शीला के काम ने कांग्रेस को फिर जिताया, भाजपा को फिर मिली करारी हार

दिल्ली विधानसभा चुनाव-2003

Webdunia
बुधवार, 5 फ़रवरी 2020 (18:35 IST)
केंद्र में एनडीए की सरकार होने के बावजूद दिल्ली की मुख्यमंत्री के तौर पर शीला दीक्षित को काम करने में कोई खास परेशानी नहीं हुई। पूरे पांच साल के दौरान केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच शायद ही कभी टकराव की स्थिति पैदा हुई हो। हालांकि दिल्ली में कांग्रेस की सरकार बनने के एक साल बाद यानी 1999 में ही केंद्र में वाजपेयी सरकार गिरने की वजह से देश को फिर मध्यावधि चुनाव का सामना करना पडा।
 
दिल्ली की जिस जनता ने एक साल पहले विधानसभा चुनाव में भाजपा को बुरी तरह धूल चटाई थी, उसी जनता ने इस बार लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सातों सीटें भाजपा की झोली में डाल दी थीं। लेकिन जब 2003 के विधानसभा चुनाव का वक्त आया तो कांग्रेस पूरे आत्मविश्वास के साथ चुनाव मैदान में उतरी, क्योंकि शीला दीक्षित सरकार के पास थे 5 साल के विकास कार्य और उनकी निरंतरता का मुद्दा। दूसरी ओर कई गुटों में बंटी भाजपा बिल्कुल मुद्दाविहीन स्थिति में थी। अलबत्ता वाजपेयी सरकार का 'शाइनिंग इंडिया’ और 'फील गुड फैक्टर’ का प्रचार जोरों पर था। 
 
दिल्ली के मौजूदा मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल दावा करते हैं कि उनकी सरकार देश की पहली ऐसी सरकार है जो काम के आधार पर वोट मांग रही है। लेकिन हकीकत यह है कि 2003 में दिल्ली की चौथी विधानसभा के चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और उनकी पार्टी ने भी अपनी सरकार के कामकाज के आधार पर वोट मांगे थे। 
 
शीला दीक्षित दिल्ली को विश्व स्तरीय शहर बनाने के नारे के साथ चुनाव मैदान में उतरी थीं। पिछले पांच सालों के दौरान शीला दीक्षित को बाहरी नेता बताते हुए सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर, जयप्रकाश अग्रवाल, रामबाबू शर्मा आदि दिग्गज कांग्रेसी नेता एकजुट हुए थे, लेकिन इनमें से कोई भी शीला दीक्षित के व्यक्तित्व और नेतृत्व को चुनौती देने की स्थिति में नहीं था। पार्टी आलाकमान का भरोसा तो शीला पर पूरी तरह कायम ही था।
 
दूसरी ओर भाजपा संगठन के तौर पर कई गुटों में बिखरी हुई थी। दिल्ली के सभी भाजपाई दिग्गज राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय थे। तीनों पूर्व मुख्यमंत्री सुषमा स्वराज, मदनलाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा और दिल्ली क्षेत्र के अलग-अलग क्षेत्रों के सांसद जगमोहन तथा विजय गोयल केंद्र सरकार में मंत्री थे और एक अन्य सांसद विजय कुमार मल्होत्रा पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता का दायित्व संभाल रहे थे।
 
इनमें से सुषमा स्वराज और जगमोहन को छोडकर बाकी सभी मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनने की हसरत रखते थे। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष वेंकैया नायडू जरूर थे, लेकिन पार्टी में होता वही था जो वाजपेयी-आडवाणी चाहते थे। दोनों ही इस बात को अच्छी जानते थे कि दिल्ली भाजपा में जनाधार वाले नेता मदनलाल खुराना ही हैं और उन्हीं की अगुवाई में चुनाव लड़कर कांग्रेस को चुनौती दी जा सकती है।
 
हालांकि पार्टी के बाकी दिग्गज खुराना को पार्टी की कमान सौंपने के खिलाफ थे, लेकिन सभी की आपत्ति और असहमति को नजरअंदाज कर पार्टी नेतृत्व ने तय कर दिया कि खुराना ही चुनाव में पार्टी की अगुवाई करेंगे। खुराना के प्रबल प्रतिद्वंद्वी विजय कुमार मल्होत्रा को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया गया। हालांकि वे चाहते थे कि पार्टी उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाए। यही चाहत साहिब सिंह वर्मा और विजय गोयल की भी थी। 
 
पार्टी की कमान संभालते ही खुराना भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने के लिए रथयात्रा पर निकल पडे। पार्टी के सभी वरिष्ठ नेताओं ने उनकी रथयात्रा से दूरी बनाए रखी। चुनाव की तारीख घोषित होने के बाद उम्मीदवारों के चयन में भी जबर्दस्त बंदरबांट हुई। सभी गुटों के बीच संतुलन साधने और सभी को खुश करने के चक्कर में कई सीटों पर कमजोर दावेदारों को टिकट दे दिया गया।
 
दिल्ली की जनता ने दिल्ली को वर्ल्ड क्लास सिटी बनाने के शीला दीक्षित के नारे को हाथों-हाथ लिया और उनके पिछले 47 साल के कामकाज को भी स्वीकृति दी। चुनाव नतीजे आए तो कांग्रेस को 70 में से 47 सीटें हासिल हुईं। भाजपा महज 20 सीटों पर सिमट गई, जो कि पिछले चुनाव के मुकाबले सिर्फ तीन ज्यादा थी।
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जनता दल (सेक्यूलर) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को एक-एक सीट मिली। एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार जीता। इस चुनाव में कुल 84, 48, 324 मतदाता थे, जिनमें से 56.42 फीसद लोगों ने अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया। कांग्रेस को कुल 48 फीसद और भाजपा को 34 फीसद वोट मिले। 
 
चुनाव नतीजों में कांग्रेस को शीला दीक्षित की अगुवाई में दो तिहाई बहुमत मिलने के बावजूद नई सरकार के गठन का काम नेता चुने जाने के सवाल पर एक सप्ताह तक रुका रहा। पिछली विधानसभा के अध्यक्ष चौधरी प्रेम सिंह ने शीला दीक्षित को चुनौती देते हुए नेतृत्व के लिए अपनी दावेदारी पेश कर दी थी। लेकिन आखिरकार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने शीला दीक्षित के नाम को ही हरी झंडी दिखाई।
 
यह शीला दीक्षित की बड़ी राजनीतिक जीत थी और स्वतंत्र रूप से फैसले लेने का आलाकमान का संकेत भी। उन्होंने न तो चौधरी प्रेम सिंह को दोबारा विधानसभा अध्यक्ष बनाया और न ही अपनी सरकार में मंत्री। पिछली सरकार में मंत्री रहे अजय माकन इस बार विधानसभा अध्यक्ष बना दिए गए। डॉ. अशोक वालिया, राजकुमार चौहान और हारून यूसुफ पिछली बार की तरह इस बार भी मंत्री बने।
 
अरविंदर सिंह लवली, योगानंद शास्त्री और मंगतराम सिंघल मंत्रिपरिषद में नए चेहरों के तौर पर शामिल किए गए। कांग्रेस में शीला दीक्षित का दबदबा पूरी तरह कायम हो गया। उन्होंने अपने दूसरे कार्यकाल में भी अपनी सरकार के पिछले कामों को जारी रखा और उसी के आधार पर 2008 का विधानसभा चुनाव भी लड़ा।
 

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