विवेकानंद को बौना बनाने का भौंडा प्रयास

अनिल जैन
शिकागो (अमेरिका) में ठीक 125 वर्ष पहले 11 सितंबर 1893 को हुए धर्म सम्मेलन में स्वामी विवेकानंद ने अपने ऐतिहासिक वक्तव्य के माध्यम से भारत की एक वैश्विक सोच को सामने रखते हुए हिन्‍दू धर्म का उदारवादी चेहरा दुनिया के सामने रखा था। पूरी दुनिया ने उनके भाषण को सराहा था।


वह सम्मेलन किसी एक धर्म विशेष का सम्मेलन नहीं था, लेकिन उस सम्मेलन में विवेकानंद के दिए गए उस वक्तव्य की याद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विश्व हिन्‍दू परिषद ने वहां जो आयोजन किया, वह घोषित रूप से 'हिन्‍दू सम्मेलन’ था, जिसमें मुख्य वक्ता के तौर पर संघ के मुखिया मोहन भागवत ने अपने भाषण में निहायत ही घटिया शब्दावली में अपने हिंदुत्व के संकीर्ण दर्शन को पेश किया। यही नहीं, उन्होंने अपने उस दर्शन को विवेकानंद की विरासत से जोड़ते हुए प्रकारांतर से विवेकानंद की स्वीकार्यता को भी सीमित करने का भौंडा प्रयास किया।

दरअसल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसके पास अपना कोई ऐसा नायक नहीं है, जिसकी उसके संगठन के बाहर कोई स्वीकार्यता या सम्मान हो। उसके अपने जो नायक हैं, उनका भी वह एक सीमा से ज्यादा इस्तेमाल नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा करने पर राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान किए गए उनके पापों का पिटारा खुलने लगता है। इसीलिए उसने पिछले कुछ दशकों से भारत के महापुरुषों और राष्ट्रनायकों का 'अपहरण' कर उन्हें अपनी विचार-परंपरा का वाहक बताने का हास्यास्पद अभियान चला रखा है।

इस सिलसिले में महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, शहीद भगतसिंह, डॉ. भीमराव आंबेडकर, लोकमान्य तिलक, सरदार वल्लभभाई पटेल आदि कई नाम हैं, जिनका वह समय-समय पर अपनी जरूरत के मुताबिक इस्तेमाल करता रहता है। स्वामी विवेकानंद का नाम भी ऐसे ही महानायकों में शुमार है। 1960-70 के दशक के दौरान संघ के तत्कालीन सर संघचालक एमएस गोलवलकर ने विवेकानंद को अपनी हिंदुत्ववादी विचारधारा का आइकॉन बनाने की जो निर्लज्ज कोशिश शुरू की थी, वह आज भी जारी है। शिकागो में उनके ऐतिहासिक भाषण की 125वीं वर्षगांठ पर हुआ हिन्‍दू सम्मेलन उसी कोशिश का हिस्सा है।

स्वामी विवेकानंद विशुद्ध रूप से आध्यात्मिक व्यक्ति थे और भारतीयता के क्रांतिकारी अग्रदूत भी। उनका हिंदुत्व पाखंड और कर्मकांड विरोधी होने के साथ ही दलित और श्रमिक जातियों को सामाजिक न्याय दिलाने वाला सर्वसमावेशी हिंदुत्व था। उसमें भारत की आध्यात्मिकता और भौतिक विकास की ललक थी। उसमें सांप्रदायिक और जातीय नफरत की कोई जगह नहीं थी।

यद्यपि वे समकालीन राजनीति से दूर रहते थे, लेकिन उनका धर्म सामाजिक सत्ता के सवालों से लगातार टकराता था। यही कारण है कि राजनीति के प्रति विरक्ति का भाव रखने वाले विवेकानंद कई राजनीतिकर्मियों के लिए प्रेरणास्रोत बनते रहे। इसी वजह से धर्म की आड में शोषणकारी समाज-सत्ता को बनाए रखने का कुत्सित इरादा रखने वाली ताकतें बेशर्मी के साथ इस योद्धा-संन्यासी को अपनी विचार-परंपरा का पुरखा बताकर उसे हथियाने की फूहड़ कोशिशें करती रही हैं और अब भी कर रही हैं, ताकि उसकी प्रखर सामाजिक चेतना का छद्म सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पक्ष में इस्तेमाल किया जा सके।

चूंकि इस खतरे का अंदाजा विवेकानंद को भी था, लिहाजा उन्होंने अपने प्रसिद्ध व्याख्यान 'कास्ट, कल्चर एंड सोशलिज्म’ में कहा था- कुछ लोग देशभक्ति की बातें तो बहुत करते हैं, लेकिन मुख्य बात है- ह्दय की भावना। यह देखकर आपके मन में क्या भाव आता है कि न जाने कितने समय से देवों और ऋषियों के वंशज पशुओं जैसा जीवन बिता रहे हैं? देश पर छाया अज्ञान का अंधकार क्या आपको सचमुच बेचैन करता है?...यह बेचैनी ही आपकी देशभक्ति का पहला प्रमाण है।

चूंकि विवेकानंद राजनेता नहीं, बल्कि संन्यासी थे-समाज विज्ञानी संन्यासी, लिहाजा वे हिन्‍दू समाज की खूबियों और खामियों से भलीभांति परिचित थे। वे योद्धा संन्यासी थे, इसलिए हिन्‍दू समाज में व्याप्त बुराइयों और जड़ता पर निर्ममता से प्रहार करते थे। हिन्‍दू समाज में आज जो कट्टरता व्याप्त है, उसके खतरे को विवेकानंद की दी हुई चेतावनी से भी समझा जा सकता है। उन्होंने अपने समय के हिन्‍दू कट्टरपंथियों और पाखंडी धर्माचार्यों को ललकारते हुए 'कास्ट, कल्चर एंड सोशलिज्म' में ही कहा है- शूद्रों ने अपने हक मांगने के लिए जब भी मुंह खोला, उनकी जीभें काट दी गईं। उनको जानवरों की तरह चाबुक से पीटा गया।

लेकिन अब आप उन्हें उनके अधिकार लौटा दो, वरना जब वे जागेंगे और आप (उच्च वर्ग) के द्वारा किए गए शोषण को समझेंगे, तो अपनी फूंक से आप सबको उड़ा देंगे। यही (शूद्र) वे लोग हैं, जिन्होंने आपको सभ्यता सिखाई है और ये ही आपको नीचे भी गिरा देंगे। सोचिए कि किस तरह शक्तिशाली रोमन सभ्यता गॉलों के हाथों मिट्टी में मिला दी गई।

अपने इसी व्याख्यान में भारतीयजनों को आगाह करते हुए विवेकानंद ने कहा, सैकड़ों वर्षों तक अपने सिर पर गहरे अंधविश्वास का बोझ रखकर, केवल इस बात पर चर्चा में अपनी ताकत लगाकर कि किस भोजन को छूना चाहिए और किसको नहीं, और युगों तक सामाजिक अत्याचारों के तले सारी इंसानियत को कुचलकर आपने क्या हासिल किया और आज आप क्या हैं?...आओ पहले मनुष्य बनो और उन पंडे-पुजारियों को निकाल बाहर करो जो हमेशा आपकी प्रगति के खिलाफ रहे हैं, जो कभी अपने को सुधार नहीं सकते और जिनका ह्दय कभी भी विशाल नहीं बन सकता। वे सदियों के अंधविश्वास और जुल्मों की उपज हैं। इसलिए पहले पुजारी-प्रपंच का नाश करो, अपने संकीर्ण संस्कारों की कारा तोड़ो, मनुष्य बनो और बाहर की ओर झांको। देखो कि कैसे दूसरे राष्ट्र आगे बढ़ रहे हैं।

सांप्रदायिक नफरत फैलाने के अपने कार्यक्रम के तहत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके आनुषांगिक संगठन धर्मांतरण का भी खूब शोर मचाते हैं। इस बारे में विवेकानंद ने भी स्वीकारा है कि भारत में मुस्लिम शासकों के आगमन के बाद देश की आबादी के एक बड़े हिस्से ने इस्लाम कबूल कर लिया था, लेकिन साथ ही वे कहते हैं कि यह सब तलवार के जोर से नहीं हुआ था।

उन्होंने कहा है, भारत में मुस्लिम विजय ने शोषित, दमित और गरीब लोगों को आजादी का स्वाद चखाया और इसीलिए देश की आबादी का पांचवां हिस्सा मुसलमान हो गया। यह सोचना पागलपन के सिवाय कुछ नहीं है कि तलवार और जोर-जबर्दस्ती के जरिए हिंदुओं का इस्लाम में धर्मांतरण हुआ। सच तो यह है कि जिन लोगों ने इस्लाम अपनाया, वे जमींदारों और पुरोहितों के शिकंजे से आजाद होना चाहते थे। बंगाल के किसानों में हिंदुओं से ज्यादा मुसलमानों की तादाद इसलिए है कि बंगाल में बहुत ज्यादा जमींदार थे। संदर्भ: (Selected Works of Swami Vivekanand, Vol.3,12th edition,1979.p.294)

हिन्‍दू राष्ट्रवाद के झंडाबरदार मुसलमानों के प्रति अपनी नफरतभरी विचारधारा को वैधानिकता का जामा पहनाने के लिए स्वामी विवेकानंद के नाम का इस्तेमाल लंबे समय से करते आ रहे हैं, उनके समय में भी करते थे। लेकिन चूंकि ऐसे लोगों की क्षुद्र मानसिकता और मुसलमानों के प्रति उनकी द्वेष-भावना से विवेकानंद भलीभांति परिचित थे, लिहाजा उन्होंने कहा था, इस अराजकता और कलह के बीच भी मेरे मस्तिष्क में संपूर्ण साबूत भारत की जो तस्वीर उभरती है, वह शानदार और अद्वितीय है, उसमें वैदिक दिमाग और इस्लामिक शरीर होगा। इस्लामिक शरीर से उनका तात्पर्य वर्ग और जातिविहीन समाज से था।

कहा जा सकता है कि स्वामी विवेकानंद अगर आज जिंदा होते तो उनकी नसीहतें सुनकर हिंदू कट्टरता के प्रचारक उन्हें भी सूडो सेकुलर, शहरी नक्सली या हिन्‍दू विरोधी करार देकर पाकिस्तान चले जाने की सलाह दे रहे होते। क्योंकि जिस तरह उनके लिए गांधी, आंबेडकर, सुभाष, सरदार पटेल को पचाना मुमकिन नहीं है, उसी तरह विवेकानंद को हजम करना भी उनके लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है।

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