महिला दिवस पर कविता: पीड़ा सहकर भी मुस्कुराती

सपना सीपी साहू 'स्वप्निल'
सृजनकरणी सबसे बढ़कर,
नारियाँ जग बनाती बेहतर।

मुखड़ा सुंदर, मन भी सुंदर,
द्वैष न धारे वे उर के अंदर।

सह लेती सब पीड़ा-अभाव,
नहीं पालती बदले का भाव।

बार-बार नहीं जिद्द पर अड़ती,
परिस्थिति अनुरूप ही चलती।

न छेड़ती, न ही पीछे पड़ती,
वे अपमानित करने से बचती।

चौराहों पर न बस्ती बसाती,
आते-जातो को नहीं सताती।

शक्ति से प्रताड़ित न करती,
अभद्र टिप्पणियाँ न कहती।

ठुकराने से न कुण्ठा लाती,
न ही वे कोई चेहरे जलाती।

न कोई संग हथियार रखती,
कोसों दूर विध्वंस से रहती।

निर्माण की परिभाषा गढ़ती,
वास्तुकारिणी, रचती रहती।

अपनी बोली न लगवाती,
किसी से न दहेज मांगती।

रोब से न कुछ हथियाती,
पराये घर को वे अपनाती।

देरी पे प्रश्नचिन्ह नहीं लगाती,
बस, चौखट पर राह ताकती।

जीवन पथ में संगिनी होती,
वे सारे रिश्ते-नाते निभाती।

पीड़ा सहकर भी मुस्कुराती,
प्रेमरूपी वे खुशियाँ लुटाती।

वे अपनी दुनिया में हर्षाती,
स्वयंसिद्धाएं, भला चाहती।

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