कानूनों को राजनीति की फुटबॉल न बनाया जाए

संदीप तिवारी
सोमवार, 4 जुलाई 2016 (20:18 IST)
साठ वर्ष से अधिक समय बाद देश की केंद्र सरकार को देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की जरूरत महसूस हो रही है और इसके लागू किए जाने की संभावना पर भी विचार किया जाने लगा है। सरकार ने विधि आयोग से कहा है कि वह समान नागरिक संहिता बनाने की संभावनाएं तलाशे और विधि आयोग को जल्द से जल्द इस बारे में रिपोर्ट पेश करने को कहा गया है। आयोग के प्रमुख बलबीरसिंह चौहान सभी पक्षों और राजनीतिक दलों से इस मसले पर चर्चा करेंगे।
हालांकि जानकारों के मुताबिक देश में समान नागरिक संहिता लागू करने का भारी विरोध हो सकता है। समान नागरिक संहिता का मतलब है हर नागरिक के लिए विवाह और उत्तराधिकार जैसे मामलों में एक जैसे कानून। फिलहाल देश में हिंदू और मुस्लिमों के लिए अलग-अलग व्यापक नागरिक कानून हैं।
 
जबकि उच्चतम न्यायालय ने भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 118 को असंवैधानिक घोषित करते हुए विभिन्न पंथों, सम्प्रदायों तथा धर्मावलम्बियों पर लागू होने वाले व्यक्तिगत कानूनों में एकरूपता तथा स्पष्टता लाने की अपरिहार्यता पर जोर दिया है। न्यायालय कई बार विधायिका को याद दिला चुका है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 में सम्पूर्ण राज्य क्षेत्र में एक समान कानून बनाने का निर्देश है।
 
अनुच्छेद 44 में एक ऐसा उपबंध है, जिसे क्रियान्वित करने में राज्य आनाकानी करता रहा है क्योंकि इसे क्रियान्वित करने को लेकर राजनीतिक नफा-नुकसान पर अधिक विचार किया जाता है। केन्द्र सरकार ने 1954 में विशेष विवाह अधिनियम पारित किया था, इसके बाद हिन्दुओं की वैयक्तिक विधि में एकरूपता लाने के लिए हिन्दू विवाह अधिनियम, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, हिन्दू दत्तक एवं भरण-पोषण अधिनियम तथा हिन्दू संरक्षण अधिनियम पारित किए गए।
 
इन कानूनों के द्वारा हिन्दुओं में एक से अधिक विवाह पर रोक लगाने, कतिपय परिस्थितियों में न्यायिक पृथक्करण तथा तलाक की व्यवस्था करने तथा पिता की सम्पत्ति में पुत्री की भागीदारी देने की व्यवस्था की गई थी लेकिन उस समय संसद में कांग्रेस का प्रचंड बहुमत था, लेकिन तब भी पंडित नेहरू मुश्किल से इस विधेयक को पारित करा सके थे। ‍‍विदित हो कि तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद भी इस विधेयक के कुछ प्रावधानों से खुश नहीं थे।
 
लेकिन, जब संविधान में अनुच्छेद 44 जोड़ा जा रहा था तब मुस्लिम सदस्यों ने इसका विरोध किया था। उनका कहना था कि यह उनके वैयक्तिक अधिकारों के क्षरण का आधार बनेगा। लेकिन इसके जवाब में कहा गया था कि भारत के अन्यान्य क्षेत्रों में वृहत् तथा समान विधियां पहले से ही लागू हैं। तब यह भी कहा गया कि हालांकि विभिन्न वैयक्तिक विधियों में एकरूपता नहीं है, लेकिन वे ऐसी भी पवित्र नहीं है जिन्हें छुआ न जा सके। लेकिन सरकार के रवैए के बावजूद इस तरह के प्रावधान होली काऊ (पवित्र गाय) बने रहे जिन्हें छूने की हिम्मत सरकारों की नहीं हुई।  
 
जहां केन्द्र का मानना था कि विवाह, विरासत तथा उत्तराधिकार ऐसे विषय धर्म से अलग किए जाने चाहिए तथा इनमें समानता लाने से राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी। लोगों को विश्वास में लेते हुए यह भी कहा गया था कि भविष्य में कोई विधायिका वैयक्तिक विधियों में ऐसा संशोधन नहीं करेगी जो जनमत के विरुद्ध हो। बाद में, कई बार ऐसे विवाद भी हुए जिसमें समान व्यवहार संहिता की आवश्यकता महसूस की गई, लेकिन अपने राजनीतिक हितों को बनाए रखने के लिए सरकारों ने इन मामलों में घुटने टेके रखना ही बेहतर समझा क्योंकि ऐसा करने पर उनकी सत्ता पर पकड़ प्रभावित हो सकती थी। 
 
इस कारण से यह मुद्‍दे विवाद का विषय बने रहे। वर्ष 1985 में मोहम्मद अहमद खान बनाम शाहबानो के बहुचर्चित मुकदमे में उच्चतम न्यायालय ने समान नागरिकता कानून की अपरिहार्यता को रेखांकित किया तथा राष्ट्रीय एकता के परिप्रेक्ष्य में इसे जरुरी बताया था। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि यदि कोई मुस्लिम महिला तलाक के बाद निर्वाह करने में असमर्थ है तो वह दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन अपने पति के विरुद्ध भरण-पोषण के लिए दावा कर सकती है।
 
मुस्लिम सम्प्रदाय के एक बड़े हिस्से ने इस निर्णय का बहुत विरोध हुआ जिसके चलते सरकार आगे चुनावी राजनीति को देखते हुए घुटनों पर आ गई। सरकार को अपने ही इस निर्णय को अप्रभावी करने के लिए संसदीय कानून बनाना पड़ा। समान नागरिक संहिता के मुद्दे को तो पहले से सांप्रदायिक चश्मे से देखा जाता था लेकिन अब यह 'राजनीतिक कामधेनु' बन गई है। 
 
यह तर्क दिया जाता है कि एक सम्प्रदाय में चार विवाहों की अनुमति है, जबकि दूसरे में बहुविवाह पर पाबंदी है। इसी प्रकार स्त्रियों को पिता की सम्पत्ति में हिस्सेदारी देने पर कड़ी आपत्ति दर्ज कराई जाती है। वास्तविकता यह है कि समान संहिता के विरोध के पीछे पुरुष का अहम है जो स्त्रियों को बराबरी का दर्जा नहीं देना चाहता तथा सामन्ती तरीके से वैयक्तिक मामलों में पुरुष श्रेष्ठता का सदैव ही दावा करता है।
 
वास्तविकता यह है कि हिन्दू तथा मुस्लिम वैयक्तिक विधियों (पर्सनल लॉज) में कानून का स्पष्ट झुकाव पुरुषों के पक्ष में है और उनके अहम की तुष्टि करता है। इसलिए पुरुष इनमें किसी भी परिवर्तन को सद्‌भावना एवं सहजता से नहीं लेते हैं और राजनीतिक कारणों से इसका विरोध करने का प्रयास ही नहीं किया जाता है।
 
सामान्य रूप से इन निजी कानूनों में विवाह, तलाक, विरासत, उत्तराधिकार, दत्तक ग्रहण तथा भरण-पोषण से संबंधित मामले आते हैं। इनको संचालित करने वाली विधियों में स्त्रियों को समानता का अधिकार देने को लेकर विवाद किया जाता है। विभिन्न पंथों, सम्प्रदायों तथा धर्मों में स्त्रियों को उनकी बराबरी का हक न देने वाले नियम, परिनियम तथा रूढ़ियां हैं और उनको सुधारने तथा प्रगतिशील बनाने में पुरुषों की सामंतवादी मानसिकता आड़े आती है। 
 
पुरुषों के इसी संकीर्ण रवैए के चलते स्त्रियों को बराबरी की दृष्टि से नहीं देखा जाता तथा इसी कारण प्रत्येक ऐसे कानून का विरोध होता है जिनमें उनको बराबरी देने की बात होती है। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम में बिना वसीयती तथा स्वअर्जित सम्पत्ति में पत्नी तथा पुत्री (विवाहित या अविवाहित) को बराबरी का अधिकार है लेकिन पुत्रियां अपने विवाह में दिए गए दहेज के कारण अपना हिस्सा छोड़ देती हैं तथा बेटों को जीवनपर्यन्त इसका उपभोग करने की छूट होती है।
 
हिंदू परिवार के मुखिया की मृत्यु के बाद सम्पत्ति पुन: पुत्रों में बंट जाती है और स्त्रियां अपने परिवार से सम्बन्ध बनाए रखने के लिए भी अपना हिस्सा नहीं मांगती हैं। व्यवहार में पैतृक सम्पत्ति में तो सिर्फ पुरुष सदस्यों को ही हिस्सा मिलता है। स्त्रियों को तो अपने मायके में भी रहने का अधिकार तभी तक होता है यदि वे अविवाहित हों अथवा तलाकशुदा। कृषि योग्य भूमि को टुकड़ों से बचाने के लिए महिलाओं को हिस्सेदारी नहीं दी जाती। 
 
इसी तरह मुस्लिम कानूनों में भी स्थिति महिलाओं के हितों के पूरी तरह प्रतिकूल है। यह कानून  शरीयत अधिनियम 1937,  मुस्लिम विवाह-विघटन अधिनियम 1939 तथा मुस्लिम स्त्री (विवाह-विच्छेदन पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम 1986 में संहिताबद्ध हैं। शरीयत कानून कहता है कि मुस्लिम वैयक्तिक कानून में केवल पुरुषों को ही प्राथमिकता होगी। इसे 'ईश्वरीय कानून' माना जाता है क्योंकि दावा किया जाता है कि यह कुरान की व्याख्याओं पर आधारित है। सन् 1939 का अधिनियम मुस्लिम स्त्रियों को तलाक की इजाजत केवल कुछ अत्यन्त दुखद परिस्थितियों में देता है जैसे पति की क्रूरता तथा नपुंसकता, जिसे सिद्ध करना आसान नहीं है, वहीं पुरुष को तीन बार चलाक बोलकर तलाक लेने का अधिकार हासिल है।
 
उल्लेखनीय है कि तीन तलाक (तलाक-उद-विदा) पर कई मुस्लिम देशों में रोक है, लेकिन भारत में इसे मान्यता प्राप्त है। भारत में अभी भी पुरुषों को चार विवाह की छूट है जबकि स्त्रियां एक से अधिक विवाह नहीं कर सकतीं। बहुत से मुस्लिम देशों में एक विवाह का नियम बना लिया है और मुस्लिम विधि के अनेक नियम बदल दिए गए हैं। ईरान, मिस्र, मोरक्को, सीरिया, तुर्की, ट्‌यूनीशिया तथा पाकिस्तान ऐसे देश हैं जहां यह बदलाव किया गया है। ईसाइयों पर लागू कानूनों में भी अपेक्षित आदर्श स्थिति नहीं है। 
 
पुरुष वर्ग अपने पंथ के अन्दर समानता, एकरूपता को लागू करने के प्रति उत्सुक और ईमानदार नहीं हैं क्योंकि वे स्त्रियों को बराबरी का हक नहीं देना चाहते जबकि वैयक्तिक कानूनों में एकरूपता तथा समानता स्त्रियों को समान अधिकार देने से सीधे जुड़ी हुई है। शाहबानो के मुकदमे के बाद से समान नागरिक संहिता का मुद्दा वोट बैंक की राजनीति से ही प्रेरित रहा है।
 
इसके पूर्व अन्यान्य निर्णयों में उच्चतम न्यायालय उन कानूनों को निरस्त कर चुका है जिनमें स्त्री के गर्भपात कराने के लिए पति की सहमति की आवश्यकता होती थी। इसी प्रकार दत्तक ग्रहण के मामले में स्त्री को अपने पति की सहमति की अपरिहार्यता भी अवैध घोषित की जा चुकी है।
 
हिन्दू विधि में एक विवाह की अनिवार्यता को चुनौती देने वाली यह याचिका भी खारिज कर दी गई थी जिसमें कहा गया था कि पुत्र न जनने वाली स्त्री के पति को दूसरा विवाह करने की इस आधार पर अनुमति होनी चाहिए क्योंकि पुत्र ही पिण्डदान करता है।
 
न्यायालय का कहना था कि यदि किसी दम्पत्ति के पुत्र नहीं है तो यह कार्य दत्तक पुत्र से कराया जा सकता है क्योंकि वैज्ञानिक परीक्षणों से सिद्ध हो गया है कि पुत्र जनने में अक्षमता स्त्री की नहीं, बल्कि पुरुष की होती है।
 
हिन्दू विधि में संशोधन इस कारण सम्भव हो सका क्योंकि यह बहुसंख्यक वर्ग के लिए थे तथा विधायिका में इनका बहुमत था। मुस्लिम निजी कानूनों में परिवर्तन इसलिए नहीं किया जाता क्योंकि इनका विरोध सत्ता की राजनीति पर असर डालता है। साथ ही, मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व करने वाली एक सर्वमान्य संस्था का भी अभाव है जिसे वास्तव में बहुसंख्यक मुस्लिमों का आदर व समर्थन प्राप्त हो। स्त्रियों को शिक्षा, उनको समान अवसर तथा पुरुषों की समकक्षता से धर्म की हानि नहीं, बल्कि उन्नयन होगा। जो पंथ, संप्रदाय दीवार पर साफ-साफ लिखी इबारत को नहीं पढ़ पाता उसकी प्रगति होना संभव नहीं है।
 
केंद्र में सत्ता हासिल करने के कुछ ही महीने बाद सत्तारूढ़ दल के गोरखपुर से सांसद महंत आदित्यनाथ ने देश में समान नागरिक संहिता लागू करने पर अपनी सरकार से रुख स्पष्ट करने की मांग की थी। भारतीय जनता पार्टी ने भी लोकसभा चुनाव के अपने चुनाव घोषणा-पत्र में वादा किया था कि सत्ता में आने पर वह समान नागरिक संहिता को लागू करेगी। केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने भी तत्काल प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि नागरिक संहिता की दिशा में ऐसी किसी पहल के लिए व्यापक विचार-विमर्श जरूरी है।
 
इस बारे में संदेह है कि सरकार मुस्लिम महिलाओं के हित और उनके कल्याण को ध्यान में रखकर समान नागरिक संहिता के लिए पहल करना चाहती है? किसी तबके के कल्याण की चिंता की बजाय इसमें राजनीतिक दृष्टिकोण नजर आता है। समान नागरिक संहिता को संविधान के अनुच्छेद 44 के अंतर्गत रखने में कोई बात तो होगी, जिसके तहत ऐसी किसी नीति को लागू करना सरकार के लिए आवश्यक नहीं है और इसे केवल सरकार का कर्तव्य माना गया है। 
 
जब जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री थे तब लंबी बहस के बाद यह तय हुआ था कि उपनिवेशकालीन भारत में 1840 की लेक्स लोसाय रिपोर्ट ने जोर देकर कहा था कि अपराध, सबूत और अनुबंध को लेकर कानूनों में समान संहिता आवश्यक है, लेकिन इसके बावजूद इस समिति ने हिंदू और मुस्लिमों के निजी कानूनों को ऐसी किसी संहिता से दूर ही रखने की सिफारिश की थी। कारण साफ है अंग्रेज नहीं चाहते थे कि देश में समानता और कानून का शासन स्थ‍ापित हो।
 
समान नागरिक संहिता होनी चाहिए या नहीं, यह लंबे समय से बहस का विषय रहा है। ज्यादातर पूर्ववर्ती सरकारों ने समान नागरिक संहिता लागू करने में कभी कोई रुचि नहीं दिखाई है। यहां तक कि 1998-2004 के बीच केंद्र की सत्ता में रही एनडीए सरकार ने इस दिशा में शायद ही कोई प्रयास किया हो। यदि महिलाओं के कल्याण की गंभीर चिंता से समान नागरिक संहिता को लागू किया जा रहा हो तो इस विचार का स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन यदि सिर्फ वोट बैंक राजनीति के नजरिए से, हिंदू मतों की लामबंदी के लिए ऐसा किया जा रहा हो तो पार्टी बहुत गंभीर गलती करेगी। ऐसा इसलिए क्योंकि सारे हिंदू समान नागरिक संहिता के विचार से सहमत नहीं हैं।
 
सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) ने इस मुद्‌दे पर सर्वे कराया था। सर्वे में 57 फीसदी लोग विवाह, तलाक, संपत्ति, गोद लेने और भरण-पोषण जैसे मामलों में समुदायों को पृथक कानून की इजाजत के पक्ष में थे। सिर्फ 23 फीसदी लोगों ने समान नागरिक संहिता के पक्ष में राय जाहिर की। 20 फीसदी लोगों ने तो इस मुद्‌दे पर कोई राय ही जाहिर नहीं की। संपत्ति और विवाह के मामले में समुदायों के अपने कानून रहने देने के पक्ष में 55 फीसदी हिंदुओं ने राय जाहिर की तो ऐसे मुस्लिम 65 फीसदी थे। अन्य अल्पसंख्यक समुदायों (ईसाई, बौद्ध, सिख, जैन) ने सर्वे में इससे मिलती-जुलती या इससे थोड़ी ज्यादा संख्या में इसे समर्थन दिया। कहने का अर्थ है कि  अल्पसंख्यक समुदाय मौजूदा व्यवस्था कायम रखने के पक्ष में हैं।
 
अब जिस प्रश्न पर विचार करने की जरूरत है, वह यह है कि क्या वाकई देश में समान नागरिक संहिता की गंभीर आवश्यता है? इसके पक्षधर लोगों का कहना है कि भारत में सभी नागरिकों के लिए एक जैसा नागरिक कानून होना चाहिए, चाहे वे किसी धर्म के क्यों ना हों। हमें याद रखना चाहिए कि इस तरह के कानून के अभाव में महिलाओं के बीच आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा बढ़ती जा रही है। 
 
हालांकि सरकारें इस तरह का कानून बनाने की बात करती रही हैं, लेकिन राजनीतिक मजबूरियों की वजह से किसी सरकार ने इसे लागू करने के लिए कभी कोई ठोस पहल नहीं की है। विदित हो कि 
1937 से मुस्लिम पर्सनल लॉ में कोई सुधार नहीं हुआ। समान नागरिक संहिता की बात आजादी के बाद हुई थी, लेकिन तब भी इसका विरोध हुआ जिस वजह से उसे 44वें अनुच्छेद में रखा गया।
 
हमारे सामने गोआ का उदाहरण भी है जहां समान नागरिक संहिता लागू है। पर जब भी समान नागरिक संहिता की बात होती है, उस पर राजनीति शुरू हो जाती है और कोई भी इस मामले में हाथ नहीं डालना चाहता है। हर समाज की महिलाएं बराबरी चाहती हैं, इसलिए समान नागरिक संहिता होनी चाहिए। मगर ना तो भाजपा इस बारे में गंभीर है और ना ही दूसरे राजनीतिक दल। मुस्लिम पर्सनल लॉ 1400 साल पहले बना था और इसे किसी संसद ने नहीं बनाया था। 
 
पर हमारी संसद ने हिन्दू सक्सेशन एक्ट (उत्तराधिकार कानून) बनाया है और यही सबसे ज्यादा महिला विरोधी है। इस कानून में कमी का एक उदाहरण देखें। सभी हिन्दू पुरुषों पर यह कानूनी बाध्यता है कि वे अपने बूढ़े माता-पिता का भरण पोषण करें, लेकिन इसके साथ यह शर्त है कि माता-पिता हिन्दू हों, जबकि मुस्लिमों पर ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। 
 
आज भी लिंग भेद हर कानून में है इसलिए जरूरी है कि सभी कानूनों की समीक्षा हो। भारत विविधता का देश है, इसलिए बेहतर होगा कि एक समान कानून की बजाय सभी कानूनों की समीक्षा की जाए और उन सब में समानता लाई जाए। सच तो यह है कि सभी राजनीतिक दल यूनिफॉर्म सिविल कोड की तभी बात करते हैं जबकि इससे कोई राजनीतिक लाभ मिलने की गुंजाइश हो।
 
इस मुद्दे पर कोई भी राजनीतिक दल गंभीर नही है। इसी तरह सिखों का कहना है कि उनका समाज गुरु ग्रंथ साहिब के अनुसार चलता है, इसलिए उन्हें‍ हिंदुओं के लिए बनाए गए कानूनों के साथ नत्थी नहीं किया जाए। 
 
देश में मुस्लिम महिलाओं की मांग है कि तीन तलाक के बारे में एक अलग कानून बनाया जाना चाहिए। साथ ही, समाज में सुधारों के लिए बहस की जरूरत है क्योंकि समाज में सुधारों की गुंजाइश हमेशा ही बनी रहती है। इसके लिए समाज को ही तैयार होने की जरूरत है और इसके लिए आम राय और सहमति चाहिए क्योंकि लोकतांत्रिक व्यवस्‍था में इसी तरह से परिवर्तन संभव होता है।

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