रजा अलसानिया

लेखन के खुले आकाश में अरब महिलाएँ

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बीती सदियों की रूढ़ियों में कैद अरब समाज की महिलाएँ अब लेखन के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करने लगी हैं और उनके रचना संसार को पाठक हाथों-हाथ ले रहे हैं।

रजा अलसानिया अरब समाज की महिलाओं की सदियों से दबी आवाज के बुलंद होने का प्रतीक बन गई हैं। रूढ़िवादी समाजों की वर्जनाओं का सर्वाधिक खामियाजा महिलाएँ ही भुगतती आई हैं। उनके अस्तित्व को 'मान-मर्यादा' की चहारदीवारी में कैद कर जुबान पर सात ताले लगाने में ही समाज के स्वयंभू रहनुमाओं ने अपनी सत्ता की सलामती देखी है। लेकिन परंपराओं की चट्टानें अभिव्यक्ति के ज्वालामुखी के मुँह पर धर देने से भीतर उफन रहे लावा को ज्यादा देर तक दबाकर नहीं रखा जा सकता।

25 वर्षीय रजा अलसानिया का उपन्यास 'गर्ल्स ऑफ रियाद' अभिव्यक्ति के लावा का फूट निकलना ही है, जिसने साहित्यिक जगत में हलचल मचा रखी है। 'गर्ल्स ऑफ रियाद' में सऊदी अरब की राजधानी रियाद के कुलीन वर्ग की चार युवतियों के जीवन तथा प्रेम संबंधों का खाका खींचा गया है। इन युवतियों को तमाम भौतिक सुख-सुविधाएँ हासिल हैं।

वे बाजार में आए नवीनतम ब्रांडेड उत्पाद खरीदती हैं, हॉलीवुड फिल्में देखती हैं,अपना रूप निखारने के लिए प्लास्टिक सर्जरी कराती हैं लेकिन यह सब होते हुए भी वे मूलभूत मानवाधिकारों से वंचित हैं। कट्टरवादी व्यवस्था का साया कभी उनका पीछा नहीं छोड़ता। इसके बावजूद वे कार चलाने से लेकर लड़कों से मिलने तक तमाम वर्जित फलों को चखने केअवसर ढूँढ ही लेती हैं। उनकी राह में प्रताड़नाएँ और पीड़ा भी आती है, लेकिन जीवन के आनंद में सराबोर होने की शिद्दत ऐसी तमाम प्रताड़नाओं और पीड़ाओं पर भारी पड़ती है।

यूँ रजा इस माने में खुशकिस्मत रहीं कि उनका जन्म एक ऐसे अरब परिवार में हुआ, जिसका नजरिया संकीर्णताओं से मुक्त था। वे चार भाइयों और दो बहनों में सबसे छोटी थीं। यह ऐसे बिरले सऊदी परिवारों में से था, जिसमें लड़के व लड़कियों में भेद नहीं किया जाता था। रजा का जन्म कुवैत में हुआ और उनका परिवार वहीं पर सुख-चैन से जी रहा था कि अचानक 1990 में रजा के पिता चल बसे। उनकी माँ अपने बच्चों को लेकर अपने गृहनगर रियाद आ गईं। यहाँ आना रजा और उनकी बड़ी बहन रशा के लिए किसी सांस्कृतिक सदमे से कम नहीं था।

अचानक उनकी आजादी पर पहरे लग गए। अगले कुछ वर्ष संकीर्णताओं की कैद में ही गुजरे। फिर रजा ने डेंटल सर्जन बनने का इरादा किया और 18 वर्ष की आयु में देश के एकमात्र डेंटल कॉलेज में भर्ती हो गईं। यहाँ उन्हें अपने से भिन्ना सामाजिक वर्गों तथा अलग जीवनशैली वाले लोगों से मिलने का मौका मिला। हालाँकि यहाँ लड़के-लड़कियाँ अलग-अलग कक्षाओं में पढ़ते हैं, लेकिन इंटर्नशिप दोनों साथ-साथ ही करते हैं और इस प्रकार उन्हें आपस में मिलने-जुलने के अवसर मिल जाते हैं।

डेंटल कॉलेज में रजा के लिए अनुभवों का एक नया संसार खुला। यहीं उन्होंने 'गर्ल्स ऑफ रियाद' लिखना शुरू किया। वे अपने आसपास के अनुभवों को यूँ ही मनोरंजन के लिए कलमबद्ध करने लगीं और कुछ दिनों बाद इसे छोड़ दिया। कुछ माह बाद एक दिन उनके लिखे पन्नो उनकी बहन रशा के हाथ लग गए। रशा इन्हें पढ़कर इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने रजा को अपना उपन्यास पूरा करने को कहा। अंततः 2005 में उनका उपन्यास लेबनान से प्रकाशित हुआ और बाजार में आते ही सऊदी अरब में प्रतिबंधित हो गया।

परंपरा के बंधनों को स्वीकार न करने वाली लड़कियों की कहानी कहती और उनके सपनों, उनकी आकांक्षाओं को उघाड़कर रख देने वाली पुस्तक यहाँ के रूढ़िवादी सत्ता प्रतिष्ठान को स्वीकार नहीं हो सकती थी। लेकिन तब तक इस पुस्तक की प्रसिद्धि इतनी फैल चुकी थी कि इसकी फोटोकॉपी की गई प्रतियाँ काले बाजार में 250 पौंड तक में बिक गईं! बाद में इस पर से प्रतिबंध उठा लिया गया। हाल ही में इसका अँगरेजी अनुवाद बाजार में आया है और इसे भी जबर्दस्त प्रतिसाद मिला है।

यूँ रजा कहती हैं कि उनका इरादा वर्जनाओं को तोड़ने या विद्रोही बनने का कतई नहीं था। वे तो केवल यह बताना चाहती थीं कि कैसे लोग परंपराओं से बच निकलने का रास्ता ढूँढ लेते हैं। वैसे आलोचकों ने यह आरोप भी लगाया है कि रजा के उपन्यास की नायिकाएँ खुलकर अपने अधिकारों के लिए लड़ने के बजाय केवल अपने सपनों का राजकुमार पाने की उधेड़बुन में ही लगी रहती हैं। यह भी कि ये नायिकाएँ अरब समाज के उच्च वर्ग की महिलाओं का ही प्रतिनिधित्व करती हैं, न कि वहाँ की आम स्त्रियों का। खैर, इस बात से इंकारनहीं कि एक महिला द्वारा महिला मन के सतरंगे संसार को कागज पर उड़ेल देना ही अरब जगत में एक विलक्षण बात है। इस उपन्यास को अरब देशों तथा शेष विश्व में मिली लोकप्रियता ने सबको चौंका दिया।

रजा के उपन्यास की लोकप्रियता को देखते हुए कई अन्य अरब महिलाएँ भी अपनी भावनाओं को साहित्य के माध्यम से दुनिया के सामने लाने के लिए आगे आने लगी हैं। अकेले सऊदी अरब में ही प्रकाशित होने वाली पुस्तकों की संख्या गत वर्ष बढ़कर दोगुनी हो गई। इनमें सेआधी पुस्तकें महिलाओं द्वारा लिखी गई हैं। कई लेखिकाएँ सऊदी अरब से बाहर अपनी पुस्तकें प्रकाशित कराना बेहतर मानती हैं।

खास बात यह कि इन पुस्तकों में 'वर्जित' विषय प्रमुखता से उठाए गए हैं, जैसा कि 'अल हॉब फिल सऊदिया' (सऊदी में प्रेम) तथा 'फोसूक' (व्यभिचार) जैसेशीर्षकों से ही जाहिर हो जाता है। सिबा अल हर्ज के छद्म नाम से लिखने वाली एक अन्य अरब लेखिका के उपन्यास 'अल अखरून' (पराए) में अपराधबोध जैसे विषय उठाए गए हैं तथा यह इन दिनों काफी चर्चित हो रहा है। इसे प्रकाशित करने वाले साकी बुक्स के हसन रमादान कहते हैं कि वे सऊदी अरब की युवा लेखिकाओं को विशेष तौर पर अवसर देना चाहते हैं।

दरअसल सऊदी समाज चाहे-अनचाहे बाहरी परिवर्तनों से प्रभावित होने लगा है। दूरसंचार क्रांति ने अभिव्यक्ति पर लगे पहरों को काफी हद तक बेअसर कर दिया है। इसके अलावा आज वहाँ की जनसंख्या का 60 प्रतिशत हिस्सा 21 वर्ष से कम उम्र का है। यह युवा आबादी रूढ़ियों को तोड़ने को तत्पर न भी हो तो उन्हें उतनी गंभीरता से लेने को तो कतई तैयार नहीं जितनी गंभीरता से पुरानी पीढ़ी इन्हें लेती रही है।
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