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चांद पर कविताएं : आओ चांद से बातें करें
स्मृति आदित्य
*
पूरे चांद की आधी रात
में
एक मधुर कविता
पूरे मन से बने
हमारे अधूरे रिश्ते के नाम लिख रही हूं
चांद के चमकीले उजास में
सर्दीली रात में
तुम्हारे साथ मैं नहीं हूं लेकिन
रेशमी स्मृतियों की झालर
पलकों के किनारे पर झूल रही है
और आकुल आग्रह लिए
तुम्हारी एक कोमल याद
मेरे दिल में चूभ रही है..
चांद का सौन्दर्य
मेरी कत्थई आंखों में सिमट आया है
और तुम्हारा प्यार
मन का सितार बन कर झनझनाया है
चांद के साथ मेरे कमरे में उतर आया है...
* कल पिघलती चांदनी में
देखकर अकेली मुझको
तुम्हारा प्यार
चलकर मेरे पास आया था
चांद बहुत खिल गया था।
आज बिखरती चांदनी में
रूलाकर अकेली मुझको
तुम्हारी बेवफाई
चलकर मेरे पास आई है
चांद पर बेबसी छाई है।
कल मचलती चांदनी में
जगाकर अकेली मुझको
तुम्हारी याद
चलकर मेरे पास आएगी
चांद पर मेरी उदासी छा जाएगी।
* शरद की
बादामी रात में
नितांत अकेली
मैं
चांद देखा करती हूं
तुम्हारी
जरूरत कहां रह जाती है,
चांद जो होता है
मेरे पास
'तुम-सा'
पर मेरे साथ
मुझे देखता
मुझे सुनता
मेरा चांद
तुम्हारी
जरूरत कहां रह जाती है।
ढूंढा करती हूं मैं
सितारों को
लेकिन
मद्धिम रूप में उनकी
बिसात कहां रह जाती है,
कुछ-कुछ वैसे ही
जैसे
चांद हो जब
साथ मेरे
तो तुम्हारी
जरूरत कहां रह जाती है।
*शरद की श्वेत शहद रात्रि में
प्रश्नाकुल मन
बहुत उदास
कहता है मुझसे
उठो ना
चांद से बाते करों,
चांद पर बातें करो....
और मैं बहने लगती हूं
नीले आकाश की
केसरिया चांदनी में,
तब तुम बहुत याद आते हो
अपनी मीठी आंखों से
शरद-गीत गाते हो...!
* शहदीया रातों में
दूध धुली चांदनी
फैलती है
तब
अक्सर पुकारता है
मेरा मन
कि आओ,
पास बैठों
चांद पर कुछ बात करें।
शरद चांदनी की छांव तले
आओ कुछ देर साथ चलें।
*चांद नहीं कहता
तब भी मैं याद करती तुम्हें
चांद नहीं सोता
तब भी मैं जागती तुम्हारे लिए
चांद नहीं बरसाता अमृत
तब भी मुझे तो पीना था विष
चांद नहीं रोकता मुझे
सपनों की आकाशगंगा में विचरने से
फिर भी मैं फिरती पागलों की तरह
तुम्हारे ख्वाबों की रूपहली राह पर।
चांद ने कभी नहीं कहा
मुझे कुछ करने से
मगर फिर भी
रहा हमेशा साथ
मेरे पास
बनकर विश्वास।
यह जानते हुए भी कि
मैं उसके सहारे
और उसके साथ भी
उसके पास भी
और उसमें खोकर भी
याद करती हूं तुम्हें।
मैं और चांद दोनों जानते हैं कि
चांद बेवफा नहीं होता।
*तुम, एक कच्ची रेशम डोर
तुम, एक झूमता सावन मोर
तुम, एक घटा ज्यों गर्मी में गदराई,
तुम, चांदनी रात, मेरे आंगन उतर आई
तुम, आकाश का गोरा-गोरा चांद
तुम, नदी का ठंडा-ठंडा बांध
तुम, धरा की गहरी-गहरी बांहें
तुम, आम की मंजरी बिखरी राहें
तुम, पहाड़ से उतरा नीला-सफेद झरना
तुम, चांद-डोरी से बंधा मेरे सपनों का पलना
तुम, जैसे नौतपा पर बरसी नादान बदली
तुम, जैसे सोलह साल की प्रीत हो पहली-पहली
तुम, तपते-तपते खेत में झरती-झरती बूंदें,
तुम, लंबी-लंबी जुल्फों में रंगीन-रंगीन फुंदे,
तुम, सौंधी-सौंधी-सी मिट्टी में शीतल जल की धारा
तुम, बुझे-बुझे-से द्वार पर खिल उठता उजियारा।
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