कविता : महफिलें सजाई थीं...

सलिल सरोज
कभी मिलना
उन गलियों में
जहां छुप्पन-छुपाई में
हमने रात जगाई थी।
 
जहां गुड्डे-गुड़ियों की शादी में
दोस्तों की बारात बुलाई थी।
 
जहां स्कूल खत्म होते ही
अपनी हंसी-ठिठौली की
अनगिनत महफिलें सजाई थीं।
 
जहां पिकनिक मनाने के लिए
अपने ही घर से न जाने
कितनी ही चीज़ें चुराई थीं।
 
जहां हर खुशी, हर ग़म में
दोस्तों से गले मिलने के लिए
धर्म और जात की दीवारें गिराई थीं।
 
कई दफे यूं ही उदास हुए तो
दोस्तों ने वक़्त-बे-वक़्त
जुगनू पकड़ के जश्न मनाई थी।
 
जब गया कोई दोस्त 
वो गली छोड़ के तो याद में
आंखों को महीनों रुलाई थी।
 
गली अब भी वही है
पर वो वक़्त नहीं, वो दोस्त नहीं
हरे घास थे जहां
वहां बस काई उग आई है।
 

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