विदेशियों ने हमारी संस्कृति के शब्दों की ग़लत व्याख्या की: मोहन भागवत

Webdunia
शनिवार, 7 नवंबर 2020 (13:30 IST)

भोपाल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा है कि विदेशियों ने हमारी सनातन संस्कृति के शब्दों की ग़लत व्याख्या की। इसका परिणाम यह हुआ कि 'विश्व धर्म' बनने की क्षमता रखने वाला हमारा धर्म हमारे लिए सिर्फ़ 'रि‍लीजन' बनकर रह गया।

भागवत शुक्रवार शाम को संस्‍कृत शब्‍दों पर शोधपरक किताब 'संस्कृत नॉन-ट्रान्सलेटेबल्स: द इम्पोर्टेंस ऑफ़ संस्कृटाइज़िंग इंग्लिश के ऑनलाइन लोकार्पण कार्यक्रम को बतौर मुख्य अतिथि संबोधित कर रहे थे। इससे पहले श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के ट्रस्टी और कोषाध्यक्ष संत स्वामी गोविंद देव गिरि महाराज ने किताब का लोकार्पण किया।

नालंदा विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. विजय भाटकर भी कार्यक्रम में  उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन मेधाश्री ने किया। तुहीन सिन्हा ने लेखकों से संवाद किया।

जाने-माने लेखक राजीव मल्‍होत्रा और वैष्णव विद्वान सत्यनारायण दास बाबाजी द्वारा लिखित इस किताब का प्रकाशन अमरिलिस मंजुल पब्लिशिंग हाउस ने किया है। भागवत ने कहा कि शब्दों का ज्ञान, उनके अर्थ की अनुभूति और प्रत्यक्ष जीवन में उनके चलन का बहुत महत्व होता है। भावनाओं और विचारों को दूसरे तक पहुंचाने का साधन शब्द ही होते हैं। ग़लत शब्दों के इस्तेमाल के ग़लत परिणाम होते हैं।

भागवत ने कहा कि विदेशियों ने हमारे सांस्कृतिक वातावरण और रीति-रिवाज़ों को देखा, लेकिन अपने अनुभव और बुद्धि के हिसाब से उनकी व्याख्या की। इससे भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई। हम लोगों ने भी अपनी भाषा को उनके प्रभाव के अधीन कर दिया। उन्होंने अपनी सत्ता के लिए इसका दुरुपयोग किया। जिन लोगों ने विरोध किया, उन्हें दबा दिया गया। इससे हमारे शब्दों को लेकर गड़बड़ियां पैदा हुईं।

उन्होंने 'संस्कृत नॉन-ट्रान्सलेटेबल्स...' की प्रशंसा करते हुए कहा कि किताब में इस विषय पर शानदार चर्चा की गई है। किताब में यह शक्ति है कि इससे समझा जा सकता है कि हमारे शब्दों के वास्तविक अर्थ क्या हैं और उनमें निहित अर्थ कितने कल्याणकारी हैं।

इस अवसर पर आयोजित पैनल चर्चा में डॉ. सुभाष काक, डॉ. कपिल कपूर, डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी, चामु कृष्ण शास्त्री, मधु किश्वर, निकुंज त्रिवेदी और अर्णव केजरीवाल ने भी विचार रखे।

बाद में तुहीन सिन्हा के साथ हुई चर्चा में सत्यनारायण दास बाबाजी ने कहा कि संस्कृत ही हमारी संस्कृति की जड़ है। वहीं राजीव मल्होत्रा ने कहा कि वे इस किताब पर पिछले 25 वर्षों से काम कर रहे थे, और ये काम तब उनको ज़्यादा ज़रूरी लगने लगा जब बहुत से गुरु दुनिया भर में यह प्रचार करने लगे कि सब धर्म और संस्कृतियां एक ही हैं। लेकिन हमारी संस्कृति के बहुत से ऐसे पहलु हैं जो किसी भी तरह से रूपान्तरित नहीं किए जा सकते। जैसे आत्मा को अंग्रेजी शब्द सोल से जोड़ना, अहिंसा को नॉन वायलेंस कहना या शक्ति को एनर्जी कहना गलत है।
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हमें इन शब्दों को ऐसे ही इस्तेमाल करना होगा और उन्हें अपने शब्दकोष का हिस्सा बनाना होगा। यही इस आंदोलन रूपी किताब का मकसद है, हमारी संस्कृति इन्हीं शब्दों में निहित है। हर कोई जो इन शब्दों का प्रयोग करता है, हमारी संस्कृति को आगे बढ़ने का काम कर रहा है।

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