दक्षिण कोरिया में कैसी है मुसलमानों की ज़िंदगी?

Webdunia
शुक्रवार, 5 जनवरी 2018 (11:24 IST)
इस्लाम कोरियाई प्रायद्वीप में काफ़ी देर से पहुंचा। इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि दक्षिण कोरिया की पहली पहली मस्जिद 1976 में बनकर तैयार हुई। पिउ रिसर्च की एक रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर कोरिया में साल 2010 में मुसलमानों की आबादी क़रीब 3,000 थी तो दक्षिण कोरिया में 76,000 थी।
 
 
हालांकि कोरियाई मुसलमानों की ज़िंदगी बाक़ी दुनिया के लिए ये एक रहस्य जैसा ही है। यूट्यूब पर वीडियो शोज़ पेश करने वाले चैनल जेटीबीसी इंटरटेनमेंट ने हाल ही में अपने प्रोग्राम 'एब्नॉर्मल समिट' में इसी सवाल पर एक शो किया।
 
शो में दो मुसलमानों ने शिरकत किया जिनमें एक कोरियाई मूल की मुसलमान लड़की ओला थीं तो दूसरे पाकिस्तानी मूल के ज़ाहिद हुसैन। दोनों के सामने एक सवाल रखा गया, कोरिया में एक मुसलमान की ज़िंदगी कैसी है?
 
 
ज़ाहिद की बात
ज़ाहिद बताते हैं कि इंटरनेट पर कुछ कॉमेंट्स देखकर उन्हें इस्लाम के बारे में लोगों का नज़रिया देखकर काफ़ी हैरत हुई। "अगर तुम हलाल गोश्त खाना चाहते हो तो अपने मुल्क जाओ। यहां पर क्या कर रहे हो, मैंने इस तरह के कई कॉमेंट्स देखे।"
 
"कुछ अच्छे कॉमेंट्स भी थे। जैसे किसी ने लिखा कि सभी मुसलमान चरमपंथी नहीं होते लेकिन सभी चरमपंथी मुसलमान होते हैं। मुझे नहीं लगता कि वे इसे समझते भी हैं।" "मुझे लगता है कि जब लोग एक दूसरे की संस्कृतियों को समझने लगेंगे तो हालात बदलेंगे।"
 
 
क्या कहती हैं ओला
ओला बोरा सॉन्ग ने साल 2007 में ही इस्लाम को अपना लिया था। तब उनकी उम्र दस बरस थी। उन्हें इस बात का अफ़सोस है कि कोरिया लोगों और इस्लाम के बीच काफी दूरियां हैं। इन दूरियों की वजह से ग़लतफ़हमियां पैदा हुई हैं।
 
"रोज़मर्रा की ज़िंदगी में मुसलमानों के बारे में जानने-समझने का मौका कम ही मिलता है क्योंकि कोरिया में मुसलमानों की संख्या कोई बहुत ज़्यादा नहीं है।"
 
 
"हम मुसलमानों के बारे में जो कुछ सुनते हैं, उसका ज़रिया अक्सर ख़बरें होती हैं, लेकिन मुसलमानों का ख़बरों में आना किसी दुर्घटना की वजह से होता है।" "और यही वजह है कि मुसलमानों के बारे में नकारात्मक छवि मज़बूत होती चली जाती है।"
 
"कोरियाई लोग इस्लाम को एक ऐसे धर्म के तौर पर देखते हैं जो महिलाओं को कमतर करके आंकता है, हिजाब के इस्तेमाल को बढ़ावा देता है।"
 
 
इस्लाम की परिभाषा
ज़ाहिद का कहना है कि इस्लाम की परिभाषा को कथित इस्लामिक संगठन के चरमपंथियों से जोड़ना ठीक नहीं है। "चरमपंथ कोई देश नहीं है, कोई संस्कृति नहीं है और न ही कोई धर्म। बस कुछ लोग इसके ज़रिए पैसा कमा रहे हैं।
 
"चरमपंथ की परिभाषा भी राजनीतिक वजहों से बदल जाती है। ये परिभाषा इतनी लचीली है कि एक जैसी घटना कहीं पर 'टेरर' हो जाती है तो कहीं 'शूटिंग'।"
 
 
क्या कहते हैं आंकड़ें
अमेरिकी खुफ़िया संस्था एफबीआई के आंकड़े कहते हैं कि साल 1980 से साल 2005 के बीच हुए 94 फ़ीसदी चरमपंथी हमलों में ग़ैर-मुसलमान शामिल थे। यूरोपोल के आंकड़ों के मुताबिक़ साल 2009 में यूरोप में 249, साल 2010 में 294 चरमपंथी हमले हुए।
 
इनमें 2009 में केवल एक हमले में संदेह किसी मुसलमान पर गया और 2010 में तीन घटनाओं में मुसलमानों के शामिल होने की बात सामने आई। दुनिया भर में होने वाली चरमपंथी घटनाओं के बारे में जानकारी इकट्ठा करने वाले संगठन ग्लोबल टेररिज़्म डेटाबेस के मुताबिक़ साल 1970 के बाद से 1,70,000 चरमपंथी घटनाएं हुई हैं।
 
 
ज़ाहिद सवाल उठाते हैं कि दुनिया में मुसलमानों की आबादी क़रीब 1।8 अरब है और थोड़े से मुसलमानों के कामों के लिए पूरे मुस्लिम समाज को ज़िम्मेदार ठहराना कितना जायज है। 'एब्नॉर्मल समिट' शो में ओला बोरा सॉन्ग और ज़ाहिद की इस मुलाकात में मुसलमानों के बीच प्रचलित बहुविवाह की प्रथा से लेकर हिजाब पहनने के रिवाज़ पर भी बात हुई।

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