पुस्तक समीक्षा: कवि कलम की चाह लेकर ‘सरहदें’...

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समीक्षक : संजीव वर्मा 'सलिल'
 
मूल्यों के अवमूल्यन, नैतिकता के क्षरण तथा संबंधों के हनन को दिनोदिन सशक्त करती तथाकथित आधुनिक जीवनशैली विसंगतियों और विडंबनाओं के पिंजरे में आदमी को दम तोड़ने के लिए विवश कर रही है। 
 
कवि-पत्रकार सुबोध श्रीवास्तव की कविताएं बौद्धिक विलास नहीं, पारिस्थितिक जड़ता की चट्टान को तोड़ने में जुटी छेनी की तरह हैं। आम आदमी अविश्वास और निजता की हदों में कैद होकर घुट रहा है। सुबोधजी की कविताएं ऐसी हदों को सर करने की कोशिश से उपजी हैं। 
 
कवि सुबोध का पत्रकार उन्हें वायवी कल्पनाओं से दूर कर जमीनी सामाजिकता से जोड़ता है। उनकी कविताएं अनुभूत की सहज-सरल अभिव्यक्ति करती हैं। वर्तमान नकारात्मक पत्रकारिता के समय में एक पत्रकार को उसका कवि आशावादी बनाता है।
 
सब कुछ खत्म/ नहीं होता
सब कुछ/ खत्म हो जाने के बाद भी
बाकी रह जाता है/ कहीं कुछ
फिर सृजन को।
हां, एक कतरा उम्मीद भी/ खड़ी कर सकती है
हौसले और विश्वास की/ बुलंद इमारत।
 
अपने नाम के अनुरूप सुबोध ने कविताओं को सहज बोधगम्य रखा है। वे आतंक के सरपरस्तों को न तो मच्छर के दहाड़ने की तरह नकली चुनौती देते हैं, न उनके भय से नतमस्तक होते हैं अपितु उनकी साक्षात शांति की शक्ति और हिंसा की निस्सारिता से कराते हैं-
 
तुम्हें/ भले ही भाती हो
अपने खेतों में खड़ी/ बंदूकों की फसल
लेकिन/ मुझे आनंदित करती है
पीली-पीली सरसों/ और/ दूर तक लहलहाती
गेहूं की बालियों से उपजता/ संगीत।
तुम्हारे बच्चों को/ शायद
लोरियों-सा सुख भी देती होगी
गोलियों की तड़तड़ाहट/ लेकिन/ सुनो
कभी खाली पेट नहीं भरा करती
बंदूकें/ सिर्फ कोख उजाड़ती हैं।
 
सुबोध की कविताएं आलंकारिकता का बहिष्कार नहीं करतीं, नकारती भी नहीं, पर सुरुचिपूर्ण तरीके कथ्य और भाषा की आवश्यकता के संप्रेषण को अधिक प्रभावी बनाने के लिए उपकरण की तरह अनुरूप उपयोग करती हैं।
 
उसके बाद/ फिर कभी नहीं मिले/ हम-तुम
लेकिन/ मेरी जिंदगी को/ महका रही है
अब तक/ खुशबू/ तेरी याद की
क्योंकि/ यहां नहीं है/ कोई सरहद।
 
‘एहसास’ शीर्षक अनुभाग में संकलित प्रेमपरक रचनाएं लिजलिजेपन से मुक्त और यथार्थ के समीप हैं।
 
आंगन में/ जरा-सी धूप खिली
मुंडेर पे बैठी/ चिड़िया ने/ फुदककर
पंखों में छिपा मुंह/ बाहर निकाला
और/ चहचहाई/ तो यूं लगा/ कि तुम आ गए।
 
कवि मानव मन की गहराई से पड़ताल कर, कड़वे सच को भी सहजता और अपनेपन से कह पाता है-
 
जितना/ खौफनाक लगता है/ सन्नाटा
उससे भी कहीं ज्यादा/ डर पैदा करता है
कोई/ खामोश आदमी।
दोनों ही स्थितियां/ तकरीबन एक-सी हैं
फर्क सिर्फ इतना है कि/ सन्नाटा/ टूटता है तो
फिर पहले जैसा हो जाता है/ माहौल/ लेकिन
चुप्पी टूटने पे/ अक्सर/ बदला-बदला-सा
नजर आता है/ आदमी।
 
संग्रह के आकर्षण में डॉ. रेखा निगम, अजामिल तथा अशोक शुक्ल ‘अंकुश’ के चित्रों ने वृद्धि की है। प्रतिष्ठित कलमकार दिविक रमेशजी की भूमिका सोने में सुहागे की तरह है।
 
पुस्तक  सरहदें (कविता संग्रह)
लेखक - सुबोध श्रीवास्तव
प्रथम संस्करण- 2016
मूल्य- 120 रु./- 
प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, 942, आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद 211003।
ISBN 978-93-83969-72-2 / 
 

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