणपति को पहले पूजना है या सरस्वती ज्ञान का प्रतीक हैं।
 
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किसी भी क्रम की शुरुआत गणेश जैसी ही उलटबांसियों से भरी होती है, जब हमें कुछ समझ में नहीं आता कि अंत क्या होगा। सच्चा ज्ञान मनुष्य को सरस्वती की तरह शुभ्र कर देता है। बिलकुल धवल, निर्मल बिलकुल सिनेमा हॉल के पर्दे की तरह। यदि ज्ञानी सरस्वती की तरह निर्मल नहीं हो सकता तो संसार की फिल्म को वह प्रकट नहीं कर पाएगा। संसार का कुछ भाग वह स्वयं में अवशोषित कर लेगा और उसकी शुभ्रता में मिलावट हो जाएगी। वह दर्पण नहीं दीवार हो जाएगा। ऐसा नहीं कि दीवार पर हमारा प्रतिबिंब नहीं बनता है।
 
बनता है पर दीवार उसे परावर्तित नहीं अवशोषित कर लेती है। दर्पण या पर्दे की यही विशेषता है कि उस पर जो प्रोजेक्ट किया जाता है उसे वह वापस कर देता है, सोखता नहीं। किसी भी घटना से ज्ञानी अपने को वैसा ही अलग कर लेता है, जैसे पर्दा फिल्म को या दर्पण प्रतिबिंब को। 
 
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गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है, 'ऐसा स्थिर बुद्धि ज्ञानी पुरुष संसार में रहकर भी संसार में नहीं रहता। वह कमल के पत्ते के समान जल में रहकर भी जल से अलग रहता है। वह संसार में अवश्य रहता है, पर संसार उसमें नहीं रहता।'
 
इस जगत में ज्ञान की जो घटना घटती है वह तीन से निर्मित होती है- ज्ञेय और ज्ञाता, दोनों के बीच की निर्मित होने वाली तीसरी धारा जो दिखाई नहीं पड़ती वह ज्ञान है, सरस्वती है। इसलिए सरस्वती ज्ञान की प्रतिमा है। यह नदी दुनिया में कभी नहीं रही। जहां भी ज्ञान की यह घटना घटी, उन क्षेत्रों को हमने तीर्थ घोषित किया। अदृश्य ही उसका स्वभाव है, पर अदृश्य होकर भी मानव मन के गूढ़ प्रश्नों के उत्तर खोजकर उन्हें दृश्य-श्रव्य बनाती है।
 
जीवन का उद्देश्य इस ज्ञान की देवी को ही खोजना है जिसमें मन और शरीर की दृश्य गंगा-यमुना खो जाएं। सिर्फ ज्ञान की शुभ्र सरस्वती ही शेष रहे और मनुष्य प्रयाग की इस त्रिवेणी से परमात्मा के सागर में खोने की यात्रा पर निकल पड़े। जीसस ने कहा है कि परमात्मा के साम्राज्य में वही प्रवेश पा सकता है, जो बच्चों की तरह निर्दोष हो। ज्ञान विकास का चरम बिंदु है, जहां जीवन के तमाम अनुभवों के बाद मनुष्य के सिर पर श्वेत, धवल, निर्मल केश लहराने लगते हैं।
 
काश! हम प्रकृति के साथ चल पाते और और जब प्रकृति वृद्धि करती है तब चेतना को उस स्तर पर पहुंचा पाते जिसके ऊंचे, शुभ्र हिम शिखरों पर गौरीशंकर विद्यमान हैं। 

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