भारत - कल,आज और कल–उपलब्धियां,चुनौतियां और समाधान...

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* तेजेन्द्र शर्मा एम.बी.ई.
 
वर्तमान लोकतंत्रीय भारत केवल 75 वर्ष पुराना है...
 
हम जानते हैं कि भारत की संस्कृति हज़ारों वर्ष पुरानी है। हमारा इतिहास बताता है कि हमारे यहां हमेशा राजे-रजवाड़े सत्ता चलाते रहे। वे कभी भारतीय थे तो कभी विदेशी। आठ सौ साल हम पर इस्लाम ने शासन किया तो दो सौ साल अंग्रेज़ों ने। 
 
पूरे विश्व में जितना धर्म परिवर्तन हिन्दुओं का हुआ उतना शायद किसी भी और धर्म के अनुयायियों का नहीं हुआ। इंडोनेशिया, पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान  और भारत के तमाम मुसलमान हिन्दुओं से ही धर्मांतरित हुए थे। 
 
मैं पहले बात करूंगा उपलब्धियों की... ऐसा पहली बार हुआ है कि भारत वर्ष में साधारण नागरिक भी अब भारत के भाग्यविधाता बन सकते हैं। भारत के विभाजन के बाद ही पहली बार देश में चुनाव हुए और मतदाताओं द्वारा सरकार चुनी गयी। देश ने देखा कि लाल बहादुर शास्त्री, मोरारजी देसाई,  नरसिम्हा रॉव, गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और नरेन्द्र मोदी जैसे लोग भी भारत के प्रधानमंत्री बन सकते हैं।
 
भारत में आई.आई.टी. और आई.आई.एम. की स्थापना एक बहुत बड़ी उपलब्धि रही। इस कारण भारत में उस समय इंजीनीयर तैयार किये गये जब भारत को इन्फ़्रा-स्ट्रक्चर की शुरूआत करनी थी। शायद यही कारण रहा कि हमारे इंजीनियर पूरे विश्व में अपनी उपस्थिति से भारत का मान बढ़ाने लगे।
 
इसी तरह डॉक्टरी, वकालत और बाद में आई.टी. की पढ़ाई हमारे देश में इतनी बेहतरीन रही कि अमरीका, कनाडा, ब्रिटेन और युरोप में भारतीय मूल के लोग ही मल्टीनेशनल कंपनियों के मुखिया बनने में सफल रहे। अमरीका की सिलिकॉन वैली और ब्रिटेन की एन.एच.एस. यानि नेशनल हेल्थ सर्विस भारतीयों के कंधों पर ही चल रही है।
 
भारत ने 1984 तक अपने यहां कारों एवं मोटरसाइकिलों के आयात पर एक तरह से रोक ही लगा रखी थी। एम्बैसेडर और प्रीमियर पद्मिनी नाम की दो कारें भारत में ही बनाई जाती थीं। वही साधारण नागरिक भी इस्तेमाल करता था और वही राजनेता भी। राजीव गान्धी के प्रधान मंत्री बनने के बाद पहली सुज़ुकी (जापान) की कार भारत में मारुति के नाम से आयात होनी शुरु हुई मगर बहुत जल्दी ही उसका निर्माण भी भारत में ही शुरू हो गया। आज विश्व के तमाम कार निर्माता भारत में अपनी फ़ैक्टरियां लगा कर अपनी कारों की प्रोडक्शन भारत में ही कर रहे हैं। 
 
पिछले पिचहतर वर्षों में भारत ने अंतरिक्ष टेक्नॉलॉजी में भी ख़ूब तरक्की की है। कहां एक स्थिति थी कि हमारे लिये रूस सैटेलाइट अंतरिक्ष में भेजा करता था। आज स्थिति यह है कि भारत अन्य देशों के सैटेलाइट अंतरिक्ष में भेज रहा है। भारत के अंतरिक्ष यान चांद पर लैण्ड कर चुके हैं। 
 
भारत में सड़कों का जाल बिछने लगा। तमाम शहरों और राज्यों के बीच हाइवे का निर्माण होने लगा। सड़कें विदेशी सड़कों का मुकाबला करने लगीं। भारत एक ऐसा देश बन गया जहां सुई से लेकर जहाज़ तक वस्तुओं का निर्माण होने लगा था।
 
1948 में पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर के कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा हथिया लिया जिसे पाकिस्तान आज़ाद कश्मीर कहता है और हम ‘पाक-ऑक्युपाइड कश्मीर’। कुछ राजनीतिक ग़लतियां इस कद्र होती चली गयीं कि यह मसला सुलझने के बजाए उलझता ही गया।  
 
भारत पर अन्य विदेशी आक्रमण भी हुए। चीन के 1962 के युद्ध में भारत ने ख़ासा बड़ा क्षेत्र खो दिया। आजतक चीन के साथ यह समस्य़ा सुलझ नहीं पाई है। 1965 और 1971 में पाकिस्तान के साथ दो बड़े युद्ध हुए। पहले युद्ध के परिणाम स्वरूप हमारे प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद (रूस) में मृत्यु हो गयी। तो दूसरे के कारण पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गये और बांग्लादेश का जन्म हुआ। विश्व में सैनिकों का सबसे बड़ा आत्मसमर्पण हुआ जब पाकिस्तान के 93,000 सैनिकों ने भारतीय सेना के सामने हथियार डाल दिये। 
 
बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक प्रमुख वित्तीय कदम था। इस कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की प्रशंसा भी बहुत हुई मगर साथ ही साथ उनकी आलोचना भी ख़ासी हुई। 
 
जब स्कूल में पढ़ा करते थे तो अर्थशास्त्र की किताब में एक वाक्य पढ़ा करते थे - “India is a rich country, inhabited by the poor!” यानी कि भारत एक अमीर देश है मगर इसके निवासी ग़रीब हैं। जैसे-जैसे समझ आती जा रही थी इस वाक्य में छिपे दर्द और व्यंग्य को समझने लगा था। 
 
बढ़ती आबादी भारत के लिये सबसे बड़ी चुनौती के तौर पर सामने आई है। बढ़ती आबादी भारत की प्रगति में सबसे बड़ा रोड़ा बन कर उभरी है। 1947 में भारत की जनसंख्या लगभग 37.6 करोड़ थी जो वर्तमान में 139.3 करोड़ के करीब मानी जा रही है। कुछ ही वर्षों में हम चीन को पछाड़ कर विश्व के सबसे बड़ी आबादी वाला देश बनने जा रहे हैं। 
 
यही कारण है कि देश में ग़रीबी के विरुद्ध हम लड़ाई हारते जा रहे हैं। जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती है वैसे-वैसे ग़रीबी भी सुरसा की तरह मुंह फाड़ रही है। स्वतंत्रता के समय भारत की 80 प्रतिशत जनता ग़रीबी रेखा के नीचे थी जबकि 2011-12 के आंकड़ों के अनुसार देश की 22 प्रतिशत जनता ग़रीबी रेखा के नीचे जीवन बिता रही है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि भारत की जनसंख्या का 22 प्रतिशत बहुत बड़ी संख्या होता है। 
 
भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद महात्मा गांधी, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या हुई। भारत के लिये यह भी विचित्र अनुभव था। हत्या अपनों ने ही की।
 
सिनेमा के क्षेत्र में भारतीय सिनेमा (विशेषकर हिन्दी सिनेमा) ने अपने पाँव भारत से बाहर सफलता से निकाले और एक ‘soft global power’ के रूप में उभर कर आया। 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिली और उसके साथ ही शुरू हुआ भारतीय सिनेमा के ब्रह्मा, विष्णु और महेश का युग यानी कि दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनन्द का युग। इन तीनों महान कलाकारों का अभिनय एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न था और आगे आने वाले बहुत से कलाकार इनके अभिनय से प्रभावित दिखाई देते रहे। राज कपूर और देव आनन्द ने तो बेहतरीन फ़िल्मों का निर्माण भी किया। 
 
1950 से 1970 का काल हिन्दी सिनेमा का स्वर्ण युग कहा जा सकता है। जिसमें राज कपूर, महबूब ख़ान और के. आसिफ़ जैसी भव्य फ़िल्मों के निर्माता तो थे ही, उनके साथ ही साथ शांताराम, बिमल रॉय, गुरूदत्त, बी.आर. चोपड़ा, हृषिकेश मुखर्जी जैसे सार्थक सिनेमा बनाने वाल गुणी फ़िल्मकार भी थे। 
 
इसी काल में नौशाद, शंकर जयकिशन, सचिन देव बर्मन, मदन मोहन, ओ.पी. नैय्यर, सलिल चौधरी, हेमन्त कुमार, वसंत देसाई, सी. रामचन्द्र जैसे संगीतकार एक साथ संगीत सृजन कर रहे थे वहीं साहिर लुधियानवी, शैलेन्द्र, शकील बदायुनी, मजरूह सुल्तान पुरी, हसरत जयपुरी, राजेन्द्र कृष्ण, भरत व्यास, इंदीवर, नरेन्द्र शर्मा, कैफ़ी आज़मी, राजा मेहदी अली ख़ान, और अंजान जैसे अद्भुत गीतकार भी मौजूद थे। इस काल की फ़िल्मों के गीत कालजयी गीत कहे जा सकते हैं। 
 
इसी काल में मुहम्मद रफ़ी, लता मंगेश्कर, आशा भोंसले, मुकेश, मन्ना डे, तलत महमूद, शमशाद बेग़म, महेन्द्र कपूर, सुमन कल्याणपुर जैसे विलक्षण गायकों ने पार्श्व गायक के रूप में अद्भुत योगदान दिया। 
 
इसी काल में कुछ कालजयी फ़िल्मों का निर्माण हुआ–दो आँखें बारह हाथ, डॉ. कोटनीस की अमर कहानी, झनक झनक पायल बाजे, अंदाज़, बरसात, आवारा, श्री 420, जागते रहो, मदर इंडिया, नया दौर, मुग़ल-ए-आज़म, सुजाता, बंदिनी, देवदास, प्यासा, काग़ज़ के फूल,  गंगा जमुना, अनाड़ी, आनंद, धूल का फूल, कानून, साधना, शारदा, हकीकत, आख़री ख़त, संगम, गाईड, हम दोनों, ख़ामोशी, अदालत, लाजवंती, फिर सुबह होगी, जंगली, प्रोफ़ेसर, वक्त, हम लोग, सीमा, काबुलीवाला, अनपढ़, अनुपमा।  
 
हिन्दी फ़िल्मों को विदेशों में लोकप्रिय बनाने में हिन्दुजा बंधुओं का बहुत बड़ा हाथ रहा। 1955 से लेकर 1990 तक हिन्दुजा बंधु लगातार हिन्दी फ़िल्मों को ईरान, रूस, तुर्की, ब्रिटेन, अमरीका आदि देशों तक वितरित करते रहे। वे उस समय फ़िल्मों के निर्माण में पैसे लगाते थे जब कार्पोरेट फ़ंडिंग का सिलसिला शुरू नहीं हुआ था। राज कपूर की संगम तो ईरान के एक थियेटर में पूरे साल भर चली। 
 
हिन्दी साहित्य में भी इन 75 वर्षों में बहुत से आंदोलन हुए और किसी हद तक विमर्श साहित्य पर हावी होते चले गये। इसी दौरान हिन्दी साहित्य कई ख़ांचों में बंटता चला गया – नारी विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, प्रवासी साहित्य... आदि आदि... कविता में से लय, ताल और गेयता ग़ायब हो गए और उसका स्थान ले लिया विमर्श ने। पहले कविता से छंद छूटा फिर कोमलता। कविता भी लेख की तरह शुष्क और नारेबाज़ी के निकट पहुंचती गयी। नई कविता और अकविता जैसे आंदोलन हुए और अंततः हिन्दी कविता के पाठक दूर होते चले गये। अब लेखक ही पाठक हैं और पाठक ही लेखक। 
 
कुछ आंदोलन कहानी के साथ भी हुए। नई कहानी का आगाज़ हुआ। कमलेश्वर, मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव और निर्मल वर्मा कहानी को गाँव से शहर तक लाए, शहर से घर तक और घर से बेडरूम तक। नारी विमर्श के नाम पर बहुत से महिला कथाकारों ने बहुत बोल्ड लेखन शुरू कर दिया। नारी स्वतंत्रता जैसे केवल सेक्स तक सीमित हो कर रह गयी। आज हिन्दी का कम से कम पाँच पीढ़ियां कहानियां लिख रही हैं। 
 
एक समस्या यह भी रही कि एक लंबे अरसे तक हिन्दी साहित्य बाएं हाथ से लिखा जाता रहा। वामपंथी सोच विचारधारा का दबाव साहित्य के हर क्षेत्र में बढ़ने लगा। साहित्य में राजनीति का प्रवेश साफ़ दिखाई देने लगा। तमाम तरह के पुरस्कार एवं सम्मान भी यही गुट तय करते थे। तमाम लेखकों को इनसे लेखक होने का प्रमाणपत्र प्राप्त करना होता था। पुरस्कारों पर से विश्वास उठने लगा था। तमाम विवाद उठते रहते थे।  
 
अब यह तिलिस्म थोड़ा टूटा है। यह स्थापित हो गया है कि साहित्य केवल वाम या दक्षिण पंथी नहीं होता है। एक ख़ालिस साहित्य भी हो सकता है जो कि किसी ज़माने में हुआ करता था। यह समझ आने लगा है कि आम आदमी का दर्द समझने के लिये किसी राजनीतिक दल का कार्डधारी होना आवश्यक नहीं है।
 
भारत के बाहर भी हिन्दी साहित्य ख़ासी मात्रा में लिखा गया और लोकप्रिय हुआ। जहां एक तरफ़ तो गिरमिटिया साहित्य है जो कि मॉरीशस, सुरिनाम, फ़िजी और त्रिनिदाद में लिखा गया। दूसरी तरफ़ ख़ालिस प्रवासियों द्वारा ब्रिटेन, अमरीका, युरोप, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, खाड़ी देशों में लिखा गया। ये पहली पीढ़ी के प्रवासी हैं जिन्होंने प्रवास का दर्द सहा है और अपने अपनाए हुए देश के मुद्दों को साथ-साथ समझा है। 
 
मैंने भारत 1998 में छोड़ा। तब से आज तक आई.टी. के क्षेत्र में भारत ने अद्भुत प्रगति की है। अमरीका की सिलिकॉन वैली में अधिकांश वैज्ञानिक एवं इंजीनियर भारतवंशी हैं। पिछले कुछ वर्षों से विदेशों में भारतीयों का सम्मान बढ़ने लगा है। विदेशी हमें आदर की दृष्टि से देखते हैं। भारतीय पासपोर्ट की ताकत में वृद्धि हुई है। हाल ही में मेक्सिको के राष्ट्रपति ने जब विश्व के तीन नेताओं का नाम सुझाया जो कि विश्व शांति के लिये प्रयास कर सकते हैं, उनमें एक नाम भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भी है। 
 
मगर ऐसा नहीं कि सब कुछ अच्छा ही होता गया है। किसी भी विकासशील देश में समस्याएं तो होती ही हैं। भारत में भी तथाकथित गंगा-जमुनी तहज़ीब ख़ासी कमज़ोर साबित हुई है और 75 वर्षों में बहुत से सांप्रदायिक दंगे हुए। ये दंगे किसी अंचल विशेष तक सीमित नहीं रहे। उत्तर दक्षिण, पूर्व पश्चिम सभी दिशाओं में हुए। आसाम हो या बंगाल, महाराष्ट्र हो या गुजरात, कश्मीर से केरल तक हर जगह ये दंगे भारत की छवि को धूमिल करते रहे।
 
1984 और 2002 के दंगे विशेष रूप से भारत की स्मृति पर गहरे ज़ख्म के रूप में चिह्नित हैं।  
 
वोट बैंक की राजनीति ने इन दंगों पर गंभीरता से नियंत्रण पाने का प्रयास नहीं किया। दरअसल भारत के राजनीतिक दल चुनावों के बाद भी चुनावी ‘मोड’ में ही बने रहते हैं। एक भी राजनीतिक दल यह नहीं समझता कि किसी भी देश का राज-काज चलाने के लिये सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की अहम भूमिका होती है। विपक्ष का काम केवल विरोध करना नहीं है और सत्ता पक्ष का काम केवल विपक्ष की अवहेलना करना नहीं है। सत्ता पक्ष और विपक्ष ऐसे दो पहिये हैं जिन पर देश चलता है। यह परिपक्वता अभी तक भारतीय राजनीतिक दलों में नहीं आ पाई है।
 
दलबदल भारत में इतनी आसानी से हो जाता है जैसे इंसान कपड़े बदलता है। सोचने की बात है कि जो इंसान सारी उम्र कांग्रेसी विचारधारा के साथ जीता रहा है, अचानक वह भारतीय जनता पार्टी में कैसे शामिल हो सकता है। ठीक वैसे ही कोई भाजपाई कैसे अपनी विचारधारा छोड़ कर कांग्रेस या किसी अन्य दल में शामिल हो सकता है। भारत के राजनीतिक ढांचे पर गंभीरता से सभी दलों को विचार करना चाहिये। 
 
किसी भी लोकतंत्र में संसद का सुचारू रूप से चलना आवश्यक है। 75 वर्षों में यह बात न तो सत्ता पक्ष को समझ आई है और न ही विपक्ष को। बिना किसी ठोस सुबूत के हम किसी भी नेता पर आरोप लगा देते हैं। मगर हम देखते हैं कि इन तमाम वर्षों में बहुत ही कम नेताओं को सज़ा हो पाई है। 
 
फिर भी भारत में यदि किसी चीज़ ने सबसे अधिक तरक्की की है तो वो है – भ्रष्टाचार। हम लोगों ने यह मान ही लिया है कि हर विभाग में कोई न कोई भ्रष्टाचार तो होगा ही। स्कूल में दाख़िले के लिये डोनेशन से लेकर नौकरी के लिये रिश्वत तक हम सब सही मान बैठे हैं। रेलगाड़ी की रिज़र्वेशन तक में दलाली देनी पड़ती है। सारा तंत्र ऊपर से नीचे तक भ्रष्ट हो चुका है। होना तो यह चाहिये कि जो भी व्यक्ति भ्रष्टाचार में पकड़ा जाए, कोई भी राजनीतिक दल या नेता उसके साथ न खड़ा हो। मगर सुना तो यह भी जाता है कि कुछ पार्टियों का टिकट भी पैसे लेकर बेचा जाता है। 
 
हमें समस्याओं को केवल समझना ही नहीं है, उनसे पार पाना है। आज 75 वर्ष बाद भारत विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका है। हम अपने पड़ोसी देशों की धन और सामग्री से सहायता कर पाते हैं। श्रीलंका, फ़िजी, बांग्लादेश, अफ़ग़ानिस्तान सहायता के लिये भारत की ओर देखने लगे हैं। कोरोना काल में भारत ने पाकिस्तान समेत दुनिया के तमाम देशों को वैक्सीन मुहैया करवाई। 
 
जब लेखा जोखा तैयार करते हैं तो लगता है कि यात्रा में हिचकोले तो लगे मगर हम सही राह की ओर अग्रसर हैं। हर विफलता से सीख लेते हुए भारत को विश्वगुरू बनने की अपनी मुहिम जारी रखनी चाहिये।  

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