शिक्षाप्रद कविता : छिपकली

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-मंजुला बिष्ट
 
छिपकली
मादा लंगूर की तरह नहीं है
जो अपने मृत शिशु को छाती से चिपकाए घूमती है।
 
छिपकली को यह महारत हासिल है
कि वह विलग हुई पूछ को शीघ्रातिशीघ्र छोड़
अशेष शरीर को चलते रहने का संतुलन सिखाती रहे।
 
वह अनेक बार एक मृत्यु में
दूसरे जीवन की उम्मीद से गुजर जाती है।
 
छिपकली की कटी पूछ के प्रति निर्लिप्तता
कुछ यूं है जैसे
वह संसार की सर्वाधिक पीड़ारहित घटना हो।
 
यह मुझे समुंदर के नमकीन किनारे पर
बिखरे असंख्य घोंघों में से
किसी एक मृत घोंघे से फैली
उस महीन दुर्गंध की याद दिलाती है
जो सिर्फ किसी गर्भवती स्त्री को ही
मितली करा सकता है
जिसे लोग ठोकर मारकर दूर करना भी
मुनासिब नहीं समझते।
 
दरअसल,
छिपकली की कटी पूछ उसका
वह दमित व मर्दित स्वाभिमान है
जिसका तत्कालीन त्याग करके ही
वह अस्तित्व को जिलाती रहती है।
 
इस पृथ्वी पर
घायल स्वाभिमान की आहुति देते रहना
स्वयं के प्रति
सर्वाधिक अमानवीय दु:साहस है।
 
मुझे लगता है
हम मनुष्यों को जीवाश्म में बदलने से पहले
आदिमानव से होमोसेपियंस बनने तक के सफर में
इस सरीसृप से अभी भी
बहुत कुछ सीखना बाकी है।
 

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