सरज़मीन मूवी रिव्यू: देशभक्ति, द्वंद्व और दिशाहीनता का टकराव

WD Entertainment Desk
सोमवार, 28 जुलाई 2025 (16:26 IST)
अमिताभ बच्चन और दिलीप कुमार को लेकर निर्देशक रमेश सिप्पी ने 'शक्ति' फिल्म बनाई थी। यदि आपने ये फिल्म देखी हो तो 'सरज़मीन' देखते समय शक्ति बार-बार याद आएगी क्योंकि फिल्म का मूल प्लॉट काफी मिलता-जुलता है। पृष्ठभूमि और किरदारों में थोड़ा फेरबदल कर दिया गया है। 
 
कायोज़े ईरानी द्वारा निर्देशित 'सरज़मीन' एक ऐसी फिल्म है जो सेना, परिवार और आतंकवाद जैसे गंभीर विषयों को छूने की कोशिश तो करती है, लेकिन पटकथा और संवेदना के स्तर पर इतनी बिखरी हुई लगती है कि दर्शक न जुड़ पाते हैं और न झुंझला पाने से बचते हैं।
 
कश्मीर में तैनात एक सख्त और अनुशासित आर्मी अफसर विक्रम (पृथ्वीराज सुकुमारन) अपनी पत्नी मेहर (काजोल) और बेटे हरमन (इब्राहिम अली खान) के साथ रहते हैं। हरमन को हकलाने की समस्या है, जिससे मेहर को हमेशा यह लगता है कि विक्रम को अपने बेटे पर शर्म आती है। 
 
जब विक्रम एक खतरनाक आतंकी मोहसिन और उसके भाई को गिरफ्तार करता है, तो बदले में आतंकवादी उसके बेटे हरमन का अपहरण कर लेते हैं। यहां से शुरू होती है नैतिकता बनाम पितृत्व की एक अजीब जंग। विक्रम अपने बेटे की जान की कीमत पर भी देशभक्ति नहीं छोड़ता।
 
आठ साल बाद, हरमन एक बदला हुआ युवक बनकर लौटता है, लेकिन अब वह एक आतंकवादी है, जिसे खुद अपने पिता की हत्या का मिशन दिया गया है। यहां से फिल्म एक भावनात्मक और राजनीतिक जाल में उलझती जाती है, जहां हर किरदार का अतीत धीरे-धीरे खुलता है। सबसे बड़ा ट्विस्ट तब आता है जो मेहर को लेकर खुलता है ।
 
फिल्म का मूल विचार जितना दमदार है, उसको स्क्रीन पर उतारने में सफलता नहीं मिल पाई। फिल्म के लेखक ने स्क्रिप्ट को बार-बार सुविधाजनक मोड़ों के जरिये घुमाव दिया है। कई किरदारों की भावनाएं अधूरी लगती हैं और हरमन के पिता से नफरत करने का कारण दर्शकों को कभी पूरी तरह स्पष्ट नहीं होता। स्क्रिप्ट की कमियां पूरी फिल्म देखते समय बार-बार उभरती रहती है और दर्शक को फिल्म से जुड़ने नहीं देती। 

 
विक्रम का हरमन के हकलाने पर कथित 'शर्मिंदगी' भी दर्शकों तक ठीक से नहीं पहुँच पाती। इसके अलावा, मेहर और हरमन दोनों को यह समझना चाहिए था कि एक फौजी अफसर के लिए देश पहले आता है। क्या उन्हें इतनी बात की समझ नहीं है। 
 
फिल्म कई जगह दर्शकों को भ्रमित करती है। क्या वो आर्मी अफसर को गलत मानें जिसने अपने बेटे को बचाने से इंकार किया? क्या वो एक ब्रेनवॉश हो चुके आतंकवादी को सही मानें जो अब अपने ही पिता की जान लेना चाहता है? फिल्म इन सवालों का कोई स्पष्ट उत्तर नहीं देती, बस इमोशन का शोर मचाती है। 
 
ऊपर से कायोज़े ईरानी का निर्देशन भी बेदम है। उनका कहानी कहने का अंदाज बेहद औसत है और उसमें उन्होंने कोई क्रिएटिविटी नहीं दिखाई। 
 
पृथ्वीराज सुकुमारन ने आर्मी अफसर के रूप में परफॉर्मेंस में गंभीरता तो दिखाई है, लेकिन स्क्रिप्ट उनके किरदार को संवेदना नहीं देती। काजोल को देखकर लगता है कि उन्हें अपने किरदार की जटिलता पर खुद भरोसा नहीं रहा। इब्राहिम अली खान का अभिनय औसत है, और उनके किरदार को जो ट्रॉमा झेलना पड़ा, वो उनकी एक्टिंग में कही नहीं झलकता। 
 
सिनेमैटोग्राफी अच्छी है, लेकिन विज़ुअल्स की भव्यता कहानी को बचा नहीं पाती। संगीत में “मेरे मुरशिद मेरे यारा” गाना ज़रूर असर छोड़ता है, लेकिन बाकी ट्रैक्स फीके हैं। एक्शन सीक्वेंस में दम है, मगर वो कथानक से जुड़ाव नहीं बना पाते।
 
'सरज़मीन' एक संभावनाओं से भरी फिल्म थी जो बेहतर लेखन और निर्देशन के सहारे एक गंभीर राजनीतिक-भावनात्मक थ्रिलर बन सकती थी। लेकिन इसके बजाए यह एक पुराने दौर की ओवरड्रामेटिक फिल्म की तरह लगती है, जिसमें लॉजिक कम और झटकों का दिखावा ज़्यादा है। इसके ट्विस्ट एंड टर्न्स चौंकाने की बजाय झुंझलाते हैं और पात्रों के साथ सहानुभूति करने की बजाय आप उनमें दोष ढूंढते रह जाते हैं।

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