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लमही का विशेष अंक: प्रबोध कुमार मानव विज्ञान और साहित्य के बीच की उपयोगी कड़ी थे

हमें फॉलो करें लमही का विशेष अंक: प्रबोध कुमार मानव विज्ञान और साहित्य के बीच की उपयोगी कड़ी थे
-वीरेन्द्र प्रताप यादव
 
पत्रिका लमही ने साहित्यकार एवं मानव शास्त्री प्रबोध कुमार पर केन्द्रित (जनवरी-जून 2022) प्रकाशित किया है। लमही के प्रधान संपादक विजय राय प्रशंसा के पात्र हैं कि उन्होने कठिन परिश्रम करते हुए प्रबोध कुमार से साथ न्याय किया है।उपन्यास ‘निरीहों की दुनिया’,कहानी संग्रह ‘सी-सॉ’ लिखने वाले प्रबोध कुमार मुंशी प्रेमचंद के दौहित्र थे।

उनका जन्म 8 जनवरी 1935 एवं मृत्यु  20 जनवरी 2021 को हुई। मानवशास्त्र में शिक्षा प्राप्त प्रबोध कुमार सागर विश्वविद्यालय एवं पंजाबी विश्वविद्यालय के साथ ही कैनबरा, पोलैंड के वारसा एवं जर्मनी के दो विश्वविद्यालयों में विजिटिंग प्रोफेसर रहे। अपने समय के जाने-माने मानवशास्त्री होने के साथ ही वे हिंदी साहित्यकारों में भी अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। प्रबोध कुमार ने अनुशासनों के मध्य की रेखा को समाप्त करते हुए अंतरानुशासन को अपना विषय क्षेत्र बनाया। मानवशास्त्र एवं हिंदी साहित्य को एक दूसरे से पृथक करने के स्थान पर वे दोनों अनुशासनों को एक-दूसरे से सफलतापूर्वक जोड़ते हुए दिखते हैं।

जहां एक ओर जैविक मानवशास्त्र के ‘जेनेटिक्स’ क्षेत्र में उनका कार्य अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है तो वहीं दूसरी ओर सामाजिक-सांस्कृतिक मानवविज्ञान की विशेषज्ञता का उपयोग अपनी साहित्यिक रचनाओं में करते हैं। इसी का परिणाम है कि वे वंचित समाज की पीड़ा एवं संघर्ष को पूरी संवेदना के साथ प्रस्तुत करते हैं। अपनी रचनाओं में गहन वर्णन एवं क्रिया को समग्रता के साथ प्रस्तुत करना उन्हें विशिष्ट बनाता है।

वे अपनी रचनाओं में कहीं भी हस्तक्षेप करते हुए नहीं दिखते बल्कि पृथक खड़े सूक्ष्म स्तर तक वर्णन करते है। उनकी कहानियों एवं उपन्यासों में मानवशास्त्र का प्रभाव गहराई तक नज़र आता है। वे दो भिन्न क्षेत्रों के मध्य सफलतापूर्वक सेतु का निर्माण करते हैं और यह निरंतरता दोनों क्षेत्रों को समृद्ध करती है।

मानवशास्त्र में प्रशिक्षण, उनकी रचनाओं को साहित्य एवं सामाजिक विज्ञान के मध्य की दूरी को समाप्त करते हुये निरंतरता बनाने में मददगार साबित हुआ है। ‘लमही’ का प्रस्तुत अंक प्रबोध कुमार को उनके तीनों आयामों- साहित्यकार, मानवशास्त्री एवं व्यक्ति को प्रस्तुत करता है।

लमही का संपादक मण्डल प्रशंसा का पात्र है कि उसने प्रबोध कुमार को अतीत के धुंधले से निकालकर वह स्थान दिया जिसके वे हकदार हैं। साथ ही लमही उन सभी कारणों को सामने लाता है जो प्रबोध कुमार को ‘प्रबोध कुमार’ बनाता है। यह अंक प्रबोध कुमार के किसी खास क्षेत्र के स्थान पर पूर्णता में प्रस्तुत करता है। हम कह सकते हैं कि लमही प्रबोध कुमार की जीवनी को प्रस्तुत करने में सफल हुआ है। 
 
अंक के संपादकीय में विजय राय ने प्रबोध कुमार को उनके साहित्य, जीवन, परिजन, मित्र, सहकर्मियों के माध्यम से प्रस्तुत करने के साथ ही पाठकों एवं साहित्यकारों द्वारा उनकी रचनाओं पर टिप्पणियों को भी प्रस्तुत किया है। विजय राय ने कम शब्दों में प्रबोध कुमार के साहित्य एवं उनकी शैली को बताने के साथ ही उन कारणों पर चर्चा की है, जिनसे प्रबोध कुमार को हिंदी साहित्य में विशिष्ट स्थान मिलता है।
 
अंक को संपादक ने कई खंडों में विभाजित किया हैकिन्तु खंड क्रमबद्ध नहीं हैं और उनमें ओवरलैपिंग है। अतः सुविधा की दृष्टि से अंक को निम्नलिखित खंडों में बांटा जा सकता है- 
 
पहले खंड में कमलेश साठ के दशक में हिंदी कहानियों में हो रहे नए आविष्कारों एवं उसमें प्रबोध कुमार की भूमिका पर चर्चा करते हैं। वे हिंदी साहित्य एवं मानवविज्ञान में प्रबोध कुमार के योगदान पर प्रकाश डालते हैं। कमलेश प्रबोध कुमार की रचनाओं का विश्लेषण करते हुए उन्हें हिंदी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ नामों जैसेकि निर्मल वर्मा,शमशेर बहादुर सिंह एवं फणीश्वरनाथ रेणु के समकक्ष खड़ा करते हैं।

अपने संस्मरण में कृष्णा सोबती का कथन ‘प्रबोध मौन रहकर भी संवाद करने की क्षमता रखते हैं’प्रबोध कुमार के व्यक्तित्व, चिंतन एवं संप्रेषण पर सटीक टिप्पणी है। वे एक वाक्य में ही प्रबोध कुमार को पूर्णता में प्रस्तुत कर देती हैं। हमें प्रबोध कुमार की कहानियों एवं उपन्यासों में यह तीनों बातें दिखती हैं। 
 
शंख घोष ‘आलो आँधारि’ में प्रबोध कुमार के योगदान पर प्रकाश डालते हैं। वे विस्तार में बताते हैं कि कैसे प्रबोध कुमार ने अपने घर काम करने वाली महिला को उसकी जीवनी लिखने के लिए प्रेरित किया साथ ही एडिटिंग एवं प्रकाशन में मदद की। परिणामस्वरूप ‘आलो आँधारि’ अस्तित्व में आयी और आगे जा कर कालजयी कृति में शामिल हुयी। यह प्रबोध कुमार का बड़प्पन था कि जीवन पर्यंत आलो आँधारि में अपने योगदान का क्रेडिट लेने से बचते रहे। 
 
दूसरे खंड में प्रबोध कुमार पर उनके मित्रों, परिजनो एवं साहित्यकारों के संस्मरण हैं। यहाँ प्रबोध कुमार के बचपन से लेकर उनके किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था पर चर्चा की गयी है। सभी इस बात से सहमत दिखते हैं कि प्रबोध कुमार शांत स्वभाव के साथ ही संवेदनशील और समझौता न करने वाले व्यक्ति थे। वे बेफिक्र किंतु जिद्दी स्वभाव के व्यक्ति थे। प्रबोध कुमार पलायन करने वाले व्यक्ति न थे।

जीवन में विकट से विकट स्थिति में भी उन्होने कभी भी समझौता नहीं किया। जहां एक ओर प्रबोध कुमार की रचनाओं में उनका जीवन दिखता है तो वहीं दूसरी ओर उनका जीवन ठीक उनकी किसी रचना की तरह था। वे और उनकी रचनाएँ दोनों ही एक प्रक्रिया थीं। वे हर पल एक रचना का हिस्सा जी रहे थे तो उनका जीवन स्वयं एक रचना बनता जा रहा था। एक ऐसी रचना जो न अतीत पर टिकी थी और न ही भविष्य पर, वहाँ सिर्फ वर्तमान है, एक सतत न समाप्त होने वाला वर्तमान।
 
तीसरे खंड में हिंदी के समकालीन गंभीर अध्येताओं योगेंद्र आहूजा, रणेन्द्र, संजय गौतम, हरियश राय, जयशंकर, अंकिता तिवारी, भोला प्रसाद सिंह एवं आशीष सिंह ने प्रबोध कुमार की रचनाओं का मूल्यांकन किया गया है। इस खंड को सारांश में कहें तो सभी विद्वान इस बात पर एकमत हैं कि प्रबोध कुमार की रचनाओं को जितनी बार पढ़ा जाए उतना ही उसमे नया मिलता जाता है।

उनकी रचनाओं में जितना अंदर जाएँ, उतनी ही वे परत दर परत खुलती जाती हैं और हर परत पहले की परत से अधिक संदेश देती है। उनकी रचनाएँ में एक सतत प्रक्रिया दिखती है,जिसका न आरंभ है और न ही अंत। वे काल और खंड के बंधन से मुक्त हैं। उनकी रचनाएँ जिस भी काल में पढ़ी जाएँ वे उसी काल को प्रस्तुत करती दिखेंगी। 
 
चौथे खंड में शर्मिला जालान द्वारा बेबी हालदार का लिया गया साक्षात्कार है। एक सुव्यवस्थित एवं सूचनात्मक साक्षात्कार के लिए शर्मिला जालान प्रशंसा की पात्र हैं। साक्षात्कार प्रबोध कुमार के मानवीय गुणों एवं उनके व्यक्तित्व से पाठकों को सविस्तार परिचित कराता है। यह साक्षात्कार बेबी हालदार एवं प्रबोध कुमार दोनों के जीवन पर प्रकाश डालने के साथ ही ‘आलो आँधारि’ की उत्पत्ति पर सविस्तर चर्चा करता है। इस खंड में प्रबोध कुमार के उत्तरार्ध के जीवन की जानकारी प्राप्त होती है। 
 
पांचवे खंड में मानवशास्त्री नदीम हसनैन मानवविज्ञान में प्रबोध कुमार के योगदान पर चर्चा करते हुये प्रबोध कुमार को मानवविज्ञान और साहित्य के बीच की उपयोगी कड़ी मानते हैं। नदीम हसनैन ज़ोर देते हैं कि एक मानववैज्ञानिक जब साहित्यकार की तरह लिखता है तो वह रचना अपना विशिष्ट स्थान बना लेती है। साथ ही वे प्रबोध कुमार के एक शोध प्रारूप जो किसी कारण कभी भी आरंभ नहीं हो पाया के महत्व एवं उपयोगिता पर प्रकाश डालते हैं। उनका कहना है कि यदि उक्त शोध पूर्ण हो गया होता तो वह न केवल मानवविज्ञान बल्कि सामाजिक विज्ञान में मील का पत्थर साबित होता।

प्रबोध कुमार के अंदर मानवविज्ञान और साहित्य दोनों के आवश्यक तत्व विद्यमान थे। उनकी रचनाओं में मानवविज्ञान के उपकरणों का प्रयोग दिखता है। वे अपनी रचनाओं में प्रतिकों का प्रयोग करते हुए क्रियाओं को प्रदर्शित करते हैं। वे अपनी रचनाओं में कभी भी हस्तक्षेप करते हुए नहीं नज़र आते बल्कि खुद को उससे तटस्थ रखते हुए एक-एक क्रिया को बिना छेड़े पूरी बारीकी एवं समग्रता से प्रस्तुत करते हैं। 
 
छठे खंड में प्रबोध कुमार की रचनाओं के कुछ अंशों के साथ ही उनके पत्रों को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कियागया है ताकि वे अपने विवेक से प्रबोध कुमार का स्वतंत्र मूल्यांकन कर सकें। 
 
निष्कर्ष में कहा जा सकता है कि विजय राय प्रशंसा के पात्र हैं कि वे ‘लमही’ के इस अंक में प्रबोध कुमार को पूर्णता में पेश करने में कामयाब हुए हैं। अंक में उनका कठिन परिश्रम साफ नज़र आता है। वे हिंदी साहित्य के साथ ही मानवविज्ञान में प्रबोध कुमार के योगदान कोप्रस्तुत करने में सफल हुये हैं। यह अंक प्रबोध कुमार को न केवल एक रचनाकर बल्कि मानवशास्त्री के रूप में उनके द्वारा किए गए कार्यों पर प्रकाश डालता है। हिंदी के पाठकों के साथ ही मानवविज्ञान के छात्रों एवं शोधार्थियों के लिए प्रबोध कुमार की रचनाएँ बेहद उपयोगी हैं। 
 
 
 -समीक्षक वीरेन्द्र प्रताप यादव महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के मानव विज्ञान विभाग में सहायक प्रोफ़ेसर हैं।
 
पत्रिका – लमही
संपादक – विजय राय
इस अंक का मूल्य- ₹100 मात्र
संपर्क- 3@ 343 विवेक खंड, गोमती नगर,
लखनऊ-226010

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