MSP अब कितनी कारगर, क्या किसानों की आय बढ़ाने के लिए किसी और तरकीब की है जरूरत

BBC Hindi
बुधवार, 21 फ़रवरी 2024 (07:44 IST)
दीपक मंडल, बीबीसी संवाददाता
अपनी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी मांग रहे किसानों ने सरकार की पेशकश ठुकरा दी है। 23 फसलों के लिए एमएसपी गारंटी समेत कुछ दूसरी मांगों को लेकर पिछले एक सप्ताह से आंदोलन कर रहे किसानों से केंद्र सरकार के मंत्रियों की एक कमेटी ने कहा था कि वे दलहन, तिलहन, मक्का और कपास उगाएंगे तो पांच साल तक सरकारी एजेंसियां एमएसपी पर उनकी फसल की खरीद करेगी।
 
लेकिन किसान संगठनों के प्रतिनिधियों का कहना है कि सरकार ने जो प्रस्ताव दिया है उसमें उनका कोई फायदा नहीं दिख रहा है। इसलिए किसान संगठन अपनी मांगों के समर्थन में 21 फरवरी से दिल्ली कूच करेंगे।
 
किसानों को फिलहाल भारी पुलिस बल की तैनाती के दम पर दिल्ली से बाहर ही रोक कर रखा गया है। इस बात की आशंका जताई जा रही है कि आने वाले दिनों में आंदोलन कर रहे किसानों और सरकार के बीच नई तनातनी देखने को मिल सकती है।
 
क्या एमएसपी पुराना आइडिया है, जो अब कारगर नहीं रहा
भारत में आंदोलन कर रहे इन किसानों को खासा समर्थन मिल रहा है। लेकिन एक बड़ा तबका किसानों की 23 फसलों की एमएमसपी गारंटी की मांग पर सवाल भी उठा रहा है।
 
भारत में कृषि अर्थव्यवस्था के जानकारों और विश्लेषकों का कहना है कि एमएसपी 1960 के दशक का आइडिया है जब देश अनाज की भारी कमी की समस्या से जूझ रहा था।
 
उस वक़्त सरकार ने किसानों को ज्यादा फसल पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करने के कदम के तौर एमएसपी की व्यवस्था लागू की थी। अब 'फूड सरप्लस' का दौर है और एमएसपी की जरूरत खत्म हो गई है।
 
पहली एमएसपी 1964-65 में धान के लिए दी गई थी। उस वक्त़ धान की प्रति क्विंटल एमएसपी 33.50 रुपये से लेकर 39 रुपये तय की गई थी। वहीं 1966-67 में गेहूं के लिए प्रति क्विंटल 54 रुपये की एमएसपी दी गई थी।
 
विश्लेषकों का कहना है कि देश अब खाद्य सुरक्षा के मामले में आत्मनिर्भर हो गया है। इसलिए इसकी भूमिका खत्म हो चुकी है। ये व्यवस्था हमेशा के लिए नहीं चल सकती है।
 
सरकार की ओर से 23 फसलों की एमएसपी पर खरीद की अनिवार्यता के बावजूद सिर्फ गेहूं और धान की खरीद ही इस पर हो रही है।
 
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक़ साल 2021-22 से पहले तीन साल तक देश में एमएसपी की व्यवस्था के तहत 1340 लाख टन अनाज खरीदा जा चुका था। इस पर सरकार 2.75 लाख करोड़ रुपये ख़र्च कर चुकी थी।
 
देश में जरूरत से ज्यादा अनाज का भंडार है और रखने की जगह की कमी होने की वजह से बड़ी मात्रा में अनाज खराब हो जाता है।
 
एमएसपी के पक्ष और विपक्ष में तर्क
कृषि अर्थव्यवस्था के जानकारों का कहना है कि भारत अपने किसानों से जरूरत से ज्यादा अनाज खरीद रहा है।
उदाहरण के लिए सरकार ने 2022 में बताया कि उसने 600 लाख टन चावल खरीदा है।
 
लेकिन राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत 350 लाख टन चावल की खरीद ही काफी थी। इतने अनाज की भंडारण व्यवस्था भारत में नहीं है। लिहाजा भारी मात्रा में अनाज सड़ जाता है।
 
कई विशेषज्ञों का मानना है कि ये व्यवस्था अब पुरानी पड़ चुकी है और इस प्रक्रिया में देश का अहम संसाधन बरबाद हो रहे हैं।
 
थिंकटैंक आईसीआरआईईआर में इन्फोसिस एग्रीकल्चर प्रोफेसर और कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) के पूर्व अध्यक्ष अशोक गुलाटी ने हाल में ‘द वायर’ के लिए वरिष्ठ पत्रकार करण थापर को दिए एक इंटरव्यू में बताया कि एमएसपी के तहत सिर्फ दस फीसदी किसान ही फसल बेच पाते हैं।
 
उनका कहना है कि जिन 23 फसलों के लिए एमएसपी देने की कानूनी अनिवार्यता है वो भारत की कुल कृषि पैदावार की सिर्फ 27.8 फीसदी ही हैं।
 
एमएसपी पर चावल और गेहूं की खरीद पंजाब और हरियाणा समेत सिर्फ छह या सात राज्यों में ही होती है।
 
छत्तीसगढ़, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश इस क्लब में नए राज्य हैं। पूर्वी भारत का ज्यादातर हिस्सा इस तरह की खरीद व्यवस्था से बाहर है। लेकिन अर्थशास्त्री अरुण कुमार अशोक गुलाटी के इस तर्क से सहमत नहीं हैं।
 
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, ''सरकार 23 फसलों के लिए एमएसपी तय करती है लेकिन ये सिर्फ दो फसलों गेहूं और धान पर लागू होती है। यही समस्या की वजह है। इसी वजह से किसान क़ानूनी गारंटी मांग रहे हैं। अगर सरकार ऐसा कर दे तो सिर्फ दो फसलों को तरजीह दिया जाना बंद हो सकता है। इससे फसलों में विविधता आ सकती है। गोदामों में ज़रूरत से अधिक अनाज रखने से जो बर्बादी होती है उससे भी बचा जा सकेगा।''
 
अरुण कुमार कहते हैं, ''अक्सर सरकारी हलकों में ये सवाल उठाया जाता है कि एमएसपी देकर किसानों को सब्सिडी क्यों दी जाए। जबकि ओईसीडी की रिपोर्ट बताती है कि 2022 में किसानों को 14 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ क्योंकि उनकी फसलों की जो कीमत मिलनी चाहिए वो नहीं मिली। तो किसान समाज को ये सब्सिडी दे रहे हैं। समाज या सरकार किसानों को सब्सिडी नहीं दे रही है।''
 
वो कहते हैं कि अगर सरकार देश में प्रति व्यक्ति जीवन निर्वाह मजदूरी सुनिश्चित कर दे जिसका संविधान में वादा किया गया है तो डिमांड एंड सप्लाई से जुड़ी समस्या पर भी भारी असर पड़ेगा। गोदामों में इतना अनाज नहीं रखना पड़ेगा। लोगों की खपत बढ़ेगी और वो ज्यादा फल, सब्जी, अनाज का उपभोग कर सकेंगे।
 
सरकार का प्रस्ताव क्या था ?
आंदोलनकारी किसान अपनी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने की मांग कर रहे हैं। इसके साथ ही वो फसलों की कीमत तय करने के लिए स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट में बताए गए फॉर्मूले को लागू करने की मांग कर रहे हैं।

इस फॉर्मूले के मुताबिक़ किसानों को फसलों की लागत का डेढ़ गुना कीमत मिलनी चाहिए। लेकिन सरकार की ओर से दिए गए प्रस्ताव में एमएसपी पर गारंटी देने का वादा नहीं किया गया है। इसके बजाय मंत्रियों की कमेटी ने उन्हें फसलों के डाइवर्सिफिकेशन यानी सिर्फ धान और गेहूं के बजाय तिलहन, दलहन की खेती करने का सुझाव दिया है।
 
गोयल ने बताया कि मंत्रियों की कमेटी ने किसानों से दलहन उगाने को कहा है। इससे दालों के लिए भारत की आयात पर निर्भरता कम हो जाएगी।
 
घरेलू पैदावार से ही दालों की मांग की पूरी हो सकती है। इससे पंजाब और हरियाणा जैसे प्रदेशों में लगातार जलस्तर नीचे गिरते जाने की समस्या खत्म हो सकती है।
 
इस मामले में किसानों और मंत्रियों की बैठक के बाद पीयूष गोयल ने बताया था कि किसान नेताओं ने कहा कि किसान मक्का, दलहन और कपास जैसी फसलें पैदा करने में हिचकिचाते हैं।
 
किसानों को लगता है इससे उन्हें भारी घाटा हो सकता है क्योंकि ये फसलें एमएसपी पर नहीं खरीदी जाती हैं।
 
गोयल के मुताबिक़ किसानों की इस चिंता को देखते हुए मंत्रियों की कमेटी ने प्रस्ताव दिया था कि अगर किसान मक्का या दलहन उगाएंगे तो नेशनल को-ऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया (एनसीसीएफ) और नेशनल एग्रीकल्चरल को-ऑपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन ऑफ इंडिया (नेफेड) उनके साथ पांच साल का कॉन्ट्रेक्ट करेगी।
 
इसके तहत वो एमएसपी पर इन फसलों की खरीद करेगी। खरीद की कोई सीमा नहीं होगी। कपास की खरीद के लिए किसानों से ऐसा ही करार भारतीय कपास निगम लिमिटेड करेगी।
 
किसानों का क्या कहना है?
किसानों के आंदोलन की अगुआई कर रहे किसान संगठनों के नेताओं का कहना कि सरकार फसलों के डाइवर्सिफिकेशन पर जोर दे रही है। लेकिन ये सरकार के रुख पर निर्भर करता है।
 
भारतीय किसान यूनियन एकता (सिधुपुर) के अध्यक्ष जगजीत सिंह डल्लेवाल केंद्रीय मंत्रियों के साथ बातचीत में शामिल थे।
 
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, किसान चाहते हैं कि सरकार तमाम फसलों के लिए जो एमएसपी घोषित करती है उसकी गारंटी दी जाए। अगर सरकार ये गारंटी देती है तो फसलों का डाइवर्सिफिकेशन अपने-आप हो जाएगी। सरकार को इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
 
उन्होंने कहा कि अगर दलहन और तिलहन बेचने से किसान को ज्यादा मुनाफा होगा तो वो धान और गेहूं क्यों पैदा करेगा। सरकार और इस देश के बुद्धिजीवी चाहते हैं कि फसलों का डाइवर्सिफिकेशन हो। ये अच्छी बात है। लेकिन किसानों को ये गारंटी तो मिले कि उसकी फसलें एमएसपी पर बिकेगी।
 
अगर सरकार इसकी जिम्मेदारी नहीं लेती तो किसान की फसल नहीं बिकेगी। तो फिर वो उन एक-दो फसलों की ओर मुड़ेगा जिसकी खरीद एमएसपी पर हो पा रही है।
 
डल्लेवाल कहते हैं कि किसानों को कंपनियों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है। पहले भी किसानों ने खेती करवाने की एग्री-कमडिटी कंपनियों के कहने पर आलू,टमाटर और बासमती धान की खेती कर चुके हैं।
 
लेकिन ये कंपनियां कॉन्ट्रैक्ट तोड़ देती हैं और किसानों को घाटा उठाना पड़ता है। कंपनियां खरीद का वादा करती हैं लेकिन अक्सर देखा जाता है कि वो अक्सर वो इसे पूरा नहीं करतीं।
 
डल्लेवाल कहते हैं,''खरीद की जिम्मेदारी सरकारी एजेंसियों को लेनी होगी। किसान जितनी फसल पैदा करेंगे वो पूरा इन एजेंसियों को एक तय कीमत पर खरीदनी होगी। अगर ऐसा हुआ तो फसलों का डाइवर्सिफिकेशन खुद-ब-खुद हो जाएगा।''
 
कैसे बढ़ेगी किसानों की आय?
गुलाटी कहते हैं कि एमएसपी की कानूनी गारंटी किसानों का अहित करेगी। अगर स्वामीनाथन आयोग के मुताबिक़ फसलों के दाम बढ़ेंगे तो खाद्य वस्तुओं के दाम 25 से 30 फीसदी बढ़ जाएगी और सरकार के लिए महंगाई नियंत्रण बेहद कठिन हो जाएगा।
 
उनका कहना है कि सरकार की आय बढ़ाने के कई उपाय हो सकते हैं। इसमें एक है मूल्य स्थिरता कोष का गठन। यानी जब फसलों की बाजार कीमत एमएसपी से नीचे चली जाए तो सरकार इसकी भरपाई करे। चीन में यह व्यवस्था कारगर है।
 
उनका कहना है कि किसानों को धान-गेहूं की फसल की बजाय ज्यादा कीमत देने वाली फसलों को पैदा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। किसानों को फल, सब्जी, मवेशी और मछली पालन के लिए बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
 
भारत में कृषि अर्थव्यवस्था में सुधारों के पैरोकारों का कहना है कि एमएसपी व्यवस्था के दबदबा इस सेक्टर में इनोवेशन को हतोत्साहित करेगा।
 
इससे किसान सरकारी व्यवस्था पर निर्भर होकर रह जाएंगे और जोखिम लेने से डरेंगे। इसलिए किसानों को चावल-गेहूं की एमएसपी खरीद के चक्र से छुटकारा दिलाने की जरूरत है।

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