लोकतंत्र का तिरस्कार करने वाले कैसे लोकतांत्रिक नेता

Webdunia
शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2019 (14:27 IST)
क्या ऐसा भी लोकतंत्र हो सकता है जो उदार ना हो? क्या उसमें मानवाधिकारों की अनदेखी की जा सकती है? यूरोपीय संघ के कई नेता आपस में ऐसे ही सवाल कर रहे हैं। अतिथि समीक्षक आलेक्जांडर गोएरलाख का विश्लेषण।
 
 
आजकल के राजनीतिक परिदृश्य में दिखने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप से लेकर ऑस्ट्रियाई गृहमंत्री हेरबेर्ट किकल जैसे कई अतिवादी किस्म के नेता मानते हैं कि राजनीति में केवल सबसे योग्य ही बचता है। इनके लिए सबसे पहले उनके अपने लक्ष्य आते हैं, और बाकी सब उसके बाद। ऐसी सोच गलती से नहीं बन गई है बल्कि समझी बूझी सोच है। इसका उद्देश्य है अपने लक्ष्यों को लोगों की मर्जी के तौर पर दिखाना। इन नेताओं के लिए गणराज्य का अर्थ बहुमत की इच्छाओं को कानून में बदलना है। यानि जो लोग बहुमत में हैं, नियम कानून भी उन्हीं का चलेगा।
 
 
लोकतंत्र को तुच्छ मानना
जाहिर है आम लोग अकेले अपने दम पर तो ऐसा नहीं कर सकते। इसीलिए वे अपने "सच्चे" प्रतिनिधियों को राज चलाने के लिए चुनते हैं। ऐसा कोई भी जो इस तरह के सहजीवी संबंध में बाधा बनता है, वो "विदेशी एजेंट" कहलाता है जिसका कोई काम नहीं। इस शैली की राजनीति का समर्थन करने वाले नेता की छवि अकसर "ताकतवर" नेता की बन जाती है लेकिन असर में वे लोग हैं जो लोकतंत्र को तुच्छ मानते हैं। वे मानते भी हैं कि उनके गणतंत्र का रूप उदार नहीं बल्कि कठोर है। ऑस्ट्रिया के गृहमंत्री किकल ने ऐसे विध्वंसकारी रुझान साफ दिखाए हैं।
 
 
किकल जैसे नेताओं के दिमाग में "उदारता" को नकारने का मतलब लोकतंत्र के उस रूप का बहिष्कार करना है जिसने पिछले 70 सालों में पूरे विश्व में मजबूती से जगह बनाई है। लेकिन उनका नजरिया केवल लोकतंत्र के उस मानक से थोड़ा अलग होना नहीं है। कोई डेमोक्रेसी या तो उदार होगी या वो डेमोक्रेसी ही नहीं है। अनुदार या संकुचित लोकतंत्र जैसी कोई चीज नहीं होती। आज लोकतंत्र का मतलब होना चाहिए एक ऐसी व्यवस्था जहां सब कानून का पालन करें ना कि जहां सबसे ताकतवर की ही चलती हो। सभी लोकतंत्र मानव अधिकारों को महत्व देते हैं और समझते हैं कि सरकार के किसी भी कदम से उसका हनन नहीं होना चाहिए बल्कि सरकारी कदम उसके पक्ष में होने चाहिए। आखिर लोकतांत्रिक देशों के संविधान में भी तो मानव अधिकारों को ही दर्ज किया गया है। यह वो गारंटी है जो राज्य अपने नागरिकों को देता है।
 
 
इस मॉडल का अनुदार रूप आखिर कैसा दिख सकता है? क्या ऑस्ट्रिया में केवल उसी व्यक्ति के मानवाधिकार हैं जो ऑर्गेनिक चीजें खरीदता है? या फिर मुसलमानों के लिए धार्मिक आजादी अवरुद्ध हो? जहां एलजीबीटी (समलिंगी, उभयलिंगी, ट्रांसजैंडर या अन्य लैंगिकता वाले) समुदाय के लोगों के लिए शहर में इलाके बंटे हों?
 
 
यह कहना केवल लोकलुभावन बयानबाजी है कि किसी जगह की संस्कृति एकरूप ही हो सकती है और बहुसांस्कृतिक होना उसके पतन की निशानी है। ऐसी भावनाएं फैलाने वाले समाज में जिस नेता की सबसे ज्यादा प्रशंसा होती हैं, उनमें से एक हैं रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन। एक ऐसे नेता जो मानव अधिकारों की खुद ज्यादा परवाह नहीं करते, ऐसी सरकार के मुखिया हैं जो पत्रकारों, असंतुष्टों और भिन्न लैंगिक वरीयता वाले लोगों को प्रताड़ित करती है। यह कहना मुश्किल होगा कि पुतिन की शासन शैली से प्रभावित दिखने वाले ऑस्ट्रिया, हंगरी या पोलैंड जैसे देशों में भी आगे ऐसी हरकतें नहीं दिखने लगेंगी।
 
 
कोई 'शक्ति' नहीं ऐसे ताकतवर बनने में
ऐसी कई वजहें हैं जिसके कारण आम लोग ऐसी ताकतवर छवि वालों को चुनती हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण तो ये है कि असल में ये लोग बिल्कुल भी ताकतवर नहीं होते। मिसाल के तौर पर रूसी राष्ट्रपति पुतिन, तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोवान या फिर तेजी से इसी राह पर बढ़ते चीनीराष्ट्रपति शी जिनपिंग को ही लीजिए। साफ पता चलता है कि कैसे इन नेताओं के दुनिया को लेकर नजरिये ने उनके अपने देशों की मुद्राओं को गहरा नुकसान पहुंचाया है और राज्य को मुश्किल हालातों में ढकेल दिया है।
 
 
वहीं दूसरी ओर, जिन देशों ने बीते 70 साल लोकतंत्र के रूप में बिताए हैं, वो उनके लिए संपन्नता और सुरक्षा ही लेकर आए हैं। ऐसा हो सका क्योंकि वहां कानून का राज रहा ना कि किसी तथाकथित "सबसे ताकतवर" व्यक्ति का। लोकतंत्र में सहभागिता किसी व्यक्ति की त्वचा के रंग या उसके धर्म पर निर्भर नहीं करती। संविधान इसकी गारंटी देता है और सबको आशावादिता के साथ जीने का आधार देता है। अगर दुनिया भर के ऐसे तथाकथित बाहुबली लोगों को बांट कर, जंगल के कानून का बोलबाला होते देखना चाहते हैं, तो अच्छा होगा कि ऐसों को उनकी गुफा में अकेले ही वापस भेज दिया जाए!
 
 
आलेक्जांडर गोएरलाख ब्रिटेन के कैंब्रिज विश्वविद्यालय के इंस्टीटयूट ऑन रिलीजन एंड इंटरनेशनल स्टडीज में वरिष्ठ रिसर्च एसोसिएट हैं। वे कार्नेगी काउंसिल फॉर एथिक्स इन इंटरनेशनल अफेयर्स के वरिष्ठ फेलो भी हैं। वे हार्वर्ड विश्वविद्यालय से भी कई भूमिकाओं में जुड़े रहे हैं। एक समीक्षक के रूप में वे डॉयचे वेले, न्यू यॉर्क टाइम्स, स्विस दैनिक और बिजनेस पत्रिकाओं के लिए कॉलम भी लिखते हैं।
 

सम्बंधित जानकारी

Show comments
सभी देखें

जरूर पढ़ें

मेघालय में जल संकट से निपटने में होगा एआई का इस्तेमाल

भारत: क्या है परिसीमन जिसे लेकर हो रहा है विवाद

जर्मनी: हर 2 दिन में पार्टनर के हाथों मरती है एक महिला

ज्यादा बच्चे क्यों पैदा करवाना चाहते हैं भारत के ये राज्य?

बिहार के सरकारी स्कूलों में अब होगी बच्चों की डिजिटल हाजिरी

सभी देखें

समाचार

ये है मुंबई का सबसे लंबा डिजिटल अरेस्ट, 1 महीने वॉट्सऐप कॉल पर रखा, 6 खातों से लूटे 3.8 करोड़

LIVE: अब संस्कृत, मैथिली में भी होगा भारत का संविधान, राष्ट्रपति ने संविधान दिवस पर जारी किया खास सिक्का

चंडीगढ़ में 2 क्लबों के बाहर धमाके, बाइक सवारों ने फेंके विस्फोटक

अगला लेख