मार्मिक कविता : लाशों का मौन

शिवेन्द्र प्रताप सिंह
ये तो लाशें हैं साब, ये प्रश्न कहां करती हैं,
अगर ये बिलखते बच्चे होते, तो अपने मर चुके मां-बाप का पता पूछते,
अगर ये शून्य में घूरती आंखें होतीं, तो अपने खोये सपनों का पता पूछतीं,
अगर ये मां-बाप होते, तो रोजी-रोटी की तलाश में निकले अपने बच्चों का हाल पूछते,
होती अगर जनता तो लोकतंत्र का अर्थ पूछतीं,
किंतु, हां.......
ये तो लाशें हैं साब, ये प्रश्न कहां करती हैं,
ये तो आपके 'भक्त' भी नहीं, जो आपकी 'उपलब्धियों' का डंका पीटेंगीं,
ये आपके 'वो पत्रकार' नहीं, जो सिर्फ, 'आपका सच' बताते हैं,
ये आपके कार्यकर्ता भी नहीं, जो आपका इकबाल बुलंद करेंगे,
ये मौन की नीरवता में खो गई आवाजें हैं, ये तो बस लाशें हैं,
डरिये मत......,
ये तो लाशें हैं साब, ये प्रश्न कहां करती हैं,
होतीं अगर ये जिंदा कौमें, तो आपका गिरेबान पकड़ती,
होती अगर ये सच्चाई की रोशनाई, तो आपकी आत्मा को झंझोड़ती,
ये मतदाता भी नहीं, जो आपको चुनने की वजह पूछेंगे, 
ये तो मर चुकीं उम्मीदें हैं..... सच मानिए,
ये तो लाशें हैं साब, ये प्रश्न कहां करती हैं............
ये तो मरे हुए लोग है, पर आपकी आत्मा तो जिंदा है,
आपके 'मन की बातें' तो बहुत हो चुकीं, परंतु श्रीमान,
दूसरों की मन की बातें भी अब सुन ली जाए, ये भी एक कायदा है,
कभी किसी के मां, पिता, भाई, बहन, बच्चे या मित्र थे ये,
पर आज मौन इस दुनिया के बियावन में, ये सिर्फ लाशें हैं,
लेकिन नहीं, ये मात्र लाशें नहीं जम्हूरियत के मुंह पर तमाचे हैं,
इनकी चुप्पी एक चेतावनी है कि, कही जिंदा लोग प्रश्न ना करने लगे,
समाज आपके विरुद्ध खड़ा ना होने लगे, 
अब भी जागिए अपने राज मद की निद्रा से,
अन्यथा सत्ता के अहम् के साथ बिखर जाएंगे,
देश के अंतर्मन का कोप नहीं झेल पाएंगे,
इन जीवित व्याकुल आंखों का दर्द समझिए,
पर इन लाशों का क्या....
ये तो लाशें हैं साब, ये प्रश्न कहां करती हैं...।

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