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हिन्दी कविता : अहंकार के नाग
सुशील कुमार शर्मा
अहंकार के कई फन फैले हैं
शेषनाग की तरह
मेरे सिर पर झूलते हैं, फुफकारते हैं
लोगों को डराते हैं
अहंकार के ये नाग निकलते हैं
अंदर से फुसकते हुए।
एक नाग मेरे व्यक्तित्व को
दुनिया का सबसे प्रभावशाली
घोषित करता है
दूसरा नाग मुझे बहुत बड़ा शिक्षक बताता है
तीसरा नाग हमेशा सम्मान दिलाता रहता है
चौथा नाग मुझे सर्वश्रेष्ठ
साहित्यकार घोषित करता है।
सारे अहंकार के नाग
मुझे मदहोशी का जहर
पिलाकर मदमस्त कर देते हैं
और मेरे लिए दूसरे बहुत
नीचे हो जाते हैं तुच्छ से जीव
नागफनी की तरह।
अहंकार के कंटीले पौधे
उगे हैं मेरे अस्तित्व में
मेरे अस्तित्व पर उगी ये नागफनी
खुरचती है मेरे अंतस को
लहूलुहान करती है मेरे मन को
मुझे दूसरों की बुराई अच्छी लगती है।
मुझे अपने सिवा किसी का भला पसंद नहीं है
मुझे अपनी सही आलोचना भी जहर लगती है
मैं अपने अलावा किसी के बारे में नहीं सोचता
मैं सफलता का पूरा श्रेय स्वयं लेना चाहता हूं।
मैं चाहता हूं कि लोग मुझे जानें
मैं सिर्फ वही काम करता हूं
जिसमें मुझे प्रमुखता मिले
मुझे दूसरों को नीचा दिखाने में
अपनी महत्ता सिद्ध होती दिखती है।
मैं हमेशा दूसरों को शिक्षा देता रहता हूं
अपनी असफलता के लिए
मैं हमेशा दूसरों को दोष देता हूं।
धीरे-धीरे मेरा 'मैं' बहुत विशाल अट्टालिका बन गया
जहां पर सिर्फ मैं हूं और मेरे अट्टहास गूंजते हैं
उस विशाल भवन में कैद मेरा 'मैं'
घिरा है जहरीले नागों से।
और मेरे अहम की नागफनी फैलती जा रही है
मेरे व्यक्तित्व की सीमाओं पर
उस नागफनी की बाड़ के अंदर
एक शिशु सिसक रहा है।
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