एक संन्यासिनी कवयित्री महादेवी वर्मा

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फ़िरदौस ख़ान
प्रख्यात कवयित्री महादेवी वर्मा की गिनती हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभ सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के साथ की जाती है। होली के दिन 26 मार्च 1907 को उत्तर प्रदेश क्र फर्रूखाबाद में जन्मी महादेवी वर्मा को आधुनिक काल की मीराबाई कहा जाता है।

वह कवयित्री होने के साथ एक विशिष्ट गद्यकार भी थीं। उनके काव्य संग्रहों में नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्य गीत, दीपशिखा, यामा और सप्तपर्णा शामिल हैं। गद्य में अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी और मेरा परिवार उल्लेखनीय है। उनके विविध संकलनों में स्मारिका, स्मृति चित्र, संभाषण, संचयन, दृष्टिबोध और निबंध में श्रृंखला की कड़ियां, विवेचनात्मक गद्य, साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध शामिल हैं। उनके पुनर्मुद्रित संकलन में यामा, दीपगीत, नीलाम्बरा और आत्मिका शामिल हैं। गिल्लू उनका कहानी संग्रह है। उन्होंने बाल कविताएं भी लिखीं। उनकी बाल कविताओं के दो संकलन भी प्रकाशित हुए, जिनमें ठाकुर जी भोले हैं और आज खरीदेंगे हम ज्वाला शामिल हैं।
 
गौरतलब है कि महादेवी वर्मा ने सात साल की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। उनके काव्य का मूल स्वर दुख और पीड़ा है, क्योंकि उन्हें सुख के मुकाबले दुख ज्यादा प्रिय रहा। खास बात यह है कि उनकी रचनाओं में विषाद का वह भाव नहीं है, जो व्यक्ति को कुंठित कर देता है, बल्कि संयम और त्याग की प्रबल भावना है।
 
मैं नीर भरी दुख की बदली
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा कभी न अपना होना
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी थी कल मिट आज चली
 
उन्होंने खुद लिखा है, मां से पूजा और आरती के समय सुने सुर, तुलसी तथा मीरा आदि के गीत मुझे गीत रचना की प्रेरणा देते थे। मां से सुनी एक करुण कथा को मैंने प्राय: सौ छंदों में लिपिबद्ध किया था। पड़ोस की एक विधवा वधु के जीवन से प्रभावित होकर मैंने विधवा, अबला शीर्षकों से शब्द चित्र लिखे थे, जो उस समय की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए थे। व्यक्तिगत दुख समष्टिगत गंभीर वेदना का रूप ग्रहण करने लगा। करुणा बाहुल होने के कारण बौद्ध साहित्य भी मुझे प्रिय रहा है।
 
उन्होंने 1955 में इलाहाबाद में साहित्यकार संसद की स्थापना की। उन्होंने पंडित इला चंद्र जोशी की मदद से संस्था के मुखपत्र साहित्यकार के संपादक का पद संभाला। देश की आजादी क बाद 1952 में वह उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्य चुनी गईं। 1956 में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया। 1969 में विक्रम विश्वविद्यालय ने उन्हें डी लिट की उपाधि दी। इससे पहले उन्हें नीरजा के 1934 में सक्सेरिया पुरस्कार और 1942 में स्मृति की रेखाओं के लिए द्विवेदी पदक प्रदान किया गया। 1943 में उन्हें मंगला प्रसाद पुरस्कार और उत्तर प्रदेश के भारत भारती पुरस्कार से भी नवाजा गया। यामा नामक काव्य संकलन के लिए उन्हें देश के सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा उन्हें साहित्य अकादमी फ़ेलोशिप भी प्रदान की गई।
 
उन्होंने एक आम विवाहिता का जीवन नहीं जिया। 1916 में उनका विवाह बरेली के पास नवाबगंज कस्बे के निवासी वरुण नारायण वर्मा से हुआ। महादेवी वर्मा को विवाहित जीवन से विरक्ति थी, इसलिए पति से उनका कोई वैमनस्य नहीं था। वह एक संन्यासिनी का जीवन गुजारती थीं। उन्होंने पूरी जिंदगी सफेद कपड़े पहने। वह तख्त सोईं। कभी श्रृंगार नहीं किया। 1966 में पति की मौत के बाद वह स्थाई रूप से इलाहाबाद में रहने लगीं।  22 सितंबर, 1987 को प्रयाग में उनका निधन हुआ। बीसवीं सदी की सर्वाधिक लोकप्रिय महिला साहित्यकार रहीं महादेवी वर्मा हिन्दी साहित्य में धुव्र तारे की तरह प्रकाशमान हैं।

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