वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद में तीन दिन तक चले सर्वे के बाद हिन्दू पक्ष ने दावा किया है कि मस्जिद में शिवलिंग पाया गया है। दूसरी ओर मुस्लिम पक्ष इसे वज़ूख़ाने में लगा फ़व्वारा बता रहा है।
इसके बाद स्थानीय अदालत ने उस जगह को सील करने का आदेश दिया। ज्ञानवापी मस्जिद की मैनेजमेंट कमेटी की अपील पर आज सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई।
वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर और उससे लगी ज्ञानवापी मस्जिद, दोनों के निर्माण और पुनर्निमाण को लेकर कई तरह की धारणाएं हैं, लेकिन स्पष्ट और पुख़्ता ऐतिहासिक जानकारी काफ़ी कम है, दावों और क़िस्सों की भरमार ज़रूर है।
आम मान्यता है कि काशी विश्वनाथ मंदिर को औरंगज़ेब ने तुड़वा दिया था और वहां मस्जिद बना दी गई लेकिन ऐतिहासिक दस्तावेज़ों को देखने-समझने पर मामला इससे कहीं ज़्यादा जटिल दिखता है।
क्या कहते हैं इतिहासकार
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ज्ञानवापी मस्जिद को 14वीं सदी में जौनपुर के शर्की सुल्तानों ने बनवाया था और इसके लिए उन्होंने यहां पहले से मौजूद विश्वनाथ मंदिर को तुड़वाया था, लेकिन इस मान्यता को तथ्य मानने से कई इतिहासकार इनकार करते हैं, ये दावे साक्ष्यों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते।
न तो शर्की सुल्तानों की ओर से कराए गए किसी निर्माण के कोई साक्ष्य मिलते हैं, और न ही उनके दौर में मंदिर तोड़े जाने के।
जहां तक विश्वनाथ मंदिर के निर्माण का सवाल है तो इसका श्रेय अकबर के नवरत्नों में से एक राजा टोडरमल को दिया जाता है जिन्होंने साल 1585 में अकबर के आदेश पर दक्षिण भारत के विद्वान नारायण भट्ट की मदद से कराया था।
वाराणसी स्थित काशी विद्यापीठ में इतिहास विभाग में प्रोफ़ेसर रह चुके डॉक्टर राजीव द्विवेदी कहते हैं, "विश्वनाथ मंदिर का निर्माण राजा टोडरमल ने कराया, इसके ऐतिहासिक प्रमाण हैं और टोडरमल ने इस तरह के कई और निर्माण भी कराए हैं। एक बात और, यह काम उन्होंने अकबर के आदेश से कराया, यह बात भी ऐतिहासिक रूप से पुख्ता नहीं है। राजा टोडरमल की हैसियत अकबर के दरबार में ऐसी थी कि इस काम के लिए उन्हें अकबर के आदेश की ज़रूरत नहीं थी।"
प्रोफ़ेसर राजीव द्विवेदी कहते हैं कि विश्वनाथ मंदिर का पौराणिक महत्व तो बहुत पहले से ही रहा है लेकिन बहुत विशाल मंदिर यहां उससे पहले रहा हो यह इतिहास में प्रामाणिक तौर पर कहीं दर्ज नहीं है। यहां तक कि टोडरमल का बनवाया मंदिर भी बहुत विशाल नहीं था।
दूसरी ओर, इस बात को ऐतिहासिक तौर पर भी माना जाता है कि ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण मंदिर टूटने के बाद ही हुआ और मंदिर तोड़ने का आदेश औरंगज़ेब ने ही दिया।
ज्ञानवापी मस्जिद की देख-रेख करने वाली संस्था अंजुमन इंतज़ामिया मसाजिद के संयुक्त सचिव सैयद मोहम्मद यासीन कहते हैं कि आमतौर पर यही माना जाता है कि मस्जिद और मंदिर दोनों ही अकबर ने साल 1585 के आस-पास नए मज़हब 'दीन-ए-इलाही' के तहत बनवाए थे लेकिन इसके दस्तावेज़ी साक्ष्य बहुत बाद के हैं।
बीबीसी से बातचीत में सैयद मोहम्मद यासीन कहते हैं, "ज़्यादातर लोग तो यही मानते हैं कि मस्जिद अकबर के ज़माने में बनी थी। औरंगज़ेब ने मंदिर को तुड़वा दिया था क्योंकि वो 'दीन-ए-इलाही' को नकार रहे थे। मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनी हो, ऐसा नहीं है। यह मंदिर से बिल्कुल अलग है। ये जो बात कही जा रही है कि यहां कुआं है और उसमें शिवलिंग है, तो यह बात बिलकुल ग़लत है। साल 2010 में हमने कुएं की सफ़ाई कराई थी, वहां कुछ भी नहीं था।"
काशी विश्वनाथ मंदिर मामले में दावे का समर्थन करने वाले विजय शंकर रस्तोगी कहते हैं कि औरंगज़ेब ने अपने शासन के दौरान काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने का फ़रमान तो जारी किया था लेकिन उन्होंने मस्जिद बनाने का फ़रमान नहीं दिया था। रस्तोगी के मुताबिक, मस्जिद बाद में मंदिर के ध्वंसावशेषों पर ही बनाई गई है।
मस्जिद बनाए जाने के ऐतिहासिक साक्ष्य बहुत स्पष्ट नहीं हैं लेकिन इतिहासकार प्रोफ़ेसर राजीव द्विवेदी कहते हैं कि मंदिर टूटने के बाद यदि मस्जिद बनी है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं, क्योंकि ऐसा उस दौर में कई बार हुआ। प्रोफ़ेसर राजीव द्विवेदी कहते हैं- "औरंगज़ेब की उपस्थिति में तो नहीं हुआ है, आदेश भले ही दिया हो लेकिन मस्जिद का निर्माण औरंगज़ेब के समय में ही हुआ।"
यानी मस्जिद अकबर के ज़माने में दीन-ए-इलाही के दर्शन के तहत बनाई गई या औरंगज़ेब के ज़माने में इसको लेकर जानकारों में मतभेद है।
ऐतिहासिक दस्तावेज़
दरअसल, वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद के निर्माण और विश्वनाथ मंदिर को तोड़ने संबंधी औरंगज़ेब के आदेश को लेकर कई तरह की धारणाएं हैं लेकिन ऐतिहासिक दस्तावेज़ से ये बातें प्रमाणित नहीं होतीं।
इतिहासकार एलपी शर्मा अपनी पुस्तक 'मध्यकालीन भारत' के पृष्ठ संख्या 232 पर लिखते हैं, "1669 में सभी सूबेदारों और मुसाहिबों को हिन्दू मंदिरों और पाठशालाओं को तोड़ देने की आज्ञा दी गई। इसके लिए एक पृथक विभाग भी खोला गया। यह तो संभव नहीं था कि हिन्दुओं की सभी पाठशालाएं और मंदिर नष्ट कर दिए जाते परंतु बनारस का विश्वनाथ मंदिर, मथुरा का केशवदेव मंदिर, पाटन का सोमनाथ मंदिर और प्राय: सभी बड़े मंदिर, खासतौर पर उत्तर भारत के मंदिर इसी समय तोड़े गए।"
लेकिन दावे किसी समकालीन ऐतिहासिक स्रोत से नहीं पुष्ट होते। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मध्यकालीन इतिहास विभाग के प्रोफ़ेसर हेरम्ब चतुर्वेदी कहते हैं कि मथुरा के केशवराय मंदिर को तोड़े जाने के आदेश के बारे में तो समकालीन इतिहासकारों ने लिखा है लेकिन विश्वनाथ मंदिर को तोड़े जाने के आदेश का ज़िक्र नहीं है।
उनके मुताबिक, "साक़ी मुस्तईद ख़ां और सुजान राय भंडारी जैसे औरंगज़ेब के समकालीन इतिहासकारों ने भी इस बात का ज़िक्र नहीं किया है जबकि इनके विवरणों को उस काल का सबसे प्रामाणिक दस्तावेज़ माना जाता है। ऐसा लगता है कि औरंगज़ेब के बाद आने वाले विदेशी यात्रियों के विवरणों से ही यह बात आगे बढ़ी होगी लेकिन सबसे पहले किसने ज़िक्र किया है, यह बताना मुश्किल है।"
ज्ञानवापी मस्जिद के निर्माण के बारे में प्रोफ़ेसर चतुर्वेदी कहते हैं, "मस्जिद निर्माण का कोई दस्तावेज़ी प्रमाण नहीं है और मस्जिद का नाम ज्ञानवापी हो भी नहीं सकता। ऐसा लगता है कि ज्ञानवापी कोई ज्ञान की पाठशाला रही होगी। पाठशाला के साथ मंदिर भी रहा होगा जो प्राचीन गुरुकुल परंपराओं में हमेशा हुआ करता था। उस मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनी तो उसका नाम ज्ञानवापी पड़ गया, ऐसा माना जा सकता है।"
वाराणसी में वरिष्ठ पत्रकार योगेंद्र शर्मा ने ज्ञानवापी मस्जिद और विश्वनाथ मंदिर के बारे में काफ़ी शोध किया है। वे स्पष्ट तौर पर कहते हैं, "अकबर के समय में टोडरमल ने मंदिर बनवाया। क़रीब सौ साल बाद औरंगज़ेब के समय मंदिर ध्वस्त हुआ और फिर आगे लगभग 125 साल तक यहां कोई विश्वनाथ मंदिर नहीं था। साल 1735 में इंदौर की महारानी देवी अहिल्याबाई ने वर्तमान मंदिर का निर्माण कराया।"
योगेंद्र शर्मा कहते हैं- "पुराणों में जिस विश्वनाथ मंदिर का ज़िक्र मिलता है, उसका इस मंदिर से कोई संबंध है या नहीं, इसका कोई सीधा जवाब इतिहासकार नहीं दे पाते. ज्ञानवापी के पास आदिविश्वेश्वर मंदिर के बारे में ज़रूर कहा जाता है कि यह वही मंदिर है, जिसका पुराणों में वर्णन है। मंदिर टूटने के बाद ही मस्जिद बनी और ज्ञानवापी कूप के नाम पर मस्जिद का भी नाम ज्ञानवापी पड़ा। ज्ञानवापी कूप आज भी मौजूद है।"
ज्ञानवापी मस्जिद के निर्माण का समय
भरोसेमंद ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में ज्ञानवापी मस्जिद का पहला ज़िक्र 1883-84 में मिलता है जब इसे राजस्व दस्तावेज़ों में जामा मस्जिद ज्ञानवापी के तौर पर दर्ज किया गया।
सैयद मोहम्मद यासीन कहते हैं, "मस्जिद में उससे पहले की कोई चीज़ नहीं है जिससे स्पष्ट हो सके कि यह कब बनी है। राजस्व दस्तावेज़ ही सबसे पुराना दस्तावेज़ है। इसी के आधार पर साल 1936 में दायर एक मुक़दमे पर अगले साल 1937 में उसका फ़ैसला भी आया था और इसे मस्जिद के तौर पर अदालत ने स्वीकार किया था। अदालत ने माना था कि यह नीचे से ऊपर तक मस्जिद है और वक़्फ़ प्रॉपर्टी है। बाद में हाईकोर्ट ने भी इस फ़ैसले को सही ठहराया। इस मस्जिद में 15 अगस्त 1947 से पहले से ही नहीं बल्कि 1669 में जब यह बनी है तब से यहां नमाज़ पढ़ी जा रही है। कोरोना काल में भी यह सिलसिला नहीं टूटा है।"
हालांकि मस्जिद के 1669 में बनने का कोई ऐतिहासिक साक्ष्य कहीं उपलब्ध नहीं है जो सैयद मोहम्मद यासीन के दावे की पुष्टि कर सके।
सैयद यासीन बताते हैं कि मस्जिद के ठीक पश्चिम में दो कब्रें हैं जिन पर सालाना उर्स होता था। उनके मुताबिक साल 1937 में कोर्ट के फ़ैसले में भी उर्स करने की इजाज़त दी गई। वो कहते हैं कि ये कब्रें अब भी महफ़ूज़ हैं लेकिन उर्स नहीं होता। दोनों क़ब्रें कब की हैं, इसके बारे में उन्हें पता नहीं है।
कुछ अन्य दिलचस्प कहानियां
विश्वनाथ मंदिर तोड़ने और फिर मस्जिद बनवाने के बारे में कुछ और दिलचस्प कहानियां हैं और ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के साथ उन्हें जोड़ने की कोशिश होती है।
मशहूर इतिहासकार डॉक्टर विश्वंभर नाथ पांडेय अपनी पुस्तक 'भारतीय संस्कृति, मुग़ल विरासत: औरंगज़ेब के फ़रमान' के पृष्ठ संख्या 119 और 120 में पट्टाभिसीतारमैया की पुस्तक 'फ़ेदर्स एंड स्टोन्स' के हवाले से विश्वनाथ मंदिर को तोड़े जाने संबंधी औरंगज़ेब के आदेश और उसकी वजह के बारे में बताते हैं।
वो लिखते हैं, "एक बार औरंगज़ेब बनारस के निकट के प्रदेश से गुज़र रहे थे। सभी हिन्दू दरबारी अपने परिवार के साथ गंगा स्नान और विश्वनाथ दर्शन के लिए काशी आए। विश्वनाथ दर्शन कर जब लोग बाहर आए तो पता चला कि कच्छ के राजा की एक रानी ग़ायब हैं। खोज की गई तो मंदिर के नीचे तहखाने में वस्त्राभूषण विहीन, भय से त्रस्त रानी दिखाई पड़ीं। जब औरंगज़ेब को पंडों की यह काली करतूत पता चली तो वह बहुत क्रुद्ध हुआ और बोला कि जहां मंदिर के गर्भ गृह के नीचे इस प्रकार की डकैती और बलात्कार हो, वो निस्संदेह ईश्वर का घर नहीं हो सकता। उसने मंदिर को तुरंत ध्वस्त करने का आदेश जारी कर दिया।
विश्वंभर नाथ पांडेय आगे लिखते हैं कि औरंगज़ेब के आदेश का तत्काल पालन हुआ लेकिन जब यह बात कच्छ की रानी ने सुनी तो उन्होंने उसके पास संदेश भिजवाया कि इसमें मंदिर का क्या दोष है, दोषी तो वहां के पंडे हैं. वो लिखते हैं, "रानी ने इच्छा प्रकट की कि मंदिर को दोबारा बनवा दिया जाए। औरंगज़ेब के लिए अपने धार्मिक विश्वास के कारण, फिर से नया मंदिर बनवाना संभव नहीं था। इसलिए उसने मंदिर की जगह मस्जिद खड़ी करके रानी की इच्छा पूरी की।"
प्रोफ़ेसर राजीव द्विवेदी समेत कई अन्य इतिहासकार भी इस घटना की पुष्टि करते हैं और कहते हैं कि औरंगज़ेब का यह फ़रमान हिन्दू विरोध या फिर हिन्दुओं के प्रति किसी घृणा की वजह से नहीं बल्कि उन पंडों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा था जिन्होंने कच्छ की रानी के साथ दुर्व्यवहार किया था। प्रोफ़ेसर हेरंब चतुर्वेदी कहते हैं कि कच्छ के राजा कोई और नहीं बल्कि आमेर के कछवाहा शासक थे।
प्रोफ़ेसर चतुर्वेदी कहते हैं कि मंदिर गिराने का आदेश औरंगज़ेब ने दिया था लेकिन मंदिर को गिराने का काम कछवाहा शासक राजा जय सिंह की देख-रेख में किया गया था।
प्रोफ़ेसर चतुर्वेदी कहते हैं, "स्वर्ण मंदिर में जो ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ था उसके आलोक में हमें इस घटना को देखना चाहिए। मंदिर तोड़ने पर जैसा रोष तत्कालीन हिन्दू समाज पर हुआ होगा वैसा ही ऑपरेशन ब्लू स्टार का सिख समाज में हुआ और उसका हश्र, इंदिरा गांधी ने भुगता। यह इतिहास ही नहीं, इतिहास समझने की दृष्टि भी है।"
1991 से पहले की याचिकाएं
इस वर्ष अप्रैल में वाराणसी की एक निचली अदालत ने पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को ज्ञानवापी परिसर के सर्वेक्षण का आदेश दिया था। ये आदेश उन याचिकाओं पर दिए गए थे जो साल 1991 में दायर की गईं और उसी साल संसद ने उपासना स्थल क़ानून बनाया।
18 सितंबर 1991 में बने इस क़ानून के मुताबिक, 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता और यदि कोई ऐसा करने की कोशिश करता है तो उसे एक से तीन साल तक की जेल और जुर्माना हो सकता है. चूंकि, अयोध्या से जुड़ा मुक़दमा आज़ादी के पहले से अदालत में लंबित था, इसलिए अयोध्या मामले को इस क़ानून के दायरे से बाहर रखा गया था।
स्थानीय लोगों के मुताबिक मंदिर-मस्जिद को लेकर कई बार विवाद हुए हैं लेकिन ये विवाद आज़ादी से पहले के हैं, उसके बाद के नहीं। ज़्यादातर विवाद मस्जिद परिसर के बाहर मंदिर के इलाक़े में नमाज़ पढ़ने को लेकर हुए थे। सबसे अहम विवाद साल 1809 में हुआ था जिसकी वजह से सांप्रदायिक दंगे भी हुए थे।
वाराणसी में पत्रकार अजय सिंह बताते हैं, "1991 के क़ानून के बाद मस्जिद के चारों ओर लोहे की चहारदीवारी बना दी गई। हालांकि उसके पहले यहां किसी तरह के क़ानूनी या फिर सांप्रदायिक विवाद की कोई घटना सामने नहीं आई थी।" मस्जिद की इंतज़ामिया कमेटी के संयुक्त सचिव सैयद मोहम्मद यासीन भी इस बात की पुष्टि करते हैं।
यासीन कहते हैं, "साल 1937 में फ़ैसले के तहत मस्जिद का एरिया एक बीघा, नौ बिस्वा और छह धूर तय किया गया था लेकिन 1991 में सिर्फ़ मस्जिद के निर्माण क्षेत्र को ही घेरा गया और अब मस्जिद के हिस्से में उतना ही क्षेत्र है। यह कितना है, इसकी कभी नाप-जोख नहीं की गई है। विवाद हमारे जानने में कभी हुआ ही नहीं. यहां तक कि ऐसे भी मौक़े आए कि ज़ुमे की नमाज़ और शिवरात्रि एक ही दिन पड़ी, लेकिन तब भी सब कुछ शांतिपूर्वक रहा।"
साल 1991 में सर्वेक्षण के लिए अदालत में याचिका दायर करने वाले हरिहर पांडेय बताते हैं, "साल 1991 में हम तीन लोगों ने ये मुक़दमा दाख़िल किया था। मेरे अलावा सोमनाथ व्यास और संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे रामरंग शर्मा थे। ये दोनों लोग अब जीवित नहीं हैं।"
इस मुक़दमे के दाख़िल होने के कुछ दिनों बाद ही मस्जिद प्रबंधन कमेटी ने केंद्र सरकार की ओर से बनाए गए उपासना स्थल क़ानून, 1991 का हवाला देकर इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने साल 1993 में स्टे लगाकर यथास्थिति क़ायम रखने का आदेश दिया था लेकिन स्टे ऑर्डर की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद साल 2019 में वाराणसी कोर्ट में फिर से इस मामले में सुनवाई शुरू हुई और इसी सुनवाई के बाद मस्जिद परिसर के पुरातात्विक सर्वेक्षण की मंज़ूरी दी गई।