राजस्थान में बीजेपी ने वसुंधरा के बदले भजनलाल शर्मा को क्यों चुना?

BBC Hindi
बुधवार, 13 दिसंबर 2023 (07:58 IST)
त्रिभुवन, वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
भजनलाल शर्मा, मुख्यमंत्री राजस्थान सरकार। भाजपा विधायक दल के नेता। यह नाम न किसी के ख़याल में था और न किसी तरह के क़यास ही में कभी सुना गया था, वही नाम सामने आया।
 
भाजपा के बड़े नेताओं के चेहरों में हैरानियों के हुजूम तैर रहे थे। ख़ासकर जिन्हें लग रहा था कि वह तो इस बार बन ही जाएंगे, उन्हें मुख्यमंत्री बनने वाले भजनलाल के इस अनाम से नाम ने सबको हैरान कर दिया।
 
सोमवार को जिस समय मध्य प्रदेश में मोहन यादव को मुख्यमंत्री घोषित किया गया तो राजस्थान भाजपा के भीतरी गलियारों में एक नाम शुरू हुआ कि इस तरह तो हमारे भजनलाल शर्मा भी मुख्यमंत्री बन सकते हैं। तर्क दिया गया कि अब तक उत्तर भारत में भाजपा का कोई भी मुख्यमंत्री ब्राह्मण नहीं है।
 
इस पर मुख्यमंत्री पद के कई दावेदारों के बहुत क़रीबी भी हँसने लगे। लेकिन सुबह होते-होते भजनलाल शर्मा का नाम सोशल मीडिया में आगे आने लगा था, जिस पर शायद ही किसी को एकबारगी भरोसा हुआ।
 
पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे नहीं तो केंद्रीय मंत्री गजेंद्रसिंह शेखावत होते या दीयाकुमारी या अर्जुन मेघवाल या ओम बिड़ला, भले चर्चित नामों में से कोई भी होता तो यह इतना हैरानी वाला नहीं होता; लेकिन भजनलाल शर्मा का नाम आने लगा तो किसी का दिल मानने को तैयार नहीं था कि इस सियासी सफ़र का अगुआ यही होंगे। और जो हर भाजपा नेताओं को हर तरह से रास आने लगे थे, अब वही नाम दूर हो गए हैं।
 
मोदी और शाह की भाजपा ने जो परिदृश्य बनाया है, उसमें उम्र-भर की जो प्यास रहे थे, वही नाम अब सबसे पिछड़ गए हैं।
 
बीजेपी ने सांगानेर का टिकट देकर चौंकाया
भजनलाल के नाम ने इन चुनावों में सबसे पहले तब चौंकाया, जब उन्हें सांगानेर से टिकट दिया गया। सांगानेर के तत्कालीन विधायक और भाजपा नेता अशोक लाहोटी और उनके समर्थकों ने इस नाम का भारी विरोध किया और भाजपा मुख्यालय पर प्रदर्शन तक किया। लेकिन किसी ने उनकी सुनी नहीं।
 
उस समय सांगानेर सीट से भाजपा के दावेदार शर्मा को काग़ज़ी नेता बताते हुए उनके चुने जाने के ख़यालों को आरज़ू बता रहे थे।
 
उन्हें दूर-दूर तक एहसास नहीं था कि आज उन्हें जो नाम क़ुबूल नहीं है, कल वह न केवल शरीके-राहे-सफ़र होगा; बल्कि इस सियासी राह की मंज़िल के शिखर पर वही बैठेगा।
 
यह साल 2003 की बात थी, जब भजनलाल ने भरतपुर ज़िले की नईबई सीट से राजस्थान सामाजिक न्याय मंच की टिकट पर चुनाव लड़ा था।
 
यह मंच भाजपा से बाग़ी होकर देवीसिंह भाटी ने बनाया था और उच्च जातियों के आरक्षण की मांग उनके लिए मुख्य थी। लेकिन भजनलाल वह चुनाव हार गए और पांचवें नंबर पर रहे। उन्हें 5,969 वोट मिले थे।
 
भजनलाल की सियासी धड़कनों के क़रीब उनके वे ख़्वाब थे, जो विधायक बनने और सरकार में अच्छी जगह होने से जुड़े थे।
 
उनके एक क़रीबी बताते हैं, ''उन्होंने तो इतनी सहजता से कभी मंत्री बनने की भी नहीं सोची। भाजपा कार्यालय में सबके साथ बैठा एक कार्यकर्ता एक झोपड़ा चाहे और उसे ताजमहल दे दिया जाए तो वह क्या एहसास करेगा, यही आज भजनलाल के साथ है।''
 
राजस्थान विधानसभा चुनाव में तीन दिसंबर को परिणाम आए तो लग रहा था कि आने वाले सप्ताह में कोई ऐसा नेता मुख्यमंत्री पद की शपथ लेगा, जो या तो विधायकों में से कोई चर्चित चेहरा होगा या फिर उसे दिल्ली से भेजा जाएगा।
 
लेकिन 12 दिसंबर को आज ये सभी कयास कोरे कयास ही साबित हुए। लेकिन इन नौ दिन में न सुकून रहा और न क़रार; क्योंकि नामों को लेकर बेचैनियां लगातार बढ़ती ही जा रही थीं। और माना जा रहा था कि प्रदेश की प्रमुख शख़्सियत वसुंधरा राजे को अंतत: निराश होना पड़ेगा; लेकिन हुआ यह है कि मुख्यमंत्री पद से वंचित होने के ग़म में वे भी मुब्तिला हो गए, जो इसकी आस बांधे बैठे थे।
 
अब सभी एक ही कसक और एक ही तरह के सियासी दर्द के शिकार हो गए हैं।
 
यह संदेश है क्या?
आख़िर भजनलाल के सीएम बनने की वजह क्या रही? जब यह सवाल भाजपा के भीतरी जानकारों से किया जाता है तो उनका मानना है कि पार्टी लोकसभा के चुनाव के मद्देनज़र एक बड़ा संदेश देना चाहती है और वह हो गया है।
 
उनका कहना है कि इससे पहले सत्ता का सुरूर ऐसा सुरूर था कि वह उतरने का नाम ही नहीं लेता था। उनके इर्दगिर्द भी पदों की ऐसी ख़ुमारी थी कि पार्टी संगठन के अच्छे-अच्छे लोग बात करने या अपनी कहने तक को तरस जाते थे।
 
पार्टी के भीतर की छोटी-छोटी घटनाओं को याद करते हुए ये लोग बताते हैं कि एक समय तो वह था जब राजनाथ सिंह राष्ट्रीय अध्यक्ष थे और वे जयपुर आए तो सत्ता की शीर्ष नेता उनकी अगुवाई के लिए नहीं गईं।
 
वे याद करते हैं कि एक बार राष्ट्रीय स्वयं संघ से जुड़े रह चुके एक पार्टी नेता को मुख्यमंत्री से मिलना था और वे भरसक कोशिशें करके भी नहीं मिल पाए।
 
पार्टी के एक पुराने नेता याद करते हैं, ''कभी लम्हा-भर की भी गुफ़्तुगू मेरी उनके साथ न हो सकी। हमें फ़ुर्सतें-फ़ुर्सतें ही थीं और वो सत्ता के रथ पर ऐसे सवार थीं कि किसी के हाथ भी नहीं आ रही थीं।''
 
ऐसे में कई बार संघनिष्ठ भाजपा विधायकों के साथ उनके टकराव भी हुए थे।
 
साल 2008 में जब भाजपा हारी तो इस पराजय की ज़िम्मेदारी लेते हुए जहाँ प्रदेश महामंत्री संगठन प्रकाशचंद्र ने तत्काल और प्रदेश अध्यक्ष ओम माथुर ने कुछ दिन बाद इस्तीफ़ा दे दिया; लेकिन वसुंधरा राजे ने नेता प्रतिपक्ष के पद को लंबे समय तक नहीं छोड़ा और वह केंद्रीय हाईकमान को डराती रहीं।
 
साल 2017 में हाईकमान ने गजेंद्रसिंह शेखावत को भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाना चाहा तो उस समय भी वसुंधरा राजे केंद्रीय नेताओं पर भारी पड़ीं।
 
पार्टी के कुछ नेता बताते हैं कि संघ के लोगों ने तभी सोच लिया था कि उन्हें राजस्थान में भाजपा की सरकार तो बनानी है; लेकिन उसका नेतृत्व ऐसे लोगों के हाथ हो, जो आम कार्यकर्ताओं से सहज ही मिल सकें और कोई भी कभी भी सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेता को अपनी बात कह सके।
 
और यह नेता ऐसा भी नहीं हो कि फिर से बड़ा क्षत्रप बन जाए और संघ और केंद्रीय नेतृत्व को डराने की कोशिश करे।
 
इस बार यह भी किया गया कि जो विधायक घमंड में चूर रहते थे और लोगों के बीच जाना ही उचित नहीं समझते थे, उनके टिकट भी काटे गए। यह जानकारी मिलने के बावजूद कि शायद पार्टी को बहुमत से बहुत अधिक सीटें नहीं मिलें।
 
इन 'ताक़तवर' लोगों का अब होगा क्या?
पार्टी के टिकट वितरण संबंधी समितियों को बारीक़ी से देखने वाले एक नेता बताते हैं, “इस समय पार्टी हाईकमान में अजीब ही तर्ज़ के लोग हैं और वे जो सोचते हैं, किए बिना मानते नहीं हैं।”
 
एमए तक शिक्षित भजनलाल के मुख्यमंत्री बनने से यह साबित हुआ कि जिन लोगों को इस बार इंतिज़ार-ए-बहार था, वे अब ख़िज़ाँ जाने किसके मुंतज़िर हैं। यह किसी को समझ ही नहीं आ रहा कि अब इन बड़े ताक़तवर लोगों का होगा क्या?
 
भाजपा के संगठन की गतिविधियों से जुड़े एक साधारण कार्यकर्ता बताते हैं, ''इस बार भजनलाल चुनाव प्रबंधन के लिए बनी पांच लोगों की एक छोटी सी टीम के मुखिया थे।''
 
वे सांगानेर का चुनाव भी लड़ रहे थे और यह काम भी देख रहे थे। उनके इस पद पर पहुंचने से यह साबित हो गया है कि भाजपा में कोई कुछ साल ठीक से काम करे तो पार्टी उसे कुछ भी बना सकती है।
 
एक अन्य नेता मानते हैं,''पार्टी के लिए कोई काम करता है तो वह देखती है कि इस कार्यकर्ता का क़र्ज़ है और उसे चुकाने में वह देर नहीं लगाती।'' वे पूछते हैं, ''क्या ऐसा कांग्रेस में संभव है?''
 
भजनलाल किसी समय भरतपुर ज़िले की नदबई तहसील की पंचायत अटारी के सरपंच रहे हैं। वे राजनीतिक रूप से काफ़ी उच्चाकांक्षी थे। वे संघ के पुराने कार्यकर्ता हैं; लेकिन साल 2002 में जब वसुंधरा राजे को मुख्यमंत्री बनाने के लिए पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया तो पार्टी के ताक़तवर नेता देवीसिंह भाटी ने विद्रोह करके राजस्थान सामाजिक न्याय मंच गठित कर भाजपा के उम्मीदवारों के सामने चेहरे खड़े कर दिए।
 
साल 2003 के विधानसभा चुनाव में भरतपुर जिले की नदबई सीट से भाजपा ने कृष्णेंद्रकौर दीपा को टिकट दिया तो भजनलाल राजस्थान सामाजिक न्याय मंच के टिकट पर लड़े और पांचवें नंबर पर रहे। उन्हें 5969 वोट मिले। भारत निर्वाचन आयोग के 2003 के चुनावों के आंकड़ों में यह सब दर्ज़ है।
 
देवीसिंह भाटी को भी वसुंधरा राजे कुछ साल बाद भाजपा में ले आईं; लेकिन भजनलाल पहले ही आ गए और पार्टी के साथ निष्ठा से इस तरह जुड़े कि पहले ज़िला मंत्री, फिर महामंत्री और फिर ज़िला अध्यक्ष भी बने। वे भारतीय जनता युवा मोर्चा से भी जुड़े रहे और संगठन का काम किया।
 
साल 2009 में अरुण चतुर्वेदी राजस्थान भाजपा के अध्यक्ष बने तो भजनलाल को वे जयपुर ले आए।
 
यह कितनी हैरानी की बात है कि इस बार चतुर्वेदी का टिकट तो कट गया और भजनलाल को उस सांगानेर सीट से टिकट दे दिया, जहाँ न केवल जीत आसान थी; बल्कि कई संघनिष्ठ नए चेहरे वहाँ दावेदार थे।
 
भजनलाल को टिकट देने का उस समय के विधायक और युवा नेता अशोक लाहोटी के समर्थकों ने भारी विरोध भी किया और पार्टी के प्रदेश कार्यालय पर प्रदर्शन तक किया। लेकिन किसी ने नहीं सुनी।
 
क्या आरएसएस का बढ़ता दखल है वजह?
संघ के क़रीबी बताते हैं, ''संघ के लोगों ने इस बार चुनाव प्रक्रिया शुरू होने से पहले ही ऐसे नए चेहरों पर निगाहें लगा रखी थीं, जिनमें से किसी को मुख्यमंत्री बनाया जाए तो वह लोगों को अपना राज लगे।''
 
भजनलाल के टिकट के यहाँ प्रमुख पैरोकार थे महामंत्री संगठन चंद्रशेखर। इसमें प्रदेश प्रभारी अरुणसिंह, चुनाव प्रभारी प्रहलाद जोशी सहित दिल्ली के भी कुछ प्रमुख नेता जुड़े।
 
भजनलाल लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला और केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव के भी काफ़ी करीबी हैं। यादव 2023 की भाजपा की सुनामी जीत के शिल्पकारों में माने जाते हैं।
 
मुख्यमंत्री बनते ही भजनलाल के पिता किशन स्वरूप शर्मा और माँ गोमती देवी की भावुकता भरी तस्वीरें साफ़ बता रही हैं कि भाजपा वह संदेश देने में कामयाब रही हैं कि भाजपा में एक आम आदमी मुख्यमंत्री के पद तक पहुंच सकता है।
 
भजनलाल की माँ भावुकता भरे शब्दों में कहती हैं, ''हम लोग तो मज़दूर हैं और भरोसा नहीं कर सकते कि हमारा बेटा यहाँ तक पहुंच सकता है।''
 
जानकारों का मानना है कि भाजपा में अब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का दखल बहुत बढ़ गया है और इसलिए पार्टी की परंपरागत राजनीति में पूरा शिफ़्ट आ गया है।
 
अब पुरानी सियासी क़ुर्बतें फ़ासलों में क़ैद हो गई हैं और बहुत से लोगों की आज़ादियां अब हदों में क़ैद की जा रही हैं।
 
केंद्रीय पर्यवेक्षक के रूप में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने जब मुख्यमंत्री के नाम का लिफ़ाफ़ा पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को थमाया और उन्होंने उसे खोलकर भजनलाल का नाम पढ़ा तो उनकी आँखें और चेहरा पूरी तरह उनके दिलोदिमाग़ की हालत की मुख़बिरी कर रहे थे।
 
एक पुराने विधायक बताते हैं, ''उनके चेहरे को साफ़ पढ़ा जा सकता था। मानो यह नया नाम किस पाताल से उभरकर किनारे पर आकर तैरने लगा है।''
 
संघ और भाजपा की हिदायतें अब साफ़ हैं कि पार्टी में अब सिरफिरी मौजों को दायरों में क़ैद कर दिया गया है और अब एक साधारण कार्यकर्ता भी अपनी आँखों में ख़्वाब रौशन कर सकता है।
 
राजस्थान में ब्राह्मण मुख्यमंत्री
समाजवादी नेता अर्जुन देथा सवाल करते हैं कि क्या राज्यपाल कलराज मिश्र, मुख्यमंत्री भजनलाल, भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सीपी जोशी, मुख्य सचिव उषा शर्मा और डीजीपी उमेश मिश्रा के एक ही जाति का होने से राजस्थान में ब्राह्मण स्टेट नहीं हो गया है?
 
लेकिन भाजपा के नेता कहते हैं कि मुख्यमंत्री पद के शपथ ग्रहण के बाद प्रदेश में सोशल इंजीनियरिंग शुरू हो जाएगी और ऐसा कोई संदेश नहीं जाएगा।
 
ऐसा भी माना जा रहा है कि भाजपा में ब्राह्मण चेहरे के रूप में राज्यसभा सदस्य घनश्याम तिवाड़ी, पू्र्व मंत्री अरुण चतुर्वेदी या प्रदेशाध्यक्ष सीपी जोशी भी हो सकते थे, जो सीनियर हैं और जिनकी प्रदेश में वरिष्ठ नेता की छवि है।
 
तो भाजपा के नेता पार्टी की अंदरूनी स्थिति को समझाते हुए बताते हैं कि एक तो ये सब विधायक नहीं थे और दूसरे यह भी सच है कि कई बार तुझ से बढ़ कर कोई प्यारा भी नहीं हो सकता पर तिरा साथ गवारा भी नहीं हो सकता!
 
भजनलाल को मुख्यमंत्री बनाने के साथ ही दीयाकुमारी और प्रेमचंद बैरवा को उपमुख्यमंत्री बनाना भी एक संदेश है।
 
एक तरफ इस माध्यम से महिलाओं को मज़बूत बनाया गया है तो दूसरी तरफ़ एक राजघराने और क्षत्रिय प्रतिनिधि को मौक़ा मिला है। बैरवा के माध्यम से दलितों को साधने की कोशिश है।
 
राजस्थान की राजनीति मंगलवार को लिखी गई पटकथा बताती है कि लोकसभा चुनाव के दौरान भी सियासत के पुराने अक्स आईनों से हिज़रत करेंगे।
 
अब यह देखना होगा कि उन विधायकों का क्या होगा, जिन्होंने ख़ुद से इंतिक़ाम लेने के लिए मनमाने क़दम बढ़ाए और जाने क्या सोचकर रुख़सत किए जाते रहे लोगों की मोहब्बत की।
 
सियासत में अपनी शनाख़्त का याद आना तो ठीक है, मगर क्या यह ग़फ़लत की इंतिहा हो जाना भी नहीं है?
 

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