प्रदेश में योजना अंतर्गत 6.56 लाख बेटियों को लाड़ली लक्ष्मी बनाया जा चुका है। लाड़ली लक्ष्मी योजना पर साल में करीब 430 करोड़ रूपए व्यय किए गए। लाड़ली लक्ष्मी योजना के बाद मध्यप्रदेश सरकार ने बड़े-बड़े होर्डिंग्स से लेकर रिक्शा जैसे छोटे वाहनों तक में 'बेटी बचाओ अभियान' का बिगुल बजाया। लेकिन नग्न हकीकत के झटकों के समक्ष प्रदेश सरकार बेबस नजर आई।
विडंबना देखिए कि मुख्यमंत्री जी सारे प्रदेश की कन्याओं से 'मामा' कहलाया जाना पसंद करते हैं। कन्यादान की रस्मों में बढ़-चढ़ कर भाग लेते हैं वही मामा अब अपने ही प्रदेश में अपनी भांजियों की अस्मत लूटे जाने पर कोई ठोस कदम नहीं उठा पा रहे हैं।
शिवराज मामा, जो हर जन-मंचीय कार्यक्रमों में किसी छोटी कन्या को गोद में लेना नहीं भूलते, उनके बीच जाकर ठहाका लगाना नहीं भूलते और उनके लिए आरंभ लुभावनी लोकरंजक लाड़ली लक्ष्मी योजना के गुणगान करना कहीं भूलते वही मामा अब अपने ही इलाके में अपनी 'भांजियों' के साथ हुए अन्याय पर मुस्तैदी से सामने नहीं आ पा रहे हैं।
क्या सच में प्रदेश में महिलाओं की सुरक्षा का घेरा टूटा है या फिर ऐसा कोई घेरा कभी था ही नहीं?
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की जनमानस में बैठी उज्ज्वल-स्वच्छ छवि हमें बाध्य करती रही है कि महिलाएं उनसे अपनी सुरक्षा और सम्मान को बचाए रखने की आस लगाए। शिवराज महज 'नेता' होते तो शायद हम ऐसा कोई जोखिम ना उठाते लेकिन वे 'मामा' हैं प्रदेश की बच्चियों के और 'भाई' हैं प्रदेश की महिलाओं के इसलिए यह सहज अपेक्षा थी कि वे ऐसी कोई वारदात नहीं होने देंगे और अगर हुई तो न्याय के लिए तत्पर दिखाई देंगे।
लेकिन हुआ क्या? ना तो मामा के राज में भांजियां सुरक्षित रहीं ना ही न्याय के लिए मामा बेकल दिखाई पड़े? भाई कहे जाने वाले 'प्रदेश प्रमुख' से प्रदेश की बहनें मात्र 'सुरक्षा' का नैसर्गिक अधिकार मांग रही है और मामा उपलब्ध ही नहीं है। क्या मुख्यमंत्री के लिए 'रक्षा का सूत्र' बस बांध कर खोलने के लिए था या उस नाजुक धागे से नारी अस्मिता की कोई सौंगध भी लिपटी थी? महिला दिवस के अवसर पर प्रदेश की बहनें यही पूछ रही है।