वही नार ी फिर खड़ी है एक और दिवस के मुहाने पर। एक और दिन की दहलीज पर। नारी, महिला, औरत, स्त्री, वामा, खवातीन जैसे खुद को संबोधित किए जाने वाले आकर्षक लफ्जों को अपनी हथेलियों में पकड़े वह आज भी इनके अर्थ तलाश रही है।
नारी अस्तित्व के असंख्य प्रश्न, महिला आंदोलनों और जागरूकता के बाद भी उतने ही गंभीर और चिंताजनक हैं जितने सदियों पहले थे। उन प्रश्नों के चेहरे बदल गए हैं, परिधान बदल गए हैं लेकिन प्रश्नों का मूल स्वरूप आज भी यथावत है। आखिर कहां से आएगा नारी से संबंधित समस्याओं का समुचित समाधान।
सकारात्मक सोचने की सारी हदें पार कर लें तब भी समाज में व्याप्त नकारात्मकताएं कहीं ना कहीं से आकर घेर ही लेती है। उपलब्धियों पर मुस्कुराने की तमाम कोशिशों पर भारी पड़ती है एक मासूम की मार्मिक चीख।
वह चीख, जो उसकी देह के छले जाने पर आसमान को चीरने की ताकत रखती है लेकिन उन तक नहीं पहुंच पाती जो उसके सम्मान और सुरक्षा के लिए वास्तव में जिम्मेदार है। वह चीख, जो कदम-कदम पर होती सामाजिक बेशर्मी पर उसके ही मन में घुट कर रह जाती है।
दिन-प्रति-दिन चीखते प्रश्नों की भीड़ बढ़ती जा रही है और उत्तरों के 'गंतव्य' सदियों से लापता है।
एक चिकित्सक, चाहे वह महिला हो या पुरुष जानते हैं कि प्रसव पीड़ा कितनी सघन होती है। उसे देखने-महसूसने के बाद शायद ही कभी वे अपनी मां का मन दुखा सके होंगे। कहने को यह बड़ा मामूली उदाहरण हो सकता है मगर आत्मिक स्तर पर स्त्री-सम्मान को अनुभूत करने का इससे बेहतर अवसर नहीं हो सकता कि जन्मदायिनी एक जीव को पृथ्वी पर लाने से पहले दर्द की किस इंतहा से गुजरती है।
हर पुरुष इतना निर्दयी और नासमझ नहीं होता है कि दर्द और प्रताड़ना के फर्क को पहचान ना सके।
जरूरत इस बात की अधिक है कि बलात्कार या इस तरह के दूसरे अनाचारों के पीछे के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक कारणों को तलाशा जाए और उनका उपचार किया जाए।
पुरुष मन भी भीगता है, पुरुष भी पसीजता है, पुरुष भी पिघलता है बस उसके मन के किसी कोने में स्त्री-सम्मान का एक तार झनझनाने की देर है, औरत के आदर के प्रति पुरुष बस इतना ही तो दूर है.. महिला दिवस पर कोशिश की जाए कि अवांछनीय शारीरिक दूरी बढ़े इसलिए यह 'दूरी' कम हो।