प्रत्येक व्यक्ति के लिए होता है ध्यान का अलग ही प्रकार, जानिए

अनिरुद्ध जोशी
अष्टांग योग में ध्यान को सातवां योगांग माना गया है। मतलब यह कि पहले आप छह सीढ़ियां क्रास करें फिर ही ध्यान में हो पाएंगे परंतु कुछ ऐसे भी लोग रहते हैं कि जो सीधे ध्यान ही सीखते हैं। कई लोग योगा सेंटर में जाकर ध्यान करते हैं या किसी से सीख कर ध्यान करते हैं परंतु किस व्यक्ति को किस तरह का ध्यान करना चाहिए यह कोई नहीं जानता। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के स्वाभाव और मनोदशा के अनुसार ही ध्यान होता है। जो व्यक्ति अपने माइंड का ध्यान चयन करके उसे करता है तो वह ध्यान में जल्दी ही प्रगति कर सकता है। आओ जानते हैं ध्यान के सामान्य प्रकार।
 
 
ध्यान के लगभग 200 से ज्यादा प्रकार है। भगवान शंकर ने माता पार्वती को ध्यान के 112 प्रकार बताए थे। यह ध्यान प्रत्येक व्यक्ति की मनोदशा अनुसार है। यह भी कह सकते हैं कि इस धरती पर 112 प्रकार की मनोदशा के लोग रहते हैं। 
 
आधुनिक दौर में ध्यान को चार भागों में बांटा जा सकता है- 
 
1.देखना : देखने को दृष्टा या साक्षी ध्यान कहते हैं। ऐसे लाखों लोग हैं जो देखकर ही सिद्धि तथा मोक्ष के मार्ग चले गए। इसे दृष्टा भाव या साक्षी भाव में ठहरना कहते हैं। आप देखते जरूर हैं, लेकिन वर्तमान में नहीं देख पाते हैं। आपके ढेर सारे विचार, तनाव और कल्पना आपको वर्तमान से काटकर रखते हैं। बोधपूर्वक अर्थात होशपूर्वक वर्तमान को देखना और समझना (सोचना नहीं) ही साक्षी या दृष्टा ध्यान है।
 
2.सुनना : सुनने को श्रवण ध्यान कहते हैं।  सुनकर श्रवण बनने वाले बहुत है। कहते हैं कि सुनकर ही सुन्नत नसीब हुई। सुनना बहुत कठीन है। सुने ध्यान पूर्वक पास और दूर से आने वाली आवाजें। आंख और कान बंदकर सुने भीतर से उत्पन्न होने वाली आवाजें। जब यह सुनना गहरा होता जाता है तब धीरे-धीरे सुनाई देने लगता है- नाद। अर्थात ॐ का स्वर।
 
3. श्‍वास लेना : श्वास लेने को प्राणायाम ध्यान कहते हैं। बंद आंखों से भीतर और बाहर गहरी सांस लें, बलपूर्वक दबाब डाले बिना यथासंभव गहरी सांस लें, आती-जाती सांस के प्रति होशपूर्ण और सजग रहे। बस यही प्राणायाम ध्यान की सरलतम और प्राथमिक विधि है।
 
4.आंखें बंदकर मौन होकर सोच पर ध्‍यान देना : आंखें बंदकर सोच पर ध्यान देने को भृकुटी ध्यान कह सकते हैं। आंखें बंद करके दोनों भोओं के बीच स्थित भृकुटी पर ध्यान लगाकर पूर्णत: बाहर और भीतर से मौन रहकर भीतरी शांति का अनुभव करना। होशपूर्वक अंधकार को देखते रहना ही भृकुटी ध्यना है। कुछ दिनों बाद इसी अंधकार में से ज्योति का प्रकटन होता है। पहले काली, फिर पीली और बाद में सफेद होती हुई नीली।
 
उक्त चार तरह के ध्यान के हजारों उप प्रकार हो सकते हैं। उक्त चारों तरह का ध्यान आप लेटकर, बैठकर, खड़े रहकर और चलते-चलते भी कर सकते हैं। उक्त तरीकों को में ही ढलकर योग और हिन्दू धर्म में ध्यान के हजारों प्रकार बताएं गए हैं जो प्रत्येक व्यक्ति की मनोदशा अनुसार हैं। भगवान शंकर ने मां पार्वती को ध्यान के 112 प्रकार बताए थे जो 'विज्ञान भैरव तंत्र' में संग्रहित हैं।
 
अब हम ध्यान के पारंपरिक प्रकार की बात करते हैं। 
 
यह ध्यान तीन प्रकार का होता है- 1.स्थूल ध्यान, 2.ज्योतिर्ध्यान और 3.सूक्ष्म ध्यान।
 
1.स्थूल ध्यान : स्थूल चीजों के ध्यान को स्थूल ध्यान कहते हैं- जैसे सिद्धासन में बैठकर आंख बंदकर किसी देवता, मूर्ति, प्रकृति या शरीर के भीतर स्थित हृदय चक्र पर ध्यान देना ही स्थूल ध्यान है। इस ध्यान में कल्पना का महत्व है।
 
2.ज्योतिर्ध्यान : मूलाधार और लिंगमूल के मध्य स्थान में कुंडलिनी सर्पाकार में स्थित है। इस स्थान पर ज्योतिरूप ब्रह्म का ध्यान करना ही ज्योतिर्ध्यान है।
 
3.सूक्ष्म ध्यान : साधक सांभवी मुद्रा का अनुष्ठान करते हुए कुंडलिनी का ध्यना करे, इस प्रकार के ध्यान को सूक्ष्म ध्यान कहते हैं।

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