योग : जंगली बनो

Webdunia
गुरुवार, 31 मई 2012 (16:50 IST)
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आदमी भूल गया है प्रकृति के साथ रहना इसीलिए बीमारियों की गिरफ्तर में आ जाता है जबकि शरीर की प्रकृति नहीं है बीमार होना। सोचे जो जंगली पशु या पक्षी हैं वे कौन-से अस्पताल में जाते हैं। जंगल में रहने वाले आदिवासियों का आपने कभी अस्पताल में देखा? जीवन को खोने से तो अच्छा है कि ठेठ गंवार, देहती या आदिवासी बनकर स्वस्थ जीवन का मजा लिया जाए। इससे रोग और शोक भी दूर भागने लगेंगे।

तीर्थंकर, तपस्वी या बुद्धपुरुषों के जीवन को तो आप जानते ही हैं। वे या तो पहाड़ पर अपना ढेरा जमाते थे या जंगल में जंगली जीवनशैली बिताते थे। वहां रहकर वह पूरी तरह से निरोगी बने रहते थे। आज भी यदि जंगली आदिवासियों का अध्ययन करें तो पाएंगे कि वे शहरी मानव से कहीं ज्यादा हष्ट-पुष्ट है, जबकि वे न तो जिम जाते हैं और न ही योग करते हैं, फिर भी वे जंगली बने रहकर सेहतमंद हैं।

जब हम शहर में शहरी जीवनशैली ‍जीने लगते हैं तो वहां की धूल, धुंआ और धूप हमारे स्नायुतंत्र, रक्त परिवहन तंत्र, श्वास-संस्थान तथा पाचनतंत्र को कमजोर कर देती है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से ही हमारा बीमार होना तय हो जाता है। योग आपके उक्त सभी संस्थानों को फिर से प्रकृति प्रदत्त बनाने के लिए कुछ विधियां बताता है।

पंच कोष : हम पांच कोष का एक जोड़ हैं- अन्नमय कोष जिसे हमारा शरीर कहते हैं। प्राणमय कोष जिसे हमारे शरीर में स्थिति वायु कहते हैं जो हमारी श्वांस प्रक्रिया है। मनोमय कोष जो हमारा मन है। तीनों कोष यदि स्वस्थ, पुष्ट और संतुष्ट हैं तभी हमारा विज्ञानमय कोष और आनंदमय कोष स्वस्थ रह सकता है। विज्ञानमय अर्थात बुद्धि और चित्त और आनंदमय अर्थात जहां हम स्थित हैं।

विशेष : शरीर के लिए आसन है। प्राणों के लिए प्राणायाम है और मन के लिए ध्यान। शरीर के लिए यौगिक आहार, आसान और विहार को अपनाएं। वायु की शुद्धता शरीर, प्राश और मन के लिए अत्यंत आवश्यक है। इसकी शुद्धता के लिए प्राणायम का सहारा लें। प्राणायम से दूषित वायु का निष्कासन और पवित्र वायु का संचार होगा। अंतत: मन को बेचैनी, चिंता और उत्तेजना से बचाने के लिए ध्यान जरूर करें।

अब जंगली बनो : जंगली बने रहने का अर्थ है प्रकृति के नजदीक रहना और जंगलीपन न छोड़ना। जब आप बच्चे थे तो निश्‍चि ही जंगली थे। सभ्यता और नैतिकता ने आपको सभी से दूर कर दिया।

बच्चे थे तो जोर से हंसते, जोर से खांसते और जोर से छींकते थे, लेकिन अब आप सभ्य बन गए हैं। यह हंसना, खांसने और छींकना प्राणायाम का ही एक हिस्सा है। इससे जहां दूषित वायु बाहर निकल जाती है वहीं रक्त संचारण फिर से सही गति पकड़ लेता है और हां नेचुरल कॉल्स को आप कभी नहीं रोकें।

अब आसन की बात करते हैं- बच्चे थे तो गुलाटी लगाते, दौड़ते-कूदते, नाचते-झूमते, मुंह चिढ़ाते और वह सारी हरकते करते थे जो एक बंदर एक बिल्ली और एक कुत्ता कर सकता है। ऐसा करने से आपकी मांस-पेशियों में सुचारु रूप से रक्तसंचार होता रहता था, लेकिन अब?

क्या आप जानते हैं कि आसन या प्राणायाम की सभी विधियां पशु और पक्षियों के रहन-सहन को देखकर ही बनाई गई हैं। वह इसलिए कि आपका जंगलीपन बरकरार रहे। सोचे मत्स्यासन अर्थात मछली जैसी आकृति बनाने की हमें क्या जरूरत है।

सोचे जब कुत्ते को गर्मी लगती है तो वह अपनी जबान बाहर निकालकर कैसे भ्रस्तिका और शीतली कर लेता है। बिल्ली जब सोकर उठती है तो अपने पैरों को नजदीक लाकर उसकी नसों को तानती है जिससे उसकी पीठ का भाग ऊंचा उठ जाता है। आप भी ऐसा करते थे। इसे मार्जाय आसन कहते हैं जिससे स्नायुतंत्र पुन: सक्रिय होकर स्फूर्तिदायक बन जाते हैं।

अब हमनें आपको जंगली बनने की कुंजी दे दी है। आसन, प्राणायाम और ध्यान न भी करें तो कम से कम अपना जंगलीपन बरकरार रखें। आदमी हो तो आदमी की तरह रहो अंग्रेजों की तरह नहीं।

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