जो समाज अपनी बेटियों की सुरक्षा नहीं कर सकता, उसे पैदा होते ही उन्हें मार देना चाहिए। किसी प्रमुख महिला द्वारा कहे गए इस कथन की हम भर्त्सना कर सकते हैं। इसे घोर निराशावादी बता सकते हैं, निंदनीय कह सकते हैं। लेकिन, क्या बयान की निंदा भर कर देने से हम बेटियों को उनका उचित स्थान या सम्मान दिला सकते हैं?
आज की तारीख में देखें, चारों ओर महिलाओं के साथ हो रही ज्यादतियां दिखाई देती हैं। कोई समाचार-पत्र या समाचार बुलेटिन ऐसा नहीं है, जो ऐसी खबरों से भरा न हो।
स्त्रियों की ये चीत्कार, हमारे तथाकथित सभ्य समाज के मुंह पर तमाचा है। अगर ये कहना गलत है तो हमें बताना होगा कि आखिर समाज में रह रही स्त्रियों के सम्मान की रक्षा का कर्तव्य किसका है और यदि वे समाज में ही सुरक्षित नहीं हैं तो आखिर इसकी जिम्मेदारी किसकी है?
समाज में बढ़ रही ये पाशविकता, महिलाओं के साथ हो रही जोर-जबरदस्ती, कहीं भी, कभी भी उनके साथ शारीरिक अनाचार की संभावना, आखिर ऐसे माहौल के लिए कौन जिम्मेदार है?
आज जबकि स्त्री जीवन के हर स्तर पर अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए संघर्षरत है, तब समाज भले ही कुछ न करे, भले ही उसे सहारा दे या न दे, भले ही उसे आगे बढ़ने का रास्ता न दिखाए, भले उसके लिए आशाओं या उम्मीदों का कोई दीप न जलाए, लेकिन कम से कम उसे सम्मान से जीने तो दे, उसका सम्मान तो करे।
क्या इतनी आशा भी कोई महिला उस समाज से नहीं कर सकती, जिसमें वह रहती है, जिसका हिस्सा वह खुद है?
ये विडंबना नहीं तो और क्या है कि आज गर्भ में ही लड़कियों का जीवन समाप्त कर दिया जाना बेहद आम घटना बन चुकी है। यदि वे जन्म ले भी लेती हैं तो बचपन से ही अपने ही परिवार में लैंगिक भेदभाव की शिकार होती हैं।
भोजन, कपड़े, शिक्षा यहां तक कि माता-पिता के प्यार पर उनका नैसर्गिक अधिकार भी उन्हें या तो मिलता नहीं या मिलता भी है तो दोयम दर्जे का। ऐसा समाज अपने आप पर उठती उंगली को देखकर बिफरता तो है, लेकिन अपने कृत्यों पर शर्मिन्दा नहीं होता।
बचपन से लेकर वृद्घावस्था तक जीवन की हर अवस्था में स्त्री परायों के साथ ही, अपनों के हाथ भी छली जाती है। उपयोग और उपभोग के साथ ही, उसके लिए जीवन के मानदंडों का निर्धारण भी अन्य लोगों द्वारा किया जाता है, यहां तक कि उसके मान-सम्मान का बना रहना भी लोगों के रहमो-करम पर निर्भर रहता है।
परिवार की इच्छाओं के सामने उसकी इच्छाओं का न तो महत्व है, न स्थान, इसलिए ऑनरकीलिंग के लिए उसका गला रेत देना बहुत सामान्य-सी बात है। स्त्रियों की अस्मिता से खिलवाड़ सिर्फ गुंडे-बदमाशों का ही काम नहीं रह गया है।
कभी नौकरी दिलवाने के नाम पर, तो कभी परीक्षाओं में उत्तीर्ण करने या अच्छे नंबर दिलवाने के लिए, कभी फिल्म या किसी अन्य काम के लिए लड़कियों या महिलाओं को झांसा देकर उनका दैहिक शोषण तथाकथित सफेदपोशों के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है। 'कॉस्टिंग काउच' ग्लैमर की दुनिया का जाना-पहचाना शब्द है और हर प्रतिभावान संघर्षरत कलाकार को इससे जूझना ही पड़ता है।
विडंबना तो ये है कि तथाकथित राजनेता, बल्कि चुने हुए जनप्रतिनिधि तक ऐसे काले कारनामों में लिप्त पाए जा रहे हैं। किसी के साथ यदि कोई ज्यादती होती है तो हम अपने जनप्रतिनिधियों से उम्मीद करते हैं कि वे इसके खिलाफ आवाज उठाकर पीड़ित को न्याय दिलवाएं लेकिन, जब जनसेवक ही भक्षक बन जाए तो क्या होगा, ये समझा जा सकता है?
अब ये तो पता नहीं कि आज से पहले जनप्रतिनिधियों के ऐसे कारनामों की संख्या कम होती थी या वे प्रकाश में आने से पहले ही दबा दिए जाते थे या पीड़ितों द्वारा भयवश चुप्पी साध ली जाती थी, लेकिन ये तो तय है कि जिन जन-प्रतिनिधियों से हम गरिमामय आचरण की उम्मीद करते हैं, उनमें से कुछ तो सामान्य सम्मानजनक आचरण से भी कोसों दूर हैं। जरा सोचिए कि संसद या विधानसभाओं में बैठे ऐसे लोग महिलाओं के हित के लिए क्या करेंगे, जो स्वयं ही घिनौनी हरकतों में लिप्त हैं?
इतिहास गवाह है कि भरी राजसभा में द्रौपदी के अपमान पर भीष्म पितामह और धृतराष्ट्र सहित संपूर्ण सभा के मौन का परिणाम क्या हुआ? आज स्त्रियों के साथ हो रहे अनाचारों पर मौन समाज को क्या कीमत चुकानी होगी ये तो भविष्य ही बताएगा?
लेकिन, अपने सम्मान की रक्षा के लिए यदि नारी ने दुर्गा या काली का रूप धारण कर लिया तो आज के दौर में भले ही स्त्रियों की अस्मिता की रक्षा के लिए दूसरा महाभारत न हो, लेकिन संभवतः समाज में व्याप्त खामोशी को लहूलुहान या रक्तरंजित होने से रोका जा पाना असंभव हो जाएगा और तब शायद परिस्थितियां और भी प्रतिकूल हो जाएं।