बजट 2021: क्या देश को मुश्किलों से बाहर निकाल पाएगी सरकार?

Webdunia
सोमवार, 1 फ़रवरी 2021 (08:16 IST)
ज़ुबैर अहमद, बीबीसी संवाददाता
सोमवार को इस साल का केंद्रीय बजट ऐसे समय में पेश किया जाएगा जब आधिकारिक तौर पर भारत पहली बार आर्थिक मंदी के दौर से गुज़र रहा है।
 
आकलन है कि वित्त वर्ष 2020-21 का अंत अर्थव्यवस्था के 7।7 प्रतिशत तक सिकुड़ने के साथ पूरा होगा।
 
हालांकि दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे पटरी पर लौट रही है और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार साल 2021-22 में विकास दर 11 प्रतिशत से अधिक होने की आशा है लेकिन पर्यवेक्षकों ने चेतावनी दी है कि अगर इस बजट में सरकार ने भारी मात्रा में स्पेंडिंग नहीं की तो अर्थव्यवस्था को विकास के पथ पर वापस लाने में दिक़्क़त होगी।
 
लंबे समय से साल दर साल बजट का विश्लेषण करने वाले वरिष्ठ पत्रकार प्रिया रंजन दास, ज़ोर देकर कहते हैं कि ये "समय बड़े फ़ैसलों का है।"
 
बजट की तैयारियाँ जारी हैं। नए आइडिया पर बात हो रही है। सरकारी सूत्रों ने पुष्टि की है कि कोरोना कर पर गंभीरता से विचार हो रहा है और ये "अधिकतम तीन साल" के लिए लगाया जा सकता है। सूत्र कहते हैं, "कॉर्पोरेट क्षेत्र के लिए यह कर टैक्स देने वाले आम लोगों से अधिक हो सकता है।"
 
सरकार के सामने समस्याएँ अनेक
आज़ाद भारत में शायद ही किसी भी वित्त मंत्री को इतनी अधिक और इतनी जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ा होगा जितना निर्मला सीतारमण को सामना करना पड़ रहा है।
 
उनकी दिक़्क़तों पर ज़रा ग़ौर करें - ताज़ा बजट कोरोना महामारी के कारण पैदा हुई परिस्थिति के बीच तैयार किया जा रहा है। देश की अर्थव्यवस्था की स्थिति डांवाडोल है। कोरोना के कारण 1।5 लाख से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है और एक करोड़ से अधिक लोग संक्रमित हो चुके हैं। सरकार के सामने कमज़ोर सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था का पुनर्निर्माण करना है। देश की राजधानी की सीमा पर दो महीनों से किसान कृषि बिल के विरोध में प्रदर्शन कर रहे हैं। चीन के साथ सीमा पर तनाव महीनों से जारी है। और सबसे अहम बात यह है कि सरकारी ख़ज़ाने में पैसे नहीं हैं।
 
निर्मला सीतारमण ने वादा किया है कि इस बार का बजट का सबसे अलग होगा, इस सदी का सबसे बेहतर। लेकिन ये तो 1 फ़रवरी को समझ में आएगा कि उनके दावों में कितना दम है।
 
लेकिन अर्थशास्त्रियों के बीच इस बात पर आम सहमति है कि बजट कोई जादू की छड़ी नहीं होती है।
 
मुंबई स्थित चूड़ीवाला सिक्योरिटीज़ के अध्यक्ष आलोक चूड़ीवाला का कहना है कि महामारी के प्रभाव से जूझने के लिए एक बजट पर्याप्त नहीं है।
 
वो कहते हैं, "किसी भी टूटी हुई अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण में एक लंबा समय लगता है, लेकिन अगर हमारा इरादा सही है और हम सही फ़ैसले ले रहे हैं इसका पता एक बजट में चल जाता है।"
 
प्रिया रंजन दास को इस बार के बजट से बहुत ज़्यादा उम्मीद नहीं है क्योंकि उनका मानना है कि बजट के बारे में उम्मीदें अधिक है।
 
वो कहते हैं, "मुझे बहुत उम्मीद नहीं है। मुझे हेडलाइन मैनेजमेंट ज़्यादा दिखाई दे रहा है। सदी के सबसे अच्छे बजट को पेश करने जैसे वित्त मंत्री के बयान हल्के शब्द हैं। मुझे इस सरकार से अर्थव्यवस्था के कुशल प्रबंधन और वर्तमान चुनौतियों में खरा उतरने की उम्मीद नहीं है।"
 
वो कहते हैं कि आम तौर पर बजट जितना ही आर्थिक विकास के बारे में होता है उतना ही केंद्र सरकार की तरफ़ से दिया गया एक सियासी बयान भी होता है। ये भी आम बात है कि हर साल बजट के सारे वादे पूरे नहीं होते।
 
वो कहते हैं कि "बजट से पहले वित्त मंत्री ने सभी उचित बातें ही कही हैं। उन्होंने कहा है कि उनकी प्राथमिकताएं विकास को पुनर्जीवित करना, महामारी प्रभावित क्षेत्रों में सहायता प्रदान करना और रोज़गार के अवसर पैदा करना हैं।"
 
लेकिन इन इरादों को अमल में लाना कितना मुश्किल होगा? दूसरे शब्दों में, उन्हें बजट के लिए किन प्रमुख चुनौतियों का सामना करना है?
 
रिकॉर्ड बेरोज़गारी
कुछ आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक रोज़गार के नए अवसर पैदा करना है। रिकॉर्ड के लिए, साल 2012 में देश में बेरोज़गारी दर दो प्रतिशत थी। आज यह 9।1 प्रतिशत है। बेशक यह समस्या दुनिया भर में है लेकिन कई देशों ने बेरोज़गारी से निपटने के लिए उचित कदम उठाए हैं।
 
प्रिया रंजन दास कहते हैं कि रिकॉर्ड बेरोज़गारी की समस्या का हल निकालना वित्त मंत्री का सबसे बड़ा सिरदर्द है। वह कहते हैं, "सबसे बड़ी चुनौती ये तथ्य है कि नीति निर्माता बेरोज़गारी को एक बड़ी चुनौती के रूप में मान्यता नहीं देते हैं। ये वर्तमान में रिकॉर्ड स्तर पर है। ये Covid-19 के पहले ही 45 साल के रिकॉर्ड स्तर पर था। और महामारी के बाद और भी बिगड़ गया है।"
 
केंद्र सरकार का तर्क है कि बेरोज़गारी की समस्या वर्षों से जारी है और यह कोई नई बात नहीं है। प्रिया रंजन दास कहते हैं, "इसलिए सरकार इस समस्या का मुक़ाबला करने वाली नहीं है क्योंकि ये इसे गंभीरता से नहीं ले रही है। असली चुनौती तेज़ी से बढ़ती बेरोज़गारी है। हाँ, यह वर्षों से एक समस्या है लेकिन कोविड-19 के कारण ये हमारी सबसे बड़ी समस्या बन गई है।"
 
आलोक चूड़ीवाला भी बेरोज़गारी को एक बहुत ही गंभीर चुनौती मानते हैं। उनके अनुसार लॉकडाउन के दौरान कई लाख मज़दूर अपने घरों को वापिस लौट गए जिनमें से अधिकांश अब भी काम पर वापस नहीं लौटे हैं।
 
उनका कहना है कि इन मज़दूरों को उनके गाँवों में रोज़गार देना या उनकी शहरों में नौकरियों में वापसी सरकार की एक बड़ी चुनौती होगी।
 
मंदी से अच्छी गति से कैसे उबरें और आगे बढ़ें
प्रिया रंजन दास कहते हैं कि महामारी से हुए नुक़सान से उबरना और विकास दर को गति देना वित्त मंत्री की दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है। रेटिंग एजेंसी क्रिसिल का अनुमान है कि लॉकडाउन और महामारी के कारण भारत ने अपने सकल घरेलू उत्पाद का चार प्रतिशत खो दिया है।
 
कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि महामारी से पहले अर्थव्यवस्था जहाँ थी, इसे वहां तक पहुँचने के लिए तीन साल तक निरंतर 8।5 प्रतिशत वृद्धि की ज़रूरत होगी।
 
आलोक चूड़ीवाला कहते हैं कि वित्त मंत्री के सामने मुख्य चुनौती ये है कि अर्थव्यवस्था को विकास के रास्ते पर फिर से कैसे लाया जाए।
 
वह कहते हैं, "ऐसा करने के लिए, सरकार को बजट में एक बड़े आर्थिक पैकेज के साथ आने की ज़रूरत है जिससे बड़े पैमाने पर मांग को बढ़ावा मिल सकेगा।"
 
अब तक कोरोना महामारी के असर से लड़ने में सरकार आर्थिक रूप से अनुदार रही है और उसने बेहद सावधान से कदम बढ़ाए हैं। अधिकतर आर्थिक विशेषज्ञों का तर्क है कि मोदी सरकार के लिए राजकोषीय अनुशासन के बारे में बहुत अधिक परवाह किए बिना बड़े पैमाने पर ख़र्च करने की ज़रुरत है।
 
वित्तीय मामलों के विशेषज्ञ और पत्रकार आशीष चक्रवर्ती कहते हैं, "ये असाधारण समय हैं और केवल भारत में नहीं बल्कि दुनिया में हर जगह है। सरकार अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों की चिंता न करे। बस ख़र्च करें। ग़रीबों और छोटे व्यवसाय वालों के पॉकेट में पैसे आने चाहिए। रेटिंग एजेंसियाँ हमारे वित्तीय अनुशासन पर सवाल उठाएंगी। लेकिन अगले तीन-चार साल तक हमें उन्हें अनदेखा करना चाहिए।"
 
वह कहते हैं, "निर्मला सीतारमण को इस बजट को पहले के सालों से अलग कर के देखना चाहिए। हम 2020 में बहुत हाथ रोक कर ख़र्च कर रहे थे। लेकिन जैसा कि लोगों को डर था इससे मांग को बढ़ाने में मदद नहीं मिली और खपत (consumption) लगातार सुस्त रही है।"
 
हालांकि चक्रवर्ती की सलाह अंधाधुंध ख़र्च करने की नहीं है।
 
जैसा कि वो कहते हैं, "मैं बिना सोचे समझे खर्च की वकालत कतई नहीं कर रहा हूं। मैं स्मार्ट तरीके लेकिन तुरंत ख़र्च करने का बात पर ज़ोर दे रहा हूं ताकि हम मार्केट में मांग उत्पन्न कर सकें, सकारात्मकता फैला सकें और खपत पैदा कर सकें। फिलहाल के लिए ख़र्च करना आर्थिक विकास का प्रमुख चालक होगा।"
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल मई में 20 लाख करोड़ रुपये ख़र्च करने की घोषणा की थी और इसे स्टिमुलस पैकेज कहा था। जनधन और दूसरी योजनाओं के तहत सरकार ने हाशिये पर रह रहे ग़रीबों के खातों में कुछ पैसे डाले लेकिन इससे मांग बढ़ने वाली नहीं थी क्योंकि मदद की राशि बहुत कम थी और ये समाज के सभी ग़रीबों को नहीं मिली।
 
छोटे व्यापारियों को कोई मदद नहीं मिली। बाद में बैंकों में नकदी तो आई लेकिन छोटे व्यापारियों को इतना नुक़सान हुआ था कि वो बैंकों से क़र्ज़ लेने की स्थिति में भी नहीं थे।
 
इसके अलावा, छोटे और मध्यम व्यवसायों को जो मिला, वह कुछ प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की तरह, एक बार की नकद सहायता भी नहीं थी, लेकिन सरकारी प्रयासों ने उनके लिए बाज़ार में पर्याप्त तरलता पैदा की।
 
चक्रवर्ती कहते हैं, "सरकार के पैकेज का फोकस सप्लाई साइड को मज़बूत करना था जो इसने किया भी। लेकिन डिमांड साइड पर ध्यान नहीं दिया गया। और जैसा कि आप देख सकते हैं कि इस तरह के धूमधाम के साथ लॉन्च किए गए आर्थिक पैकेज ने मांग को आगे नहीं बढ़ाया। वित्त मंत्री को मांग को बड़े पैमाने पर बढ़ाने की ज़रुरत है।"
 
दास का तर्क है कि किसी भी नकद पैकेज को रोज़गार से जोड़ा जाना चाहिए। वो कहते हैं, "जैसे कि ग्रामीण इलाकों के ग़रीब मज़दूरों के लिए मनरेगा योजना है जिसके तहत तीन महीने की रोज़गार की गारंटी है।"
 
मूल न्यूनतम सार्वभौमिक आय
प्रिया रंजन दास का कहना है कि सरकार को हिम्मत दिखानी चाहिए और ये मान कर बजट बनाना चाहिए कि विभिन्न-कुशल वाले श्रमिकों के लिए बुनियादी न्यूनतम सार्वभौमिक आय योजना को शुरू करने का ये सबसे अच्छा समय है।
 
वो कहते हैं, "ये एक साहसिक क़दम ज़रूर होगा लेकिन सही क़दम होगा। बैंक खातों में नकद मदद भेजने की ज़रुरत नहीं है। ये मनरेगा की तरह एक रोज़गार गारंटी योजना से जुड़ा होना चाहिए।"
 
मनरेगा के तहत मज़दूरी के बदले मज़दूरों के खातों में सीधे पैसे जा रहे हैं। वो कहते हैं, "प्रस्तावित योजना कौशल के विभिन्न स्तरों के श्रमिकों और ग्रामीण और शहरी श्रमिकों के लिए होनी चाहिए। और वर्ष में 100 दिनों के लिए रोज़गार की गारंटी हो"।
 
उनका मानना है कि अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति है तो वित्त मंत्री ऐसा कर सकती हैं।
 
वो कहते हैं, "देखिये भारत के पास दुनिया के सबसे बड़े गारंटी देने वाले रोज़गार कार्यक्रम मनरेगा को लागू करने और इसे सालों से चलाने का अनुभव है और ये ऐसी योजना है जिसने ग़रीबी रेखा के नीचे से 17 करोड़ लोगों के जीवनस्तर को बेहतर करने योगदान दिया है। हमारे पास तजुर्बा है, हम इस तरह की दूसरी योजना भी शुरू कर सकते हैं।"
 
पैसे कहाँ से आएँगे?
क्या संसाधन इस सुझाव में रोड़ा साबित हो सकता है? प्रिया रंजन दास ऐसा नहीं मानते। वो कहते हैं, "सरकार संसाधन जुटा सकती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेल की कम कीमतों के दौरान भारत सरकार ने चुपचाप अतिरिक्त उत्पाद शुल्क के माध्यम से 20 लाख करोड़ रुपये जुटाए हैं। हमें दिमाग़ लगा कर सोचने की ज़रुरत है। संसाधन जुटाना कई साल पहले एक बड़ी समस्या हुआ करती थी लेकिन अब ऐसा नहीं है।"
 
वो अपने तर्क के पक्ष में कहते हैं, "यदि आप 20 लाख करोड़ रुपये के आत्मनिर्भारता पैकेज (12 मई 2020 को इसकी घोषणा प्रधानमंत्री ने की थी) को देखें तो आप समझ जाएंगे कि संसाधन समस्या नहीं हैं। यदि आपके पास इच्छाशक्ति है तो आप संसाधन जुटा सकते हैं।"
 
भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार केवी सुब्रमण्यम ने पिछले साल जुलाई में कहा था कि जब कोरोना के टीके उपलब्ध होंगे तो एक भारी स्टिमुलस पैकेज के लिए सही समय होगा। फेडरेशन ऑफ इंडियन चैम्बर्स ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (FICCI) द्वारा आयोजित एक वेबिनार में, उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि ये 'अगर' का प्रश्न नहीं था, ये 'कब' का सवाल है।
 
अब भारत में कोरोना का टीका लोगों को दिया जा रहा है और चक्रवर्ती को उम्मीद है कि वित्त मंत्री "एक बड़े पैकेज का एलान कर सकती हैं।"
 
हालांकि आलोक चुड़ीवाला मानते हैं कि नकदी के लिए सरकार के पास सीमित विकल्प हैं।
 
वो कहते हैं "सरकार के पास नकदी की समस्या है। सरकार को हर क़दम फूंक-फूंक कर आगे बढ़ाना पड़ेगा। आय कर नहीं बढ़ाना चाहिए। शायद कोरोना टैक्स सही होगा क्योंकि हमें अगले कुछ सालों में ढेर सारे पैसे चाहिए।"
 
आम तौर से केंद्र सरकार के पास पैसे कमाने के पांच मुख्य ज़रिए होते हैं - (1) जीएसटी से 18।5 प्रतिशत, (2) कॉर्पोरेट टैक्स से 18।1 प्रतिशत, (3) व्यक्तिगत आयकर से 17 प्रतिशत, (4) एक्साइज़ ड्यूटी से 11 प्रतिशत और (5) सीमा शुल्क से 5।7 प्रतिशत।
 
पिछले कुछ महीनों में जीएसटी संग्रह में तेज़ी आई है। सरकार को व्यक्तिगत आयकर को बढ़ाने के बजाय और अधिक लोगों से टैक्स वसूली करने की ज़रुरत है।
 
केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (CBDT) द्वारा जारी किए गए 2018-19 की टैक्स ब्रेकअप पर एक रिपोर्ट के अनुसार 5।78 करोड़ लोगों ने अपना आयकर रिटर्न दाख़िल किये थे जिनमें से लगभग 1।46 करोड़ लोगों ने टैक्स दिए।
 
लगभग 1 करोड़ लोगों ने 5-10 लाख रुपये के बीच टैक्स दिए और बाक़ी 46 लाख व्यक्तिगत करदाताओं ने 10 लाख रुपये से ऊपर की आय पर टैक्स दिया। लगभग 135 करोड़ लोगों के देश में वास्तव में करों का भुगतान करने वालों की संख्या इतनी नगण्य है।
 
यदि सरकार कोरोना-टैक्स लगाने का फ़ैसला करती है तो इसका बोझ करदाताओं के इस छोटे समूह पर पड़ेगा।
 
विनिवेश और निजीकरण लक्ष्य
सरकार के लिए पैसे कमाने के और भी तरीके हैं। अगर निर्मला सीतारमण चाहें तो पब्लिक सर्विस अंडरटेकिंग्स में स्टेक्स बेचकर, एयर इंडिया जैसी कुछ कंपनियों का निजीकरण करके और सरकारी प्राइम प्रॉपर्टीज को नीलाम करके अरबों रुपये हासिल कर सकती हैं। वित्तीय मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि इस बार के बजट में विनिवेश और निजीकरण पर काफ़ी ज़ोर होगा।
 
लेकिन सरकार इस क्षेत्र में अब तक बहुत कामयाब नहीं रही है। पिछले साल के बजट में सरकार ने विनिवेश और निजीकरण से कमाने का लक्ष्य 215 लाख करोड़ रुपये रखा था लेकिन केवल 30,000 करोड़ रुपये का ही विनिवेश हो सका। महामारी इसका बड़ा कारण था लेकिन इसके पहले वाले सालों में भी सरकार ने अपना लक्ष्य हासिल नहीं किया था। इस साल के बजट में विनिवेश, निजीकरण और सरकारी संपत्तियों की नीलामी के प्रावधान से सरकारी हलकों में उम्मीद पैदा हुई है कि इससे सरकारी ख़ज़ाने में पैसे आएंगे।
 
वित्त मंत्रालय के एक सूत्र ने हाल ही में बीबीसी को बताया, "विनिवेश पर अधिक ध्यान दिया जाएगा, जिसका पैमाना शायद पहले कभी नहीं देखा गया है"।
 
आलोक चुड़ीवाला इस तथ्य पर अफ़सोस जताते हैं कि मोदी सरकार विनिवेश लक्ष्यों को हासिल करने में अक्सर नाकाम रही है लेकिन इस बार उन्हें यक़ीन है कि ये लक्ष्य पूरा होगा क्योंकि इसे नकदी की ज़रूरत है और इसलिए भी कि ये अधिक राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखा रही है
 
प्रिया रंजन दास को सरकार में विनिवेश के लिए उच्च लक्ष्य से कोई शिकायत नहीं।
 
वह कहते हैं, "किसी भी सरकार के तहत विनिवेश लक्ष्य पूरा नहीं किया जाता है। लेकिन उच्च लक्ष्य करने में कोई बुराई नहीं है। यह संसाधन जुटाने का एक तरीका है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण नहीं है।"
 
सरकारी की थिंक टैंक नीति आयोग ने विनिवेश के लिए 50 से अधिक सरकारी कंपनियों के निजीकरण और विनिवेश की सिफ़ारिश की है।
 
क्या कोरोना टैक्स लगाना एक चुनौती होगी?
आलोक चुड़ीवाला मानते हैं कि पैसे जुटाने के लिए अगर सरकार कोरोना-टैक्स लगाने के बारे में फ़ैसला करती है तो इससे कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
 
प्रिया रंजन दास भी कहते हैं कि वो कोरोना-टैक्स देने से पीछे नहीं हटेंगे। वो कहते हैं, "शिक्षा टैक्स कामयाब रहा है। कोरोना-टैक्स हमारे स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को बेहतर बनाने और टीकाकरण अभियान को आगे बढ़ाने में मदद करेगा। जब आप स्वास्थ्य संकट के बीच होते हैं तो इसके लिए ख़र्च में वृद्धि को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए। मैं कोरोना-टैक्स के पक्ष में हूं।"
 
लेकिन वित्त मंत्रालय ने इस पर अभी निर्णय नहीं लिया है। फ़िलहाल इस पर विचार विमर्श जारी है।

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