प्यारी आयशा, तुम अकेली थी तो दुनिया को महकाती...

सेहबा जाफ़री
खुद पर भरोसा नहीं था तो खुदा पर कर लेती 
 
प्यारी आयशा
 
 कैसे कहूं कि खुश रहो!
 इससे पहले कि खतो-किताबत करती तुम इतनी दूर चली गई कि जहां तक कोई खत नहीं पहुंचता। निकाह हुआ तब से कभी कभी उदास देखा था तुम्हें। पगफेरे से लगा छ्टी की रस्मों तक। जुमे की दावतों से लगा ईद बकरी ईद तक। 
 
अम्मा,मुमानी जान, खाला, चची अम्मा, दादी, नानी, गरज़ यह कि सबको एहसास था इसका, पर सबने मुहब्बत, शराफत और शरारात से एक ही सलाह दी थी, खुश क़िस्मत् हो जो निकाह हुआ है, कितनों को शौहर नसीब नहीं होते!! 
 
अब शौहर की ख़ुशी ही तुम्हारी ख़ुशी है और इसके क़दमों में तुम्हारी जन्नत है!! बड़ी बहिनों ने कहा था, "डोली में  जाना, जनाज़ा में आना"....वगैरह वगैरह....
 
पड़ोस मोहल्ले की मुंहबोली भाभियों ने सर पर हाथ फिरा कहा होगा, "शुकर मनाओ अकेली नहीं अब तुम! बड़ी पहाड़ सी ज़िन्दगी जीतीं वरना!" और। तुम हर बार ही जैसे कुछ कहते कहते ठिठक गईं।
 
सच कहूं आयशा
तुम मरी नहीं हो, मारी गई हो। उस समाजी सियासत के तहत जिसने तारीख के दामन मे एक बहुत बड़ा फर्क़् पैदा कर दिया था। मर्द और औरत का फर्क़्। फर्क़् और इख्तिलाफात दो अलग चीजें हैं। रब ने तुम्हें अलग अलग आदतों और जिस्मानी ढांचों का मालिक बनाया है तो यह मुखतलिफ् होना है पर फर्क़ तो उन गुलाम दादी नानियों ने पैदा किए हैं जिन्हें दादी और नानी होने का हक़ था ही नहीं।
 
 अपने बुढ़ापे के समेत उन सब ने तुम्हारे जनाजे में शिरकत की थी। एक कोने मे वो बोसीदा किताबें भी बैठी थीं। जिन्होंने औरत को मर्द पर क़ुर्बान् हो जाना सिखाया था, कभी मर कर तो कभी ज़िंदा रह कर।
 
 एक किताब सिसक रही थी जिसमें एक औरत ने मर्द से वफादारी के सबूत को आग मे से गुज़र कर दिया था, तो एक किताब सिसक रही थी जिसमें एक मादर् ए पैगम्बर पर कुंआरी मां होने के नाते अंगुली उठाई गई थी। 
 
आयशा! ये सभी किताबें खूबसूरत थीं, बस दादी और नानियों ने इनकी वजाहत करने मे नाइंसाफी की थी। कभी किसी मर्द की मुहब्बत ने इनसे यह वजाहत करवा ली थी तो कभी वक़्त और सहूलत के हिसाब से उन्होंने खुद इसे गढ़ लिया था। 
 
तुम्हारे मातम मे एक कोने मे वह मर्द भी बैठे थे जो दिमागी गुलामी के बेइन्तिहा शिकार थे। और सोच रखते थे कि बिना मर्द की औरत का मर जाना ज्यादा सही है। 
 
आयशा प्यारी! 
किताबों को गलत सिरे से समझाया गया था। आग से गुज़र कर इम्तहान देने वाली औरत तुम्हारी तरह मरी नहीं थी, और बिन ब्याही मां अपनी कोख के नूर से पूरी दुनिया को मुनव्वर कर गई थी। 
 
आयशा 
क़ुदरत् ने औरत को बड़ी मजबूती दी होती है। दुनिया में आने की जद्दोज़हद में अक्सर मर्द दम तोड़ जाते हैं, और बेटियां न केवल आ जाती हैं बल्कि मां बन कर ऐसे मर्द जन कर भी रख देती हैं। जब वह मां, बहन और बेटी का रूप लेती हैं तो घर आं गन महकते हैं और जब वह अकेली होती हैं तो पूरी कायनात महका देती हैं।
 
रब ने आरिफ को नौ माह पेट में रख, एक बच्चे की तखलीक की सलाहियत नहीं दी थी; एक रात भर खुद से बच्चे की परवरिश की ताक़त् भी नहीं। न ही अपने बच्चे के गुज़र जाने के बाद उसके हिस्से की मोहब्बत सब में बिखरा कर जी लेने की तौफीक़्। पर तुम्हें तो सब दिया था न आयशा! तुम्हें खुद पर भरोसा नहीं था तो खुदा पर कर लेती !! कम से कम  उस किताब के हवाले का तो लिहाज किया होता जो अखिरी वक़्त तुम्हारे अब्बू ने दिया था। वह किताब भी उस दिन  फूट फूट कर रोई थी। 
 
तुमने कभी सोचा कि क़ुदरत ने औरत को कितना मुकम्मल गढ़ा है। मर्द बार बार औरत बदलता है, ताक़त् की फितरत को शिद्दत से महसूस करने के लिए। औरत एक। मर्द पर गुजारा कर लेती है, मुहब्बत करने के लिए।
 
मर्द मूर्तियां तोड़ता है, रियासतें जीतता है, धुनें बनाता है, मुजस्सिम निगार बन जाता है, मुसव्विर् हो जाता है और जाने क्या क्या रच पच डालता है सिर्फ अपने वुजूद और नाम की खातिर। 
 
यह नाम यह मक़ाम् रब ने औरत को तोहफे में दिया होता है। मां बन कर वह नाम और मकाम दोनों हासिल कर लेती है। बच्चे हर बार कोख से नहीं रचे जाते प्यारी आयशा! कभी मोहब्बत, कभी शफ्क़त्, कभी तालीम तो कभी इल्म दे कर भी रचे जाते हैं प्यारी!! तुम अकेली थी तो दुनिया को महकाती और मां नहीं थी तो मायके की दीवार के उस तरफ के बच्चों से मोहब्बत कर लेतीं। इस तरह मर जाना हल नहीं था। 
 
बेशक! बोसीदा दादी नानियों की अंधी नस्लें तानों से तुम्हें छलनी करने की कोशिश भी करतीं पर तुमने हिम्मत रखी होती तो एक दिन यह मलामते बहुत नीची रह जाती और तुम्हारी परवाज बहुत ऊंची।
 
मुझे तुम पर गुस्सा भी आ रहा है और शक भी हो रहा है कि क्या तुम सचमुच औरत थी...

औरत मोहब्बत होती हैं और मर्द हिसाब किताब। मोहब्बत बस देना जानती है और हिसाब में देने के बाद लेना भी आता है। अगर आरिफ मोहब्बत के लायक नहीं था तो तुम बेटी बन कर यह मोहब्बत अपने वालिद पर निसार् आतीं। किसी क़ानून् में हिम्मत नहीं थी कि कोई तुम्हें आरिफ के अंक गणित की तिजौरी में बंद करता। हां एक क़ानून था जो जबर्दस्ती तुमने खुद पर लाद लिया था, वह था,"शौहर गुज़ीदा औरत के लक़ब् को गलत मानना". रोज़ रोज़ शौहर से पिटती और खुश रहने का दिखावा करती औरतों के बीच तुम हिसाब नहीं लगा पा रहीं थी कि सच्चाई से किया किया जाए। 
 
इन हिसाब किताबी औरतों का हिमाकत भरा क़ानून् तुम्हें ले डूबा। ये वहीं औरते हैं जो तुम्हें औरत की परिभाषा सिखाती हैं, "औरत वही है जो बेहतरीन बच्चा पैदा करें या शौहर को खुश करने के लिए जान लड़ा दे। तुम बेवकूफ ही नहीं भोली भी थी। तुमने हिसाब लगाया कि बच्चा नहीं रहा, शौहर खुश नहीं है तो तुम औरत नहीं हो फालतू सामान हो जिसकी अब कोई जरूरत नहीं और ऐसा कचरा साबरमती में ही पनाह पाए तो ठीक हो।
 
पगली! इन किताबों के साथ SHAW की CANDIDA भी पढ़ ली होती तो तुम्हें समझ आता कि मोहब्बत का पहला हक़ खुद पर है। और अगर तुमने खुद का हक़ अदा किया होता तो इंसान बदलती, दुनिया नहीं।  
 
आरिफ तुम्हें कब तक चाहता! जब तक अब्बू के पास पैसे रहते या उसकी जिस्मानी हवस को तुम्हारी जवानी की हद्दत् महसूस होती!! उसके बाद!! 
 
खुदारा! बंद करो हिसाब-किताब! अगर इश्क होता तो इससे उठी हर लहर तुम्हें ज़िन्दगी की तरफ धकेलती मौत की तरफ नहीं। 
 
तम्हारी खुदकशी पर हुआ भी क्या! नदी में चन्द लहरें उठी, थरथराई, और खामोश हो गई। जो तुम जी जाती तो तुम्हारा होना तुम्हारे मां बाप की कायनात मे एक नया रंग भर देता! 
 
आयशा ! अल्लाह तुम्हें दुबारा दुनिया में न भेज आज़ाद कर दे कि तुम्हारा औरत होना औरत बनने जा रही लड़की को हिरासां कर गया।  लहद की गोद में जो ज़िन्दगी की याद आए तो खुदारा एक बार मां बाबा के पथराए चेहरे याद कर लेना कि उन्होंने तुमसे आरिफ से ज्यादा मोहब्बत की थी।
 
 
अलविदा 
मौत मुबारक 
तुम्हारी अप्पी

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