प्रवीण शर्मा, बीबीसी हिंदी के लिए
देश में तेल की कीमतों के रिकॉर्ड पर पहुंचने के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार को कहा है कि अगर पिछली सरकारों ने भारत की ऊर्जा आयात पर निर्भरता को कम करने पर गौर किया होता तो आज मध्यम वर्ग पर इतना बोझ नहीं पड़ता।
तमिलनाडु में ऑयल एंड गैस प्रोजेक्ट्स का उद्घाटन करने के लिए आयोजित एक ऑनलाइन कार्यक्रम में उन्होंने कहा, "क्या भारत जैसे एक विविध और सक्षम देश को एनर्जी इंपोर्ट पर निर्भर होना चाहिए? मैं किसी की आलोचना नहीं करना चाहता, लेकिन मैं चाहता हूं कि अगर हमने इस मसले पर पहले फोकस किया होता तो हमारे मध्यम वर्ग को बोझ नहीं सहना पड़ता।"
देश में कुछ जगहों पर पेट्रोल के दाम 100 रुपए प्रति लीटर तक पहुंच गए हैं। पिछले कई दिनों से लगातार तेल कंपनियां तेल की कीमतें बढ़ा रही हैं।
दिल्ली में शुक्रवार को पेट्रोल की क़ीमत में प्रति लीटर 31 पैसे की बढ़ोतरी हुई और एक लीटर पेट्रोल 90.19 रुपए में मिल रहा है। दिल्ली में डीज़ल की क़ीमत भी प्रति लीटर 80.60 रुपए हो गई है।
कांग्रेस समेत विपक्षी पार्टियां तेल की ऊंची कीमतों के लिए सरकार को ज़िम्मेदार ठहरा रही हैं। इस बात पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं कि भारत में तेल पर जितना भारी टैक्स लगाया जा रहा है क्या उसके लिए पिछली सरकारें जिम्मेदार हैं।
साथ ही यह भी सवाल पैदा हो रहे हैं कि क्या तेल की खपत को हतोत्साहित करना एक नीति है?
तेल पर भारी टैक्स
तेल और गैस मामलों के जानकार रणवीर नैय्यर कहते हैं, "ये एक टिपिकल मोदी स्पीच है। इसमें कुछ हद तक सच्चाई है, लेकिन झूठ ज़्यादा है।" वो कहते हैं कि 2013 तक पेट्रोल पर केंद्र और राज्यों के टैक्स मिलाकर क़रीब 44 फ़ीसदी तक होता था। अब ये टैक्स 100-110 फ़ीसदी तक कर दिया गया है।
नैय्यर पूछते हैं, "मनमोहन सिंह की सरकार के वक्त क्रूड के इंटरनेशनल प्राइसेज़ 120 डॉलर पर चले गए थे। तब भी भारत में पेट्रोल इतना महंगा नहीं था। आज अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमत 63 डॉलर पर है और पेट्रोल 100 रुपए पर पहुंच गया है। तो क्या इसके लिए पिछली सरकारें जिम्मेदार हैं?"
हालांकि, अभी ब्रेंट क्रूड का दाम क़रीब 63 डॉलर प्रति बैरल पर ही चल रहा है और यह पिछले साल के मुक़ाबले क़रीब दोगुना हो गया है, लेकिन न पिछले साल तेल की क़ीमतें कम हुईं और न ही इस साल इनमें कोई कमी आई।
2015 से ही अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमतें कम हैं, लेकिन भारत में पेट्रोल और डीज़ल की कीमतों में लगातार इज़ाफा ही हुआ है।
नैय्यर कहते हैं, "दुनिया के किसी भी देश में शायद ही पेट्रोल पर इतना भारी टैक्स लगता हो। मसलन, तेल पर यूके में 61 फ़ीसदी, फ्रांस में 59 और यूएस में 21 फ़ीसदी टैक्स लगता है।"
देश में वित्तीय घाटे की भरपाई करने के लिए सरकार तेल पर भारी टैक्स लगा रही है। नायर कहते हैं कि सरकार अब तक 20 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा इस मद से ख़जाने में जमा कर चुकी है।
तेल के आयात पर निर्भरता कम करने के लिए पेट्रोल में एथेनॉल मिलाने का कार्यक्रम भी शुरू किया गया था। मौजूदा वक्त में पेट्रोल में 8.5 फ़ीसदी एथेनॉल मिलाया जाता है और सरकार का टार्गेट 2025 तक इसे बढ़ाकर 20 फीसदी पर पहुंचाने का है। एथेनॉल को गन्ने से निकाला जाता है। ऐसे में इससे कच्चे तेल का आयात घटाने और किसानों को अतिरिक्त आय देने में भी मदद मिल सकती है।
क्या है वजह?
पीडब्ल्यूसी में तेल और गैस सेक्टर के लीडर दीपक माहुरकर कहते हैं, "मौजूदा आर्थिक हालात में सरकार को पैसों की ज़रूरत है और पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स टैक्स जुटाने का सबसे बढ़िया जरिया हैं। ऐसे में आप कह सकते हैं कि तेल पर ऊंचा टैक्स जारी रहेगा।"
वो कहते हैं कि तेल की क़ीमतें बढ़ने के बावजूद बाज़ार में इसकी खपत कम नहीं हुई है, इस वजह से भी सरकार इसकी कीमतें कम नहीं करना चाहती है।
अब कोरोना महामारी के बाद चीन में आर्थिक ग्रोथ में तेज़ी आ रही और वहां मांग भी बढ़ रही है। इसके अलावा सऊदी अरब समेत कच्चे तेल का उत्पादन कर रहे देशों के संगठन (ओपेक) ने भी कच्चे तेल के उत्पादन में कटौती का फै़सला किया है और इन वजहों के चलते तेल की क़ीमतें बढ़ रही हैं।
नैय्यर कहते हैं कि भारत में तेल की ऊंची कीमतों की अधिक बड़ी वजह घरेलू टैक्स हैं।
तेल खोजने के काम में बढ़ोतरी नहीं
तेल के आयात पर निर्भरता कम करने का एक तरीका देश में ही कच्चे तेल के भंडार की खोज करना और तेल और गैस के कुओं का विकास करना है।
माहुरकर कहते हैं, "एनडीए की सरकार को सत्ता में आए सात साल का वक्त हो चुका है। इस दौरान काफी-कुछ किया गया है लेकिन, देश में कच्चे तेल के नए भंडार और इसके उत्पादन में ज़्यादा इज़ाफा नहीं हुआ है।"
वो कहते हैं कि तेल के एक कुएं का पूर तरह से विकास करने में पांच-सात साल का वक्त लगता है। आने वाले पांच-छह साल तक भी उत्पादन में कोई इज़ाफा होने की संभावना नहीं दिखती।
माहुरकर कहते हैं, "सरकार ने उत्पादन बढ़ाने के लिए बहुत काम किए हैं, लेकिन अंडरग्राउंड डेटा, बिजनेस कॉन्फिडेंस और टैक्स को लेकर स्पष्टता जैसी चीजें अभी भी नहीं हैं।"
नैय्यर कहते हैं, "कच्चे तेल के नए भंडार खोजने पर अधिक काम नहीं होने की ज़िम्मेदारी पिछली सरकारों पर नहीं डाली जा सकती है।"
अभी भी तेल और गैस सेक्टर में कई क़ानूनी विवाद फंसे हुए हैं। रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स को लेकर विदेशी कंपनियां भी डरी हुई हैं और इसके चलते निवेश में कारोबारियों को दिक्कतें आ रही हैं।
माहुरकर कहते हैं, "तेल और गैस सेक्टर को जीएसटी में नहीं लाया गया है और इस वजह से भी कंपनियां भारत से दूरी बनाए हुए हैं।"
क्या पेट्रोल, डीज़ल की खपत को हतोत्साहित करना सही नीति हो सकती है?
नैय्यर कहते हैं, "मोदी सरकार तेल की ऊंची कीमतों को एक पनिशमेंट के तौर पर इस्तेमाल कर रही है। क्या ये नीति सही है?"
भारत में अमीरों और गरीबों के बीच एक बड़ी खाई है। अमीरों पर तेल के दाम में होने वाले इज़ाफे का कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन दूसरी ओर वो वर्ग भी है जो बेहद ग़रीब है और जिसके पास गाड़ियां नहीं हैं। तेल की क़ीमतों में बढ़ोतरी का सीधा और सबसे ज़्यादा असर इस वर्ग पर पड़ता है।
वो कहते हैं, "मध्यम वर्ग और ग़रीबों पर महंगे तेल का बड़ा असर होता है। क्योंकि परिवहन लागत बढ़ने से आम ज़रूरत की चीज़ों के दाम बढ़ जाते हैं।"
हालांकि, वो ये भी कहते हैं कि लोगों को इस तरह से तेल खरीदने से रोकने की पॉलिसी ग़लत है। देश में सार्वजनिक परिवहन की हालत उतनी मज़बूत नहीं है जिससे लोग तेल की महंगाई की मार झेल पाएं।
तेल का इस्तेमाल कम करने की आर्थिक लागत क्या होगी?
महंगे तेल का सीधे तौर पर असर महंगाई पर पड़ता है। रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया पहले ही महंगाई बढ़ने की चेतावनी दे चुका है।
इस साल जनवरी में थोक मूल्य सूचकांक (होलसेल प्राइस इंडेक्स या डब्ल्यूपीआई) बढ़कर 2 फ़ीसदी पर पहुंच गया। दिसंबर में ये 1।2 फ़ीसदी था। हालांकि, रिटेल या खुदरा महंगाई दर जनवरी में गिरकर 4।1 फीसदी पर आ गई थी। लेकिन, इस बात की उम्मीद कम ही है कि रिज़र्व बैंक (आरबीआई) पॉलिसी रेट्स में कोई कटौती करेगा।
महामारी के चलते अर्थव्यवस्था पहले से ही सुस्ती के दौर में है। अब इसमें कुछ रिकवरी दिखाई दे रही है। जानकारों का मानना है कि ऐसे में तेल की ऊंची कीमतें इसे फिर से डिप्रेशन में ले जा सकती हैं।
नैय्यर कहते हैं, "पिछले साल सरकार ने जो आर्थिक पैकेज दिया था, कंपनियों ने उसका इस्तेमाल अपने कर्ज़ को कम करने में किया है। उन्होंने कोई नया निवेश नहीं किया है।"
वो कहते हैं, "तेल की कीमतों को ऊंचा रखना काउंटर प्रोडक्टिव साबित हो सकता है।"
आर्थिक नीतियों को लेकर सरकार में स्पष्टता नहीं?
जानकार मानते हैं कि आर्थिक नीतियों को लेकर सरकार की सोच स्पष्ट नहीं है। नैय्यर कहते हैं कि सरकार तेल की क़ीमतें बढ़ा रही है। इसका असर ऑटोमोबाइल सेक्टर पर पड़ेगा। वे पूछते हैं, "अगर लोग गाड़ियां खरीदना बंद कर देंगे तो ऑटोमोबाइल जैसा बड़ा सेक्टर मंदी में नहीं चला जाएगा?"
दूसरी ओर, सरकार की ग्रीन व्हीकल्स यानी इलेक्ट्रिक व्हीकल्स (ईवी) को प्रोत्साहन की नीति भले ही बढ़िया है, लेकिन सरकार खुद इसका टारगेट 2035 लेकर चल रही है।
नैय्यर कहते हैं, "ईवी को अपनाने में लोगों को अभी बहुत वक्त लगेगा। ईवी को लेकर सरकार का टार्गेट 2050 में भी पूरा हो जाए तो बड़ी बात है।"
साथ ही, प्रदूषण के लिए गाड़ियों के अलावा भी कई और फैक्टर जिम्मेदार हैं। इसमें पावर प्रोडक्शन एक बड़ी वजह है। माहुरकर कहते हैं कि देश की तेल पर निर्भरता आने वाले 10-15 साल तक खत्म नहीं की जा सकती है। वे कहते हैं तब तक शायद तेल पर निर्भरता भी बहुत कम हो जाए।
नैय्यर कहते हैं, "सरकार की आर्थिक नीतियों में एकरूपता का अभाव है और उसे एक कॉम्प्रिहैंसिव पॉलिसी पर काम करना होगा।"
माहुरकर कहते हैं कि ऑयल पर निर्भरता कम करना फायदेमंद विकल्प है और निश्चित तौर पर ऐसा किया भी जा सकता है।
वो कहते हैं कि ईंधन के लिए सौर ऊर्जा, वायु ऊर्जा और हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर पर निर्भर किया जा सकता है। कई देश ऐसा करने में सफल भी हो रहे हैं।