20 साल पहले की फ़िल्म ने कामकाजी दफ़्तरों को कितना बदला?

Webdunia
शनिवार, 9 फ़रवरी 2019 (11:06 IST)
- ब्रायन लुफ़किन 
 
"ऑफिस स्पेस" फ़िल्म ने कॉरपोरेट जगत के बनावटीपन को उघेड़कर रख दिया था। इस महीने यह फ़िल्म 20 साल पूरे कर रही है। इसे दोबारा देखने से पता चलता है कि ऑफिस की संस्कृति कितनी बदली है और कितनी नहीं बदली।
 
 
इस फ़िल्म के लेखक और निर्देशक माइक जज थे। यह फ़िल्म एक युवा सॉफ्टवेयर इंजीनियर पीटर गिबन्स (रॉन लिविंगस्टोन) के बारे में है। पीटर की सैलरी कम है। वह निराश और हताश है। नौकरी का असंतोष उसे अपने मैनेजरों और कॉरपोरेट अमेरिका के ख़िलाफ बागी बना देता है।
 
 
उसका गुस्सा ऑफिस प्रिंटर पर निकलता है, जिसे वह तोड़ने का प्रयास करता है। कंपनी के बैंक खातों को हैक करके वह लाखों डॉलर चुराने की कोशिश करता है। पीटर की गर्लफ्रेंड जोआना (जेनिफ़र एनिस्टन) को भी अपनी वेट्रेस की नौकरी से नफ़रत है।
 
 
फ़िल्म का संदेश वही देती है। वह कहती है, "पीटर, ज़्यादातर लोग अपनी नौकरियों को पसंद नहीं करते। लेकिन आप वहां जाते हैं और कुछ ऐसा पाते हैं जिससे आपको खुशी मिलती है।"
 
 
1999 में "ऑफिस स्पेस" के रिलीज़ होने के बाद से हम दफ़्तर की ज़िंदगी के बेतुके पहलुओं के बारे में बहुत कुछ जान चुके हैं। उनको दूर करने में हम कितने क़ामयाब हो पाए हैं? क्या इसके लिए उस फ़िल्म को धन्यवाद देना चाहिए?
 
 
दफ़्तरों में क्या बदला?
स्कॉट एडम्स की कॉमिक स्ट्रिप "दिलबर्ट" 1989 में शुरू हुई थी। 2001 में बीबीसी ने टीवी कॉमेडी शो "द ऑफिस" का मूल संस्करण शुरू किया था। इन दोनों में आधुनिक दफ़्तर के तत्वों- अयोग्य प्रबंधकों, सुन्न पड़ी नौकरशाही, जबरन की पार्टियों, दोहराव वाले कार्यों और शब्द-आडंबर से भरे ज्ञापनों (जिनको कोई नहीं पढ़ता) का मजाक उड़ाया गया।
 
 
"ऑफिस स्पेस" फ़िल्म शारीरिक और बौद्धिक एकरसता बनाने वाले काम को ख़ारिज करती है। इस संदर्भ में यह आसानी से देखा जा सकता है कि आज की कितनी कंपनियों ने स्टैंडिंग डेस्क, ध्यान और योग रूम को प्राथमिकता दी है।
 
 
एकरसता ख़त्म करने के लिए कुछ दफ़्तरों में पालतू कुत्ते को लाने की भी आज़ादी मिली है। ऑफिस के जिस पहलू को अब हम दूर करने की कोशिश करते हैं, फ़िल्म में उसका प्रतिनिधित्व पीटर के बॉस बिल लंबर्ग (गैरी कोल) ने किया था।
 
 
सोने के फ्रेम वाला चश्मा और पैस्ले टाई पहनने वाला लंबर्ग हर समय कॉफ़ी पीता रहता है। फ़िल्म में वह लालच का प्रतिनिधि है। लंबर्ग को अपने अधीन काम करने वालों की परवाह नहीं होती। शनिवार की एक सुबह वह पीटर को 17 मैसेज भेजकर काम पर आने के लिए परेशान करता है।
 
 
पीटर की बगावत यहीं से शुरू होती है। वह बॉस की बातों की परवाह करना बंद कर देता है। वह देर से ऑफिस आने लगता है। टाई और ट्राउजर छोड़कर टी-शर्ट और सैंडल में ऑफिस आता है। वह अपने डेस्क पर ही खुलेआम टेट्रिस (गेम) खेलता है और अपने क्यूबिकल को तोड़ देता है।
 
 
पीटर के इस नये व्यवहार पर कंपनी के बाहर से लाए गए दो सलाहकारों, बॉब और बॉब (जॉन सी मैकिंग्ले और पॉल विल्सन) की नज़र पड़ती है। इन दोनों को फालतू कर्मचारियों की छंटनी के लिए लाया गया है। वे पीटर के कई सहकर्मियों को निकाल देते हैं, लेकिन पीटर के व्यवहार में उनको ताज़ी हवा का अहसास मिलता है और वे उसे मैनेजमेंट में बड़ा पद संभालने लायक बताते हैं।
 
 
रास्ता दिखाने वाली फ़िल्म!
इस तरह यह फिल्म भविष्यदर्शी है। आज कई टेक कंपनियों के सीईओ पीटर को फॉलो करते दिखते हैं। 2000 के दशक के अंत और 2010 के दशक की शुरुआत में सिलिकॉन वैली की कई स्टार्ट-अप कंपनियों के प्रमुखों ने सूट पहनना छोड़ दिया और ऑफिस में आज़ादी और क्रिएटिव होने की वकालत की।
 
 
केबिन और क्यूबिकल की जगह ओपन-एयर ऑफिस बनाए जा रहे हैं। कॉरपोरेट दफ़तरों में बीन बैग और पिंग-पांग टेबल भी लग रहे हैं। मार्क ज़करबर्ग जैसे बड़े बिजनेस लीडर औपचारिक कपड़ों की जगह हुडीज़ और जींस को तरजीह दे रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसा "ऑफिस स्पेस" के पीटर ने किया था।
 
 
बदलाव कपड़े तक सीमित नहीं है। ज़करबर्ग और उनकी तरह के बिजनेस लीडर ने ऑफिस के नीरस काम से पीछा छुड़ा लिया है। कॉरपोरेट जीवन के तिरस्कार और नई टेक्नोलॉज़ी ने गिग इकोनॉमी (अल्पकालीन कांट्रैक्ट और फ्रीलांस वाली अर्थव्यवस्था) में अपनी जगह बना ली है और अपने खुद के बॉस बनने के मौके बढ़ाए हैं।
 
 
इसके नकारात्मक पहलू भी हैं। काम करने के नये तरीके ने पुराने खांचों को तोड़ दिया है, लेकिन इसने धकियाकर आगे बढ़ने की एक नई संस्कृति भी विकसित की है। यह नई संस्कृति उद्यमियों और स्वतंत्र श्रमिकों को खुद को झोंके रखने के लिए उकसाती है। पहले यह काम लंबर्ग जैसे बॉस करते थे। इस तरह "ऑफिस स्पेस" में जिन समस्याओं को दिखाया गया था उनमें से कई आज भी मौजूद हैं, बस उनका रूप बदल गया है।
 
 
क्या नहीं बदला?
फ़िल्म में की गई अधिकांश टिप्पणियां आज भी सही हैं। इससे लगता है कि दफ़्तरों में कर्मचारियों को परेशान करने वाली कुछ समस्याएं समय से परे हैं। कुछ उपाय कृत्रिम से लगते हैं। ऑफिस के कर्मचारी उनको खोखला और कंपनी का एक और बोझ समझ लेते हैं, जैसा कि फ़िल्म में शुक्रवार को हवाई स्टाइल शर्ट पहनने के फ़ैसले के साथ होता है।
 
 
जब तक एचआर और मैनेजमेंट वास्तव में लचीलेपन को बढ़ावा देने वाली नीतियां लागू नहीं करते, तब तक वे खोखले ही हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ड्रेस कोड कितना अनौपचारिक है या ऑफिस में कितने प्ले-एरिया हैं। आज भी कई ऑफिस "कंपनी फ़र्स्ट" वाले निर्देशों से पीड़ित हैं, जिनका "ऑफिस स्पेस" फ़िल्म में मजाक उड़ाया गया था।
 
 
हाल की रिपोर्टों से पता चलता है कि फ़ेसबुक के कुछ कर्मचारी अपनी कंपनी की संस्कृति को किसी पंथ जैसा देखते हैं, जबकि इस कंपनी ने ऐतिहासिक रूप से कॉरपोरेट संस्कृति को तोड़ा है। टेस्ला के सीईओ एलन मस्क ने पिछले साल जब यह ट्वीट किया कि "हफ़्ते में सिर्फ़ 40 घंटे काम करके किसी ने दुनिया नहीं बदली है" तो उनका भारी आलोचना हुई।
 
 
मस्क ने असल में बड़े मकसद के लिए और लोगों को ज़्यादा काम करने के लिए प्रेरित करने की खातिर यह बात कही थी। फ़िल्म में उजागर की गई प्रबंधन की कुछ अन्य समस्याएं अब भी मौजूद हैं।
 
 
उदाहरण के लिए, दो में से एक बॉब गोरे मैनेजरों को बताता है कि वह पीटर के साथी समीर नागीनांजर (अजय नायडू) को निकालना चाहता है। वह समीर के नाम का मजाक उड़ाता है और यह दिखाने की कोशिश करता है कि वह काम का आदमी नहीं है।
 
 
आज जबकि छोटी और बड़ी सभी कंपनियां विविधता और समावेशिता बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं, इस तरह का नस्लवाद भी मौजूद है। दोनों बॉब कहते हैं कि वे किसी भी कर्मचारी के सामने यह नहीं बताएंगे कि उनको निकाला जा रहा है। वे कहते हैं, "जहां तक संभव हो, हम टकराव से बचना पसंद करते हैं।"
 
 
नया जमाना पुरानी समस्याएं
आमने-सामने की असहज चर्चा से बचना आज पहले से कहीं ज़्यादा आसान है। टेक्नोलॉजी ने इसे आसान कर दिया है। ईमेल या वॉयसमेल, टेक्स्ट या ट्वीट से कर्मचारियों को नौकरी से निकालने की घोषणा करने के लिए कंपनियों की आलोचना भी होती है।
 
 
कॉरपोरेट संगठनों के प्रति गुस्सा, जिसने पीटर और उसके दोस्तों को उकसाया था, आज भी बरकरार है। फ़िल्म के क्लाइमैक्स में पीटर और उसके साथी कंपनी के बैंक खाते को हैक करके पैसे निकालने की कोशिश करते हैं ताकि उनको फिर से क्यूबिकल में न बैठना पड़े।
 
 
वे अपनी कंपनी को भ्रष्ट और अन्यायी समझते हैं और उसे मिटाने के लिए कानून तोड़ने के लिए भी तैयार हैं। हाल के मीडिया कार्यक्रमों में भी ऐसे दृश्य सामने आए हैं, जहां पूंजीवाद और एक फीसदी अमीर लोगों को कसूरवार दिखाया जाता है। नये हिट शो "मिस्टर रोबोट" में भी कुछ ऐसा ही है।
 
 
फ़िल्म की विरासत
बॉक्स ऑफिस पर वह फ़िल्म बहुत क़ामयाब नहीं थी, लेकिन दो दशकों में वह लोकप्रिय हो गई। इन 20 वर्षों में बहुत कुछ हुआ है। इसी दौरान वैश्विक वित्तीय संकट आया है जिसने नीरस नौकरियों की भी पूछ बढ़ा दी।
 
 
इस फ़िल्म को 2019 में देखने से पता चलता है कि हमने क्या बदला और क्या बदलने की कोशिश की, भले ही कुछ बदलाव सतही हों। फिर भी इस फ़िल्म की मुख्य थीम एक सवाल उठाती है- क्या आप सच में एक ऐसी नौकरी ढूंढ़ सकते हैं जिससे आपको प्यार हो?
 
 
यह सवाल काम और ज़िंदगी के संतुलन और इनाम देने वाले करियर के बारे में चर्चा को बढ़ाते हैं, जो आज भी जारी है। शायद यह चर्चा तब तक चलती रहेगी, जब तक नौकरियां बचेंगी।
 
 
फ़िल्म के अंत में जब आग लगने के कारण कंपनी बंद हो जाती है तब पीटर एक निर्माण मज़दूर बन जाता है। जब वह अपनी कंपनी की राख खोद रहा होता है तो वह कहता है कि उसका नया काम बुरा नहीं है। वह पैसे कमाने, कसरत हो जाने और दफ़्तर से बाहर काम करने की बात करता है।
 
 
सौभाग्य से, उसके अपराध की कोशिश नाकाम हो जाती है, उसे सबक मिल जाता है और कंपनी को फटकार लगती है। "ऑफिस स्पेस" फ़िल्म हमें याद दिलाती है कि भले ही कोई भी नौकरी संपूर्ण नहीं है, खामियों की जांच करना हमेशा सार्थक होता है।
 

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