न्यू इंडिया उर्फ आत्मघाती मुल्क बनने की राह पर बढ़ते कदम

अनिल जैन
गुरुवार, 5 अक्टूबर 2017 (12:14 IST)
'अगर सत्ताधारी ताकतें गलत हों तो लोगों का सही होना खतरे से खाली नहीं होता।’ फ्रांस के क्रांतिकारी दार्शनिक वॉल्टेयर का यह कथन हमारे देश के मौजूदा माहौल पर शत-प्रतिशत लागू प्रतीत होता है। विश्वविद्यालय के परिसरों को नफरत की राजनीति का अखाडा बनाकर वहां के माहौल को सरकारी संरक्षण में सुनियोजित ढंग से दूषित किया जा रहा है। इस तरह की कोशिशों का प्रतिकार करने वाले छात्रों का बर्बरतापूर्वक दमन करते हुए उन्हें तरह-तरह से लांछित और अपमानित किया जा रहा है।
 
सरकार की नीतियों से असहमत पत्रकारों, लेखकों, साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों, तर्कवादियों आदि की सत्तारूढ़ दल के समर्थकों द्वारा हत्या, उन पर जानलेवा हमलों और उन्हें धमकाने का सिलसिला बना हुआ है। गाय को बचाने और खानपान के नाम पर भी कहीं मुसलमानों को मारा जा रहा है तो कहीं दलितों को। ऐसा नहीं है कि इस तरह की घटनाएं भाजपा के सत्ता में आने से पहले नहीं होती थीं या भाजपा जब सत्ता में नहीं होगी तब इस तरह की घटना रुक जाएंगी। लेकिन पिछले तीन-चार वर्षों से देश में सांप्रदायिक और जातीय वैमनस्य, नफरत और हिंसा का जो माहौल सत्ता के अघोषित संरक्षण में बनाया जा रहा है, वह अभूतपूर्व है।
 
इस तरह के माहौल की चरम स्थिति अभी हाल ही में पूरे देश ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र बनारस में देखी जहां अपनी वाजिब मांगों को लेकर शांतिपूर्ण तरीके से धरने पर बैठी बीएचयू यानी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की लड़कियों पर आधी रात को पुलिस ने कैंपस में घुसकर लाठीचार्ज किया। इससे दो दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी बनारस के दो दिवसीय दौरे पर थे तब इन लड़कियों ने उनसे भी मिलने की कोशिश की थी, लेकिन प्रधानमंत्री और स्थानीय प्रशासन के उपेक्षित रवैये के चलते नहीं मिल पाई थीं।
 
ये लड़कियां सिर्फ इतना चाहती हैं कि विश्वविद्यालय कैंपस में उन्हें कुछ लफंगे छात्रों द्वारा की जाने वाली यौन हिंसा और अश्लील फिकरेबाजी से मुक्ति दिलाई जाए और ऐसा सुरक्षित माहौल उपलब्ध कराया जाए कि वे भी लड़कों की तरह विश्वविद्यालय परिसर में बेखौफ होकर कहीं भी-कभी भी आ-जा सकें। लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन यह मांग मानने के लिए तैयार नहीं है, उलटे उसने लड़कियों के लिए हिदायत जारी कर दी कि वे क्या पहनें-खाएं और क्या नहीं। 
 
विश्वविद्यालय के कुलपति ने तो बेशर्मी के साथ सफेद झूठ बोलते हुए यह मानने से ही इनकार कर दिया कि पुलिस ने कैंपस में प्रवेश किया और लड़कियों पर लाठीचार्ज किया। इतना ही नहीं, उन्होंने लड़कियों के आंदोलन को राजनीति से प्रेरित बताते हुए यह भी कहा कि वे विश्वविद्यालय में राष्ट्रवाद की भावना और संस्कार खत्म नहीं होने देंगे। किसी विश्वविद्यालय के कुलपति द्वारा राष्ट्रवाद के नाम पर एक राजनीतिक दल विशेष से जुडे छात्रों की गुंडागर्दी को खुला संरक्षण और उससे त्रस्त लड़कियों के पुलिसिया दमन की यह अभूतपूर्व मिसाल है।
 
राष्ट्रवाद के नाम पर ही लगभग डेढ़ साल पहले दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में भी वहां के छात्रों और छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को बदनाम करने का खेल मीडिया के सहयोग से सरकार की शह पर खेला गया था। कथित देशविरोधी नारे लगाते छात्रों के फर्जी वीडियो तैयार कर कुछ सुपारीबाज टीवी चैनलों के जरिये प्रचारित किया गया था कि जेएनयू देशविरोधी गतिविधियों का अड्डा बन गया है।
 
इन्ही फर्जी सबूतों के आधार पर पुलिस ने कुछ छात्रों के खिलाफ मुकदमे दर्ज किए थे, जो बाद में अदालत द्वारा खारिज कर दिए गए। पुलिस को लताड़ पड़ी सो अलग। सरकार की शह पर ऐसे ही नफरत भरे खेल ने हैदराबाद विश्वविद्यालय के दलित छात्र रोहित वेमुला को आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर दिया था। यह खेल और भी कई शिक्षण संस्थानों में खेला गया है और अभी भी खेला जा रहा है।
 
राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की रक्षा के नाम पर साहित्यकारों, लेखकों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को धमकाने, उन पर हमला करने और यहां तक कि उनकी हत्या करने का अभियान भी जोर-शोर से जारी है। इसकी ताजा बानगी पूरे देश ने पिछले दिनों मशहूर पत्रकार गौरी लंकेश की दर्दनाक हत्या और उसके बाद हत्या के समर्थन में सोशल मीडिया पर व्यापक पैमाने पर आई भद्दी प्रतिक्रियाओं के रूप में देखी है।
 
गौरी लंकेश पत्रकारिता में अपने व्यापक सरोकारों की वजह से कर्नाटक के नागरिक समाज की चर्चित और सम्मानित हस्ती थीं, लेकिन उसी समाज में एक कायर और नफरतपसंद तबका ऐसा भी है जिसके लिए गौरी आंखों की किरकिरी थी। उसी तबके के कुछ हथियारबंद नुमाइंदों ने बंगलूरू में गौरी की उनके घर में घुसकर गोली मारकर हत्या कर दी।
 
हालांकि अभी तक कर्नाटक पुलिस गौरी के हत्यारों की शिनाख्त नहीं कर पाई है, लेकिन जिन तत्वों से उन्हें लगातार धमकियां मिल रही थीं और जिन तत्वों ने उनकी हत्या पर जश्न मनाया और बेहद भद्दी भाषा में उनकी हत्या को जायज करार दिया, उससे इस संदेह पुष्टि होती है कि उनकी हत्या हिंदुत्ववादी विचारधारा के अतिवादियों ने ही की है। भाजपा और अन्य हिंदुत्ववादी संगठन से जुड़े कुछ लोग तो डंके की चोट कह रहे हैं कि अगर गौरी ने आरएसएस के खिलाफ नहीं लिखा होता तो आज वह जिंदा होतीं।
 
गौरी लंकेश की हत्या और उसके बाद हत्या के समर्थन में सोशल मीडिया पर आई भद्दी प्रतिक्रियाओं पर एक पाकिस्तानी पत्रकार की टिप्पणी भी गौरतलब है। इस पत्रकार ने ट्वीट के जरिए कहा- 'जिस दलदल से निकलने लिए हम पाकिस्तानी छटपटा रहे हैं, आप हिंदुस्तानी उसी दलदल में गाजे-बाजे के साथ उतर रहे हैं...मुबारक हो।’ पाकिस्तानी पत्रकार का यह अफसोस और तंज भरा ट्वीट हमारे देश के मौजूदा माहौल पर एक कठोर लेकिन मुकम्मिल टिप्पणी है।
 
गौरी लंकेश की हत्या के चंद दिनों बाद ही त्रिपुरा में एक स्थानीय टीवी चैनल के संवाददाता शांतनु भौमिक की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई। जिस स्थानीय राजनीतिक संगठन से जुडे लोगों पर हत्या का आरोप है वह भाजपा का सहयोगी है।
 
जिस तरह से गौरी लंकेश को मारा गया ठीक उसी तर्ज पर दो साल पहले 30 अगस्त 2015 को कर्नाटक के ही धारवाड़ में हम्पी विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और प्रसिद्ध कन्नड़ साहित्यकार एमएम कलबुर्गी की भी हत्या कर दी गई थी। इस घटना के छह महीने पहले महाराष्ट्र के कोल्हापुर में कम्युनिस्ट नेता गोविंद पानसरे और उनकी पत्नी पर भी इसी तरह जानलेवा हमला हुआ था जिसमें पानसरे की मौत हो गई थी। इस घटना के दो साल पहले 2013 में पुणे में तर्कशील आंदोलन के कार्यकर्ता और लेखक डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की भी इसी तरह हत्या कर दी गई थी।
 
कलबुर्गी, पानसरे और दाभोलकर तीनों ही सनातन संस्था नामक हिंदुत्ववादी संगठन के निशाने पर थे। इस संगठन की ओर से तीनों को कई बार हत्या की धमकी दी जा चुकी थी। अंतत: तीनों की हत्या भी कर दी गई लेकिन तीनों के ही हत्यारे आज तक आज तक नहीं पकड़े जा सके हैं। इसी संगठन के कार्यकर्ताओं ने नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर कन्नड़ के प्रतिष्ठित साहित्यकार यूआर अनंतमूर्ति को पाकिस्तान जाने का टिकट भेजने जैसी वाहियात हरकत भी की थी और उसके कुछ ही दिनों बाद उनकी मौत पर पटाखे फोड़कर और मिठाई बांटकर जश्न मनाया था।
 
अपने को हिंदुत्व की सबसे बडी संरक्षक बताने वाली और आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त इस सनातन संस्था की स्थापना गोवा में हिप्नोथैरेपिस्ट कहे जाने वाले डॉक्टर जयंत बालाजी आठवले ने की है। दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी की हत्या के बाद इस संगठन की ओर से डॉ. दाभोलकर के भाई दत्तप्रसाद दाभोलकर, श्रमिक मुक्ति दल के नेता भारत पाटणकर और ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता लेखक भालचंद्र नेमाड़े को भी धमकी मिल चुकी है।
 
दत्तप्रसाद इसलिए निशाने पर हैं क्योंकि उन्होंने स्वामी विवेकानंद के जीवन एवं कार्य को अलग ढंग से व्याख्यायित करने की कोशिश की है। दक्षिणपंथियों ने विवेकानंद की खास किस्म की हिन्दूवादी छवि को प्रोजेक्ट कर उन्हें जिस तरह अपने 'प्रेरणा-पुरुष’ के रूप में समाहित किया है, दाभोलकर उसकी मुखालिफत करते हैं।
 
मार्क्स एवं फुले-आंबेडकर के विचारों से प्रेरित भारत पाटणकर विगत चार दशक से मेहनतकशों एवं दलितों के आंदोलन से सम्बद्ध हैं और साम्प्रदायिक एवं जातिवादी राजनीति के विरोध में काम करते हैं। इनके अलावा सनातन संस्था पिछले दो वर्ष के दौरान पत्रकार निखिल वागले, युवराज मोहिते, तर्कशील आंदोलन के कार्यकर्ता श्याम सुंदर सोनार और मशहूर डाक्यूमेंटरी निर्माता आनंद पटवर्धन को धर्मद्रोही करार देकर हत्या की धमकी दे चुकी है। गौरी लंकेश की हत्या के बाद कई पत्रकारों और लेखकों को धमकियां मिल रही हैं। जाने-माने दलित चिंतक और लेखक कांचा इलैया पर तो हैदराबाद में जानलेवा हमला भी हो चुका है।
 
ऐसा नहीं है कि पत्रकारों, लेखकों, बुद्धिजीवियों, कलाकारों, प्रगतिशील आंदोलनों से जुड़े कार्यकर्ताओं को धमकाने का, उन पर जानलेवा हमलों का या उनकी हत्या का सिलसिला केंद्र में भाजपा के सत्ता में आने के बाद ही शुरू हुआ हो, इससे पहले भी ऐसी घटनाएं होती रही हैं। विश्व प्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन को आखिर कांग्रेस के शासनकाल में ही तो अपने देश से निर्वासित होकर विदेश में शरण लेनी पड़ी थी। अस्सी के दशक में जानेमाने रंगकर्मी सफदर हाशमी और मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी की हत्या भी कांग्रेस के शासनकाल में ही हुई थी। इसके अलावा विभिन्न राज्यों में कई फिल्मकारों, कलाकारों, पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी सांप्रदायिक गुंडों के हमलों और पुलिस की प्रताड़ना का शिकार कांग्रेस और अन्य गैर भाजपा दलों की सरकारों के चलते ही होना पड़ा। फिर भी हकीकत यही है कि पिछले तीन-चार वर्षों के दौरान इस तरह की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है।
 
इतना ही नहीं, ऐसी घटनाओं का सोशल मीडिया पर भाजपा और उसके समर्थक अन्य कट्टरपंथी संगठनों से जुड़े लोगों द्वारा व्यापक पैमाने पर महिमा-मंडन भी किया जा रहा है। ऐसे कई लोगों को तो सत्तारूढ़ दल के कई नेता और मंत्री ही नहीं बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी फॉलो करते हैं। प्रधानमंत्री के समर्थक ऑनलाइन गुंडों की यह पल्टन सिर्फ हत्यारों और हमलावरों का समर्थन ही करती, बल्कि विपक्षी दलों के मुखर नेताओं या सरकार के खिलाफ लिखने वालों का चरित्र हनन करने और उन्हें धमकाने का काम भी करती है।
 
इस फौज में ऐसे लोग भी कम नहीं हैं जो मनगढंत किस्सों के जरिए महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और उनके परिवार के सदस्यों का चरित्र हनन करते हैं। ये लोग महात्मा गांधी के हत्यारे गिरोह का महिमा-मंडन करते हुए उसके पाप-कर्म को जायज भी ठहराते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि आजादी के सत्तर वर्षों में यह अभूतपूर्व स्थिति है, जिसे एक सुनियोजित एजेंडा के तहत निर्मित किया गया है। यह सिलसिला कहां जाकर थमेगा, कहा नहीं जा सकता।
 
गौरी लंकेश, कलबुर्गी, पानसरे, दाभोलकर आदि की हत्या का एक जैसा पैटर्न, हत्यारों का अभी तक कानून की पकड से बाहर रहना, कई पत्रकारों-लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर हमले होना तथा कई को धमकियां मिलना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि मौजूदा दौर में हत्यारों और उन्हें संरक्षण देने वाली ताकतों के हाथ कानून के हाथ से भी लंबे और मजबूत हैं। इस स्थिति के लिए किसी एक पार्टी या उसकी सरकारों को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। ऐसी ताकतों के खिलाफ कोताही बरतने में गैर भाजपा दलों की सरकारों का रिकॉर्ड भी ज्यादा साफ नहीं है। इस स्थिति को लेकर जहां तक मीडिया की भूमिका का सवाल है, संक्षेप में कहें तो कुछ अपवादों को छोडकर समूचा मीडिया सरकार की शहनाई पर तबले की संगत देता नजर आ रहा है। वह अपने दर्शकों और पाठकों को वही सब कुछ परोस रहा है जो सरकार को पसंद आए।
 
यह समूचा परिदृश्य लोकतांत्रिक और बहुलतावादी भारत को तबाह कर उसे पाकिस्तान, इराक और सीरिया जैसा अराजक और आत्मघाती मुल्क बनाने की दिशा में बढ़ने का सूचक है। इस सिलसिले में यह बात भी बेहद अहम और गौरतलब है कि जिस दिन गौरी लंकेश की हत्या हुई, उसके ठीक दो दिन पहले ही हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ब्रिक्स सम्मेलन में कट्टरपंथ के फैलाव पर रोक के करार पर हस्ताक्षर किए।
 
यह सामान्य घटना नहीं है। ब्रिक्स घोषणापत्र में पाकिस्तान पोषित कुछ आतंकवादी संगठनों का नाम शामिल होने को भारतीय मीडिया ने ढिंढोरची की तरह भारत सरकार के कूटनीतिक कौशल की जीत और चीन की हार के तौर पर पेश किया, लेकिन वह इस तथ्य को नजरअंदाज कर गया कि ब्रिक्स के सदस्य देशों ने कट्टरपंथ के फैलाव को भी अपने घोषणापत्र में रेखांकित किया है। जाहिर है कि भारत में जिस तरह से धार्मिक, सांप्रदायिक और जातीय उन्माद से प्रेरित हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं, उनका ब्रिक्स ने संज्ञान लिया है।
 
अब अगर मोदी सरकार ब्रिक्स घोषणापत्र की इस शर्त पर प्रभावी अमल नहीं करती है तो पाकिस्तानी आतंकवादी तंजीमों के खिलाफ कार्रवाई की उसकी मांग का नैतिक बल भी स्वत: कम हो जाएगा और विश्व समुदाय में कोई भी उसे गंभीरता से नहीं लेगा। अब भविष्य में गौरी लंकेश की हत्या जैसी घटनाएं या दलितों और अल्पसंख्यकों पर होने वाले हमले इस अंतरराष्ट्रीय करार के अनुपालन में ब्रिक्स के सदस्य देशों ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका का ध्यानाकर्षण करा सकते हैं। ऐसी घटनाएं भारत में बहुराष्ट्रीय हस्तक्षेप का कारण भी बन सकती हैं। (यह लेखक के निजी विचार हैं)

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