जापान: दुनिया में सबसे ज़्यादा कर्ज़ होने के बावजूद कैसे टिका है ये देश?

BBC Hindi
रविवार, 22 जनवरी 2023 (08:07 IST)
क्रिस्टीना जे. ओरगेज़, बीबीसी न्यूज़ वर्ल्ड
पिछले साल सितंबर के आख़िरी दिनों में जापान एक ऐसे आंकड़े की तरफ बढ़ रहा था, जिसे देखकर दुनिया के किसी देश में खलबली मच जाती। ये ऐसा आंकड़ा था, जिसे आने वाले दिनों में लगातार बढ़ते जाना था। वो आंकड़ा था जापान के ऊपर कर्ज़ का। 9.2 ट्रिलियन डॉलर। ये जापान पर कर्ज़ की राशि है, जो उसके जीडीपी से 266 फ़ीसदी ज़्यादा है।
 
इसकी तुलना में अगर दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति अमेरिका के ऊपर कर्ज़ देखें, तो ये 31 ट्रिलियन डॉलर है। लेकिन अमेरिका के लिए राहत ये है, कि कर्ज़ की ये राशि उसकी जीडीपी का 98 फ़ीसदी ही है।
 
जापान पर भारी भरकम कर्ज़ के पीछे जो सबसे बड़ी वजह है वो ये है, कि अपनी अर्थव्यस्था में गति बनाए रखने के लिए उसने दशकों तक घरेलू खर्चे में ज्यादा पैसा लगाया।
 
लेकिन जापान की आर्थिक उन्नति के दो अहम पक्ष नागरिक और कारोबार हैं जो सरकार के खर्चों को लेकर ज़्यादा उत्साह नहीं दिखाते, फिर भी सरकार उनके लिए ख़र्च करती है।
 
इसे लेकर 'पीटरसन इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल इकॉनोमिक्स' के सीनियर फेलो ताकेशी ताशीरो कहते हैं, "यहां लोगों की बचत बहुत ज़्यादा है और निवेश उतना ही कम। इसलिए यहां डिमांड बहुत ही कमज़ोर है। इसलिए सरकार की तरफ़ से 'आर्थिक प्रोत्साहन' की ज़रूरत पड़ती है।"
 
ताकेशी ताशीरो आगे बताते हैं, "इस समस्या की वजहों में से एक है जापान जनसंख्या स्थिति। यहां के लोग ज़्यादा लंबी उम्र तक जीते हैं। इसकी वजह से सोशल सिक्योरिटी और हेल्थ केयर पर ख़र्च ज़्यादा होता है।"
 
जापान के लोग इसी वजह से अपने भविष्य को लेकर ज्यादा आशंकित होते हैं और रिटायर होने से पहले तक जितना ज़्यादा हो सके, उतनी ज़्यादा बचत पर ज़ोर देते हैं।
 
ताकेशी बताते हैं, "लोगों की उम्र अभी आगे और भी बढ़ेगी और इसके साथ ये समस्या भी लंबे समय तक बनी रहेगी।"
 
लेकिन दिलचस्प ये भी है, कि दुनिया में सबसे ज़्यादा कर्ज़ में डूबे होने के बावजूद जापान पर अंतरराष्ट्रीय निवेशकों का भरोसा ज़बरदस्त है। हर साल जापान को 'ऋण ख़रीद' के ज़रिए ये पैसे उधार देते हैं।
 
कर्ज़ और निवेश के समीकरण को कैसे समझें?
जापान पर कर्ज़ का बोझ 1990 के दशक में तेज़ी से बढ़ना शुरू हुआ, क्योंकि इस दौरान वित्तीय और रियल एस्टेट कारोबार में में भारी गिरावट दर्ज की गई। फिर भी, 1991 में जीडीपी और कर्ज़ अनुपात 39 फ़ीसदी ही था।
 
लेकिन इसके बाद से अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर लगातार कम होती गई। इससे सरकार की आय कम होती गई। इस दौर की स्थिति ने सरकार को खर्च बढ़ाने के लिए मजबूर किया।
 
इस तरह साल 2000 तक जापान पर कर्ज़ उसकी जीडीपी के बराबर हो गया और दस साल बाद 2010 में जापान पर कर्ज़ जीडीपी से दोगुना यानी 200 फ़ीसदी हो गया।
 
इसके बाद दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी इकॉनोमी वाले जापान को 'आर्थिक प्रोत्साहन' का सहारा लेना पड़ा। सबसे पहले 2008 की वैश्विक मंदी के दौरान। उसके बाद 2011 के फुकुशिमा भूकंप और उसके बाद सुनामी और हाल ही में कोविड महामारी। इस दौरान जापान ने बड़े आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज का ऐलान किया।
 
ख़र्चे के लिए वित्तीय मदद
मंदी से लेकर महामारी और प्राकृतिक आपदा की हालत में जापान ने भी दुनिया के दूसरे देशों की तरह ही कदम उठाए। जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य और रक्षा मामलों में जरूरी ख़र्च (बजट) को पूरा करने के लिए बॉन्ड्स को बेचना। ताकि इन मदों में ख़र्च के लिए पैसे पूरे हो सकें।
 
दूसरे शब्दों में कहें तो जापान अंतरराष्ट्रीय बाज़ार से इस वादे पर कर्ज़ उठाता है कि निवेशकों को उनके पूरे पैसे थोड़े फ़ायदे के साथ लौटा देगा।
 
स्थिर और आकर्षक निवेश
जापान के इस वादे के बाद निवेशक इसे पैसे देते हैं, खासतौर पर वो पुराने ख़्यालात वाले निवेशक जिन्हें मामूली फ़ायदे में भी अपना पैसा सुरक्षित दिखता है।
 
ताशीरो बताते हैं, "जापान को बड़े पैमाने पर कर्ज़ मिलने के पीछे है, विकसित देश होने के नाते यहां के बॉन्ड की ज़्यादा वैल्यू। ये कर्ज़ के बदले बेहतर सिक्योरिटी की तरह काम करता है।"
 
फिर भी, जापान पर जिस तरह कर्ज़ की राशि इसके जीडीपी से ढाई गुनी से ज़्यादा हो चुकी है, इस भारी भरकम रकम को वापस चुकाना सरकार के लिए बड़ी चुनौती होगी।
 
जानकार मानते हैं अगर इतने लंबे समय से जापान को अगर कर्ज़ मिलता रहा, तो इसके पीछे 2 बड़ी वजहें हैं। एक तो जापान किसी भी कर्ज़ पर डिफ़ॉल्टर साबित नहीं हुआ। और दूसरा इसने बेहद कम ब्याज पर सरकारी बॉन्ड्स के ज़रिए लोन लिया। इसकी वजह से निवेशकों को कम पैसा चुकाना पड़ा और बाज़ार का भरोसा भी ज़्यादा जीता।
 
न्यूज़ एजेंसी एएफपी के अर्थशास्त्री शिगेटो नागाई बताते हैं, "ऐसे निवेशकों की बाज़ार में कमी नहीं, जो मुनाफ़े से ज्यादा अपने पैसे की सुरक्षा को तवज्जो देते हैं। इसीलिए वो अपनी बचत के निवेश के लिए जापान को चुनते हैं।"
 
मैसेचुसेट्स्ट के विलियम्स कॉलेज में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर केन कटनर बताते हैं, "जापान ने कर्ज़ पर ब्याज की दर कम रखी। इसलिए कर्ज़ की राशि बहुत बड़ी होने के बावजूद सरकार को ब्याज के रूप में बहुत कम राशि चुकानी पड़ती है। इस तरीके से जापान, भारी कर्ज़ के साथ भी अनिश्चित काल तक टिका रह सकता है"
 
कम ब्याज का भुगतान
एक ख़ास बात ये भी है, कि जापान दूसरे देशों की मुद्रा में कर्ज़ नहीं लेता, बल्कि उसका सारा कर्ज़ उसकी अपनी मुद्रा येन में है। इसकी वजह से जापान का सेंट्रल बैंक अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में गिरावट से कम प्रभावित होता है।
 
जापान पर कर्ज़ का 90 फ़ीसदी हिस्सा जापानी निवेशकों का है।
 
केन कटनर आगे बताते हैं, "जापान पर कुल कर्ज़ में विदेशियों का हिस्सा ज़्यादा नहीं है। आख़िरी बार जब मैंने चेक किया था तो ये 8 फ़ीसदी के करीब था। इसमें ज्यादातर हिस्सा जापानी वित्तीय संस्थाओं और बैंक ऑफ जापान का है। इससे सरकारी घाटे का मुद्रीकरण हो जाता है। "
 
यानी जापान सरकार कर्ज़ के लिए अपने बॉन्ड बेचती है, जिसे वहां का केन्द्रीय बैंक ख़रीदता है।
 
केन केटनर कहते हैं, "आर्थिक प्रोत्साहन पॉलिसी के तहत बैंक ऑफ जापान सरकार के कर्ज़ का बड़ा हिस्सा खरीदता है, जिससे लंबे समय वाले ब्याज की दर कम रहती है और इससे अर्थव्यवस्था में भी तेज़ी बनी रहती है।" इस तरह बाकी दुनिया में जब ब्याज की दर लगातार बढ़ रही होती है, तब भी जापान में ये कम रहती है।
 
इन्वेस्टमेंट फ़र्म जुलियस बायेर के अर्थशास्त्री डेविड कोहली बताते हैं, "जापान में ये मुमकिन हो पाता है सरकार और इसके केन्द्रीय बैंक के बीच तालमेल की बेहतरीन नीतियों की बदौलत। साथ ही यहां के लोगों और निजी कंपनियों की 'डिफ्लेशन मेंटालिटी' भी इसमें मददगार होती है।"
 

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