ये कहां जा रहे हम..!

अनिल जैन
'जिस दलदल से निकलने के लिए हम पाकिस्तानी छटपटा रहे हैं, आप हिंदुस्तानी उसी दलदल में गाजे-बाजे के साथ उतर रहे हैं...मुबारक हो।' यह एक पाकिस्तानी पत्रकार का वह ट्वीट है जो उसने बंगलुरु में पांच सितंबर की शाम को हुई मशहूर पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या और उसके बाद हत्या के समर्थन में सोशल मीडिया पर आई भद्दी प्रतिक्रियाओं को लेकर किया था। उसका यह अफसोस और तंजभरा ट्वीट हमारे देश के मौजूदा माहौल पर एक कठोर, लेकिन मुकम्मिल टिप्पणी है।
गौरी लंकेश पत्रकारिता में अपने व्यापक सरोकारों की वजह से कर्नाटक के नागरिक समाज की चर्चित और सम्मानित हस्ती थी लेकिन उसी समाज में एक कायर और नफरतपसंद तबका ऐसा भी है जिसके लिए गौरी आंखों की किरकिरी थी। उसी तबके के कुछ हथियारबंद नुमाइंदों ने गौरी की उनके घर में घुसकर गोली मारकर हत्या कर दी। समरस समाज की विरोधी हिंदुत्ववादी, सांप्रदायिक और फासीवादी विचारधारा, अंधविश्वास, जातीय विषमता, वर्गीय गैरबराबरी और निजीकरण के खिलाफ अपनी पत्रकारिता के जरिए संघर्षरत गौरी पिछले कुछ समय से अपने विरोधियों के निशाने पर थीं। वे अपने पिता पी. लंकेश द्वारा 40 वर्ष पहले शुरू की गई 'लंकेश पत्रिके’ का संचालन/संपादन कर रही थीं। उनके पिता पी. लंकेश भी समाजवादी-लोहियावादी विचारों से प्रेरित कवि, कहानीकार और नाटककार थे।
 
हालांकि अभी तक कर्नाटक पुलिस गौरी के हत्यारों की शिनाख्त नहीं कर पाई है, लेकिन जिन तत्वों से उन्हें लगातार धमकियां मिल रही थीं और जिन तत्वों ने उनकी हत्या पर जश्न मनाया और (एंटी) सोशल मीडिया पर बेहद भद्दी भाषा में उनकी हत्या को जायज करार दिया, उससे इस संदेह की पुष्टि होती है कि उनकी हत्या हिंदुत्ववादी विचारधारा के आतंकवादियों ने ही की है। दिलचस्प बात है कि जिस वक्त दिल्ली में केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद गौरी लंकेश की हत्या की निंदा करते हुए उसमें किसी हिंदुत्ववादी संगठन का हाथ होने की संभावना को नकार रहे थे उसी वक्त उन्हीं की पार्टी के एक विधायक और कर्नाटक के पूर्व मंत्री डीएन जीवराज चिकमंगलूर में अपनी पार्टी के एक कार्यक्रम में डंके की चोट पर कह रहे थे कि अगर गौरी ने आरएसएस के खिलाफ नहीं लिखा होता तो आज वह जिंदा होतीं। उनका कहना था कि गौरी लंकेश जिस तरह लिखती थीं वह बर्दाश्त के बाहर था। भाजपा के इस विधायक की इस स्वीकारोक्ति से साफ हो जाता है कि गौरी की हत्या किन लोगों ने की।
 
जिस तरह से गौरी को मारा गया ठीक उसी तर्ज पर दो साल पहले 30 अगस्त 2015 को कर्नाटक के ही धारवाड में हम्पी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और प्रसिद्ध कन्नड़ साहित्यकार एमएम कलबुर्गी की भी हत्या कर दी गई थी। इस घटना के छह महीने पहले महाराष्ट्र के कोल्हापुर में कम्युनिस्ट नेता गोविंद पानसरे और उनकी पत्नी पर भी इसी तरह जानलेवा हमला हुआ था जिसमें पानसरे की मौत हो गई थी। इस घटना के दो साल पहले 2013 में पुणे में तर्कशील आंदोलन के कार्यकर्ता और लेखक डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की भी इसी तरह हत्या कर दी गई थी।
 
कलबुर्गी, पानसरे और दाभोलकर तीनों ही सनातन संस्था नामक हिंदुत्ववादी संगठन के निशाने पर थे। इस संगठन की ओर से तीनों को कई बार हत्या की धमकी दी जा चुकी थी। अंतत: तीनों की हत्या भी कर दी गई, लेकिन तीनों के ही हत्यारे आज तक नहीं पकड़े जा सके हैं। इसी संगठन के कार्यकर्ताओं ने नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर कन्नड़ के प्रतिष्ठित साहित्यकार यूआर अनंतमूर्ति को पाकिस्तान जाने का टिकट भेजने जैसी वाहियात हरकत भी की थी और उसके कुछ ही दिनों बाद उनकी मौत पर पटाखे फोड़कर और मिठाई बांटकर जश्न मनाया था।
 
अपने को हिंदुत्व की सबसे बड़ी संरक्षक बताने वाली और आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त इस सनातन संस्था की स्थापना गोवा में हिप्नोथेरेपिस्ट कहे जाने वाले डॉक्टर जयंत बालाजी आठवले ने की है। दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी की हत्या के बाद इस संगठन की ओर से डॉ. नरेंद्र दाभोलकर के भाई दत्तप्रसाद दाभोलकर, श्रमिक मुक्ति दल के नेता भारत पाटणकर और ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता लेखक भालचंद्र नेमाड़े को भी धमकी मिल चुकी है। दत्तप्रसाद इसलिए निशाने पर हैं क्योंकि उन्होंने स्वामी विवेकानंद के जीवन एवं कार्य को अलग ढंग से व्याख्यायित करने की कोशिश की है। दक्षिणपंथियों ने विवेकानंद की खास किस्म की हिन्दूवादी छवि को प्रोजेक्ट कर उन्हें जिस तरह अपने 'प्रेरणा-पुरुष’ के रूप में समाहित किया है, दाभोलकर उसकी मुखालिफत करते हैं। मार्क्स एवं फुले-आंबेडकर के विचारों से प्रेरित भारत पाटणकर विगत चार दशक से मेहनतकशों एवं दलितों के आंदोलन से सम्बद्ध हैं और साम्प्रदायिक एवं जातिवादी राजनीति के विरोध में काम करते हैं। इनके अलावा सनातन संस्था पिछले दो वर्ष के दौरान पत्रकार निखिल वागले, युवराज मोहिते, तर्कशील आंदोलन के कार्यकर्ता श्यामसुंदर सोनार और मशहूर डाक्यूमेंट्री निर्माता आनंद पटवर्धन को धर्मद्रोही करार देकर हत्या की धमकी दे चुकी है।
 
ऐसा नहीं है कि पत्रकारों, लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों, प्रगतिशील आंदोलनों से जुडे कार्यकर्ताओं को धमकाने का, उन पर जानलेवा हमलों का या उनकी हत्या का सिलसिला केंद्र में भाजपा के सत्ता में आने के बाद ही शुरू हुआ हो, इससे पहले भी ऐसी घटनाएं होती रही हैं, लेकिन हकीकत यही है कि पिछले तीन-चार वर्षों के दौरान इस तरह की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। जाने-माने पत्रकार पी. साईनाथ के मुताबिक, 1992 से अब तक 40 से ज्यादा पत्रकारों की हत्या हुई है, जिनमें 27 हत्याओं का संबंध उनके लेखन और पेशे से जोड़ा जा सकता है। इस सूची में गौरी लंकेश 28वीं होंगी। मारे गए ज्यादातर पत्रकार गैर अंग्रेजी भाषी और साधारण पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले तथा प्रिंट मीडिया में काम करने वाले थे। 
 
गौरी लंकेश, कलबुर्गी, पानसरे, दाभोलकर आदि की हत्या का एक जैसा पैटर्न, हत्यारों का अभी तक कानून की पकड़ से बाहर रहना, कई पत्रकारों-लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हमले होना तथा कई को धमकियां मिलना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि मौजूदा दौर में हत्यारों और उन्हें संरक्षण देने वाली ताकतों के हाथ कानून के हाथ से भी लंबे और मजबूत हैं। इस स्थिति के लिए किसी एक पार्टी या उसकी सरकारों को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। ऐसी ताकतों के खिलाफ कोताही बरतने में गैर भाजपा दलों की सरकारों का रिकॉर्ड भी ज्यादा साफ नहीं है। शायद ऐसी ही सरकारों के लिए फ्रांस के क्रांतिकारी दार्शनिक वॉल्टेयर ने कहा है, 'अगर सत्ताधारी ताकतें गलत हों तो लोगों का सही होना खतरे से खाली नहीं होता।'
 
बहरहाल यह स्थिति लोकतांत्रिक और बहुलतावादी भारत को तबाह कर उसे पाकिस्तान, इराक और सीरिया जैसा अराजक और आत्मघाती मुल्क बनाने की दिशा में बढ़ने की सूचक है। इस सिलसिले में यह बात भी बेहद अहम और गौरतलब है कि जिस दिन गौरी लंकेश की हत्या हुई, उसके ठीक दो दिन पहले ही हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ब्रिक्स सम्मेलन में कट्टरपंथ के फैलाव पर रोक के करार पर हस्ताक्षर किए हैं। यह सामान्य घटना नहीं है। घोषणा पत्र में पाकिस्तान पोषित कुछ आतंकवादी संगठनों का नाम शामिल होने को भारतीय मीडिया भारत सरकार के कूटनीतिक कौशल की जीत और चीन की हार के तौर पर पेश कर रहा है, लेकिन वह इस तथ्य को नजरअंदाज कर रहा है कि ब्रिक्स के सदस्य देशों ने कट्टरपंथ के फैलाव को भी अपने घोषणा पत्र में रेखांकित किया है। जाहिर है कि भारत में जिस तरह से धार्मिक, सांप्रदायिक और जातीय उन्माद से प्रेरित हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं, उनका ब्रिक्स ने संज्ञान लिया है। 
 
अब अगर मोदी सरकार ब्रिक्स घोषणा पत्र की इस शर्त पर प्रभावी अमल नहीं करती है तो पाकिस्तानी आतंकवादी तंजीमों के खिलाफ कार्रवाई की उसकी मांग का नैतिक बल भी स्वत: कम हो जाएगा और विश्व समुदाय में कोई भी उसे गंभीरता से नहीं लेगा। अच्छी बात है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी जवाबदेही पर इस करार पर हस्ताक्षर किए हैं यानी अब यह सवाल मोदी की मौजूदगी वाले अंतरराष्ट्रीय मंचों पर शामिल हो चुका है। अब भविष्य में गौरी लंकेश की हत्या जैसी घटनाएं या दलितों और अल्पसंख्यकों पर होने वाले हमले इस अंतरराष्ट्रीय करार के अनुपालन में ब्रिक्स के सदस्य देशों ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका का ध्यानाकर्षण करा सकते हैं। ऐसी घटनाएं भारत में बहुराष्ट्रीय हस्तक्षेप का कारण भी बन सकती हैं।

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