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जिंदगी का फलसफा सिखाते हैं मेरे दोहे

पं. हेमन्त रिछारिया
निकले थे घर से कभी, हम सपनों के साथ।
इक-इक करके राह में, सबने छोड़ा हाथ॥
 
सच से होगा सामना, तो होगा परिवाद।
बेहतर है कि छोड़ दो, सपनों से संवाद॥
 
प्यारी दैरो-हरम से, तेरी ये दहलीज़।
मैंने तेरे नाम का, डाल लिया ताबीज़॥
 
तुमने अपने प्रेम का, डाला रंग अबीर।
घर बारै मैं आपना, होता गया कबीर॥
 
रोके से रुकता नहीं, करता मन की बात।
हम लाचार खड़े रहें, मन की ऐसी जात॥
 
कल मुझसे टकरा गई, इक नखराली नार।
अधर पांखुरी फूल की, चितवन तेज कटार॥
 
तुमने छेड़ा प्यार का, ऐसा राग हुज़ूर।
सदियों तक बजता रहा, दिल का ये संतूर॥
 
देखो ये संसार है, या कि भरा बाज़ार।
संबंधों के नाम पर, सभी करें व्यापार॥
 
दुई रोटी के वास्ते, छोड़ दिया जब गांव।
भरी दुपहरी यार क्यों, ढूंढ रहे छांव॥
 
लौट बाराती सब चले, अपने-अपने गांव।
रुके रहे देहरी पे, रोली वाले पांव॥
 
कवि-पं. हेमन्त रिछारिया

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