हिंदी कविता: आभासी रिश्ते

तृप्ति मिश्रा
अब रोज़ दुआ सलाम होती है
मिलता कोई नहीं
फिर भी रोज़ बात होती है

इबादत और दुआओं के न जाने
न जाने कितने लफ्ज़ मिलते हैं
दुनिया भर के फूल अब रोज़
मेरे फ़ोन में खिलते हैं

सिमट गए रिश्ते इन तक अब
कोई घर नहीं आता है
बस फारवर्ड मैसेजेस के ज़रिए
अपनी बात कह जाता है

आभासी दुनिया के रिश्ते वैसे
खुशियां भी दे जाते हैं
अब मेरी सालगिरह पर
हज़ारों संदेसे आते हैं

सुख-दुःख चाहे जो हो
अब कोई नहीं आता है
एक मैसेज भेज कर वो
फ़र्ज़ से निजात पाता है

अजनबियों से बने ये आभासी
ये रिश्ते भी खास हैं
बिना मिले नज़दीकी हो जाते
बड़े मज़े की बात है

अकेलेपन की ऊब से
एक राहत सी दिलाते हैं
दूर कहीं सुंदर सपनों सी
एक दुनिया ये बनाते हैं

खो गए इन सबमें इतना
असल संवेदना अब रोती है
पर इन आभासी रिश्तों में
अब रोज़ दुआ सलाम होती है.
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(लेखक सरकारी विभागों एवं गैरसरकारी संस्थाओं द्वारा सम्मानित एवं प्रशस्ति पत्र प्राप्त हैं। उनकी कविताएं, गीत, लघुकथा, संस्मरण, आलेख राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं, समाचार पत्रों में लगातार प्रकशित होते रहते हैं। ज़मीनी एवं आभासी मंचों पर अनेक आयोजनों में काव्यपाठ एवं संचालन। यादों के पत्ते शीर्षक से उनका काव्य संग्रह और लोक-लय शीर्षक से पुरातन लोकगीतों का संग्रह प्रकाशि‍त हो चुका है।)

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