बिडेन की जीत से चीन की मुश्किलें घटेंगी या बढ़ेंगी?

DW
शुक्रवार, 13 नवंबर 2020 (08:57 IST)
रिपोर्ट राहुल मिश्र
 
आमतौर पर अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के नेता अंतरराष्ट्रीय उदारवादी व्यवस्था को बनाए रखने का जुमला ककहरे की तरह दुहराते रहते है। दूसरी ओर रूस, चीन और भारत जैसे देश बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के हिमायती रहे हैं।
 
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के शंघाई कोआपरेशन ऑर्गनाइजेशन के राष्ट्राध्यक्षों की बीसवीं शीर्षस्तरीय वार्ता के दौरान दिए गए भाषण में वैश्विक शासन और समकालीन विश्व व्यवस्था को बनाए रखने पर जोर ने चीन की बदलती भूमिका पर एक बार फिर ध्यान आकर्षित किया। शी के भाषण ने एक और संदेश स्पष्ट रूप से दिया कि दुनिया को चीन की उतनी ही जरूरत है जितनी चीन को दुनिया की। और इस बात से चीन के कट्टर आलोचक भी अनदेखा नहीं कर सकते। शी ने न सिर्फ कोविड महामारी से लड़ने में बहुपक्षीय सहयोग की भूमिका पर बल दिया बल्कि एससीओ सदस्य देशों को कोविड-19 वैक्सीन मुहैय्या कराने का वादा भी किया। 10 नवंबर को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की अध्यक्षता में हुई इस वर्चुअल बैठक में कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा हुई। रूस इस साल एससीओ की अध्यक्षता कर रहा है।
 
शी जिनपिंग के भाषण की सबसे खास बात रही उनका वैश्विक शासन और समकालीन विश्व व्यवस्था को बनाए रखने पर जोर। अमेरिका की घटती साख के बीच चीन के राष्ट्रपति का यह बयान अहम है। वैसे तो चीन कोरोना वायरस की उत्पत्ति की खोज तक का विरोध करता रहा है लेकिन राष्ट्रपति शी ने एससीओ सदस्य देशों के बीच एक स्वास्थ्य हॉटलाइन स्थापित करने की वकालत की और कहा कि इस हॉटलाइन से एससीओ सदस्य देश कोविड-19 जैसी किसी आपदा से जूझने में आपसी सहयोग और साझा सूझबूझ से काम ले सकेंगे। साथ ही शी ने किसी बाहरी 'पॉलिटिकल वायरस' से बचकर रहने की नसीहत भी दी। शी की इन बातों में अमेरिका के लिए संदेश बहुत साफ है।
 
कोरोना पर मिसाल नहीं अमेरिका
 
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि खुद को दुनिया का सबसे ताकतवर देश कहने वाले अमेरिका में आज कोविड के सबसे ज्यादा मरीज हैं और इस महमारी में जान देने वालों की संख्या भी सबसे ज्यादा है। वैसे तो बहुत से लोग ट्रंप प्रशासन पर यह जिम्मेदारी जड़कर आगे निकलने की कोशिश करते हैं लेकिन यह इतना आसान और सीधा मामला नहीं है। अमेरिका में प्रांतीय और शहरी प्रशासन की अलग व्यवस्था है और ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इन सभी पर ट्रंप का सीधा दखल था। अमेरिका की लचर स्वास्थ्य व्यवस्था ने अमेरिका की कमजोरियों को उजागर किया है। शायद अमेरिकी लोगों को अब यूरोपीय सरकारों की सोशल डेमोक्रेटिक व्यवस्था की अच्छी बातें भी समझ में आने लगें।
 
अगर कोविड-19 जैसी बदहाली का आलम चीन और रूस में या दक्षिणपूर्व एशिया के किसी देश में होता तो अमेरिकी मीडिया किस तरह की रिपोर्टें पेश कर रहा होता। इन सभी के मद्देनजर चीनी राष्ट्रपति की बात आश्चर्यजनक तो लगती है लेकिन झूठी और बेमानी नहीं है। और अमेरिका के हालात एक सरकार के बदलने से बदल जाएंगे, ऐसा समझना बचपना होगा।
अमेरिका की अगली सरकार और चीन
 
चीन इस बात से भी वाकिफ है कि जो बिडेन प्रशासन से भिड़ना ट्रंप के मुकाबले ज्यादा कठिन होगा क्योंकि अब दबाव सिर्फ आर्थिक और सामरिक मोर्चे पर ही नहीं, पर्यावरण और मानवाधिकारों पर भी होगा। ये वो मुद्दे हैं जिन पर ट्रंप गलतियां पर गलतियां करते रहे। वह शायद भूल ही गए थे कि इन दोनों ही मुद्दों पर चीन बहुत कमजोर स्थिति में है।
 
हुआवे और 5जी तकनीक को लेकर शायद बिडेन और ट्रंप में कोई अंतर नहीं होगा। यह बात भी चीन को परेशान कर रही है। और इसी की एक झलक शी के भाषण में दिखी जब उन्होंने यह घोषणा की कि अगले साल शी चोंगक्विंग में चीन-एससीओ डिजिटल इकोनॉमी फोरम की मेजबानी करेंगे। रूस के डिजिटल इकोनॉमी और 5जी के मुद्दे पर चीन को समर्थन से यह भी साफ है कि तकनीक के वर्चस्व की लड़ाई में चीन और रूस अमेरिका और यूरोप के विरुद्ध साथ-साथ खड़े होंगे।
 
भारत और चीन का टकराव
 
इस शिखर वार्ता में भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी भाग लिया। शी के बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के विचार को थोड़ा सा खींच कर भारत के पाले में लाते हुए मोदी ने कहा कि विश्व व्यवस्था में सुधार लाने के लिए परिमार्जित बहुध्रुवीय व्यवस्था की तरफ दुनिया को बढ़ना ही पड़ेगा। इस संदर्भ में भारत का 1 जनवरी 2021 से संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में सदस्य बनना खास मायने रखता है। अपने भाषण में मोदी ने एससीओ सदस्य देशों को आपसी सौहार्द्र बनाए रखने और एक दूसरे की संप्रभुता और अखंडता का सम्मान करने की सलाह दी।
 
भारत और चीन के बीच महीनों से चल रहे सीमा विवाद के बीच यह बयान महत्वपूर्ण है। पिछले कुछ महीनों में भारत और चीन के बीच सीमा संबंधी विवाद सुलझाने के लिए कई विफल दौर चले हैं। आशा की जा रही है कि इस बार दोनों देशों की सेना एक आम सहमति बना पाएंगी। भारत को समझ आ चुका है कि पड़ोसी देश से ताकत के बल पर जीत नहीं पाई जा सकती। चीन भी शायद इस बात को धीरे-धीरे समझ रहा है। भारत, चीन और एससीओ सभी के लिए यह एक राहतभरी खबर होगी।
 
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)

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