‍महिला दिवस : कब होगा सार्थक?

-स्वप्ना कुमार

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8 मार्च, विश्व महिला दिवस, फिर आ गया एक दिन जो है महिलाओं का, महिलाओं के लिए और सिर्फ महिलाओं के नाम, लेकिन क्या औचित्य है इस दिन का? आखिर क्यों बनाया गया इसे सिर्फ नारियों के लिए? इसलिए न कि इस दिन हम नारियों का सम्मान कर सकें, उनकी महिमा का बखान कर सकें, उन्हें यह एहसास दिला सकें कि कितनी अमूल्य हैं वे जो वंश को बढ़ाती है, एक ममतामयी मां, एक प्यारी बेटी, बहन, सच्ची जीवनसाथी और दो परिवारों के बीच एक सेतु की तरह है।

लेकिन सच तो यह है कि यह दिन सिर्फ हम नारियों के लिए दिल बहलाने का एक खिलौना मात्र है। जिसके सहारे हम आत्मसंतुष्टि कर सकें कि हम भी कुछ हैं। हमारी भी इस समाज में वही अहमियत है जितनी कि एक पुरुष की। हम मान लें की हमारा समाज अब बदल रहा है और यहां औरत और आदमी का एक समान दर्जा है।

अगर ऐसा होता तो आज हम अपनी सुरक्षा के प्रति इतनी डरी-सहमी न रहतीं। निर्भीक होकर अपना जीवन जी सकतीं। महिलाओं के प्रति बढ़ रहे अपराधों ने उनकी सुरक्षा पर एक बड़ा प्रश्न चिह्न लगा दिया है।

कहीं अकेले जाने से पहले हमें दस बार सोचना पड़ता है, हरदम डर बना रहता है कि कब, कहां, कौन-सा भेड़‍िया ताक लगाए बैठा है कि शिकार मिलते ही झुंड सहित उस पर टूट पड़े, और जब शिकारियों के इस झुंड में रक्षक भी भक्षक बनकर शामिल हो जाए तब हम किससे मदद की गुहार लगाएं?

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इस घिनौने कुकृत्य में उन अपराधियों का तो कुछ नहीं जाता, जाती है तो बस पीड़‍िता की इज्जत, और जीवनभर कायम रहती है इस घृणित काम की गहरी काली और तकलीफदेह यादें, जो जीवन भर उसके मन-मस्तिष्क में साये की तरह नाचती रहती है। अगर वह इसे भूलकर जीना भी चाहे तो समाज वाले उसे जीने नहीं देते। क्योंकि ऐसा अपराध चाहे कोई भी करे सहना सिर्फ स्त्री को पड़ता है।

15 दिनों के भीतर इंदौर के पास हुए तीन गैंगरेप और न जाने ऐसे कितने रेप और प्रताड़ना के केस जो लोगों की नजर में नहीं आ पाए। ये सब मुख्यमंत्री जी के चलाए जा रहे बेटी बचाओ आंदोलन के मुंह पर एक करारा तमाचा है। आखिर क्यों बचाएं हम बेटी? उन राक्षसों के लिए जो इन बच्चियों का जीवन नर्क बना देते हैं या फिर दहेज के उन लोभियों के लिए जो लालच की आग में बहुओं को तड़पाते रहते हैं या उसी आग में जला डालते हैं।

एक स्त्री होते हुए ऐसा कहना वाकई दिल पर पत्थर रखने जैसा है, लेकिन आज के हालातों को देखकर तो यही कहा जा सकता है। मानती हूं कि सारे पुरुष और समाज के सभी लोग ऐसी सोच वाले नहीं होते और वे नारियों को वह सम्मान देते हैं जिनकी वे हकदार हैं, पर जिस तरह एक सड़ी हुई मछली सारे तालाब को गंदा कर डालती है उसी तरह ऐसा ‍कुकृत्य करने वाले पुरुष सारे सभ्य वर्ग के लिए एक कलंक हैं। जिसे मिटाना इन्हीं सभ्य लोगों का कर्तव्य है।

एक तरफ तो देश आधुनिकता में आगे जाता जा रहा है, देश के सबसे ऊंचे पद पर एक महिला ही विराजमान है। आज कोई ऐसा क्षेत्र नहीं बचा जहां महिलाओं ने अपनी छाप न छोड़ी हो लेकिन फिर भी स्त्रियों के प्रति समाज की सोच क्यों संकीर्ण होती जा रही है?

सिर्फ नाम के लिए महिला दिवस मना लेना ही काफी नहीं है। सही मायने में महिला दिवस तब सार्थक होगा जब असलियत में महिलाओं को वह सम्मान मिलेगा जिसकी वे हकदार हैं। क्या आप देंगे वह सम्मान नारियों को और बनाएंगे महिला दिवस को सार्थक?

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