तीस जून की रात की भीषण वर्षा व होलकर सेना की टुकड़ी की वापसी के बाद अगली सुबह रेसीडेंसी पर हमला किया जाना लगभग तय था। 1 जुलाई की प्रात: रेजीडेंट डुरेंड ने रेसीडेंसी परिसर में रखा ब्रिटिश खजाना महू स्थानांतरित करने का आदेश दिया। उसके इस आदेश ने विद्रोह की बारूद में चिनगारी का काम किया। रेसीडेंसी की सेना विशेषकर होलकर सेना उस खजाने को रेसीडेंसी से नहीं हटाने देना चाहती थी। उसी समय रेसीडेंसी स्कूल के शिक्षक मौलवी अब्दुल समद ने एक अश्वारोही को सआदत खां के पास भेजा जो होलकर सेना के बक्षी हफीज का बेटा था और होलकर सेना में था। प्रातः लगभग आठ बजे होलकर रिसाले की वर्दी में सआदत खां रेसीडेंसी पहुंचा। उसके साथ तिलंगीपल्टन के सात-आठ सवार भी थे। वकील वजीर बेग लिखता है-
'सआदत खां ने चाहा पानी के वकत कोठी पर जाकर बड़े साहेब से कुछ सखत कलामी की। जिस पर साहब ने गाली दी और तमंचा मारा सो कान-गाल पर छीलते गोली लगी। इसने कराबीन तलवार का वार किया सो न जाने किसको लगा? लोग कहे हें के कुछ बड़े साहेब के लगी मगर खयाल में लगी मालूम पड़ी नहीं।'
साढ़े आठ बजे सआदत खां होलकर तोपखाने के जमादार मोहम्मद खां और अन्य अधिकारियों के समीप आया और चिल्लाकर कहने लगा- 'तैयार हो जाओ छोटा साहब लोग मरने के लिए, महाराजा साहब का हुकुम हे।'
पहली गड़बड़ी सदर बाजार में
बुधवार 1 जुलाई 1857 को इंदौर में सर्वप्रथम सदर बाजार क्षेत्र में गड़बड़ी फैली थी। शहर में विद्रोह हो गया और विद्रोहियों का शोरगुल बड़ी तेजी से नगर में फैलता जा रहा था। कर्नल डुरेंड के पुत्र ने विद्रोह के प्रारंभ में विवरण इस प्रकार लिखा है- '1 जुलाई को प्रातः लगभग 8.30 बजे मेरे पिता टेबल पर झुके हुए लॉर्ड एलफिस्टन के पास भेजने के लिए इस समाचार को 'दूर लेख' में परिवर्तित कर रहे थे। इतने में ही एक व्यक्ति बड़ी तेजी से झपटता हुआ कमरे में आया औरउसने सूचित किया कि बाजार में विद्रोह हो गया है। शोर बढ़ता ही जा रहा था। ज्यों ही मेरे पिताजी यह सब देखने के लिए रेसीडेंसी के द्वार तक आए, तुरंत होलकर तोपों ने, जिन्हें रेसीडेंसी की सुरक्षा हेतु नियुक्त किया गया था, भोपाल कांटीजेंट पर गोले बरसाना शुरू कर दिए। इसी बीच इन्फेन्ट्री के सैनिक निकटवर्ती भवनों में रहने वाले अंगरेजों को पकड़ने झपटे...।'
उधर सआदत खां का आह्वान सुनकर होलकर तोपखाने ने आग उगलना शुरू किया। उन्होंने फुर्ती से तोपों को आगे बढ़ाया, उनके मुंह रेसीडेंसी भवन की ओर किए तथा रेसीडेंसी भवन पर फायर करने प्रारंभ किए। कर्नल ट्रेव्हर्स इसी बीच सामने आया और उसने भोपाल घुड़सवार सेना के दस्ते को विद्रोहियों पर आक्रमण का आदेश दिया, किंतु 6 सिपाहियों के अलावा किसी ने उसका आदेश नहीं माना।
महाराजा ने सआदत खां को गोली मारने का हुक्म दिया था
रेसीडेंसी भवन पर विद्रोहियों द्वारा गोले बरसाए जा रहे थे। अंगरेज सैनिक अधिकारी कर्नल ट्रेव्हर्स ने अपनी दो तोपों से जवाबी प्रहार का आदेश दिया, कुछ क्षणों के लिए लगा कि वह विद्रोहियों पर नियंत्रण पा लेगा। उसने अपनी आर्टलरी को विद्रोहियों केबाईं ओर मोर्चा लेने का आदेश दिया और कर्नल स्टॉकली से अनुरोध किया कि वह तोपखाने की मदद अपने भील सिपाहियों के साथ करे लेकिन स्टॉकली ने कहा, ऐसा करने से भील सिपाही सीधे तोपों की मार में आ जाएंगे।
डुरेंड का पुत्र लिखता है- 'होलकर तोपें अब अपने मूल स्थान पर आ गई थीं, जहां वे अधिक सुरक्षित थीं। इस स्थान से उन्होंने सीधे रेसीडेंसी भवन पर गोले बरसाना प्रारंभ कर दिए। इन आक्रमणों से रेसीडेंसी की सुरक्षा के लिए तैनात भील अत्यधिक भयभीत हो गए और रेसीडेंसी भवन की खिड़कियों से जो अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित स्थान था, वे वार नहीं कर पा रहे थे।'
उधर महिदपुर कांटीजेंट के जितने सैनिक रेसीडेंसी की सुरक्षा के लिए बुलाए गए थे, सभी ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोहियों का साथ दिया। केवल कर्नल ट्रेव्हर्स की केवेलरी ने अंगरेजों का साथ दिया, लेकिन उनके सिपाही भी भयभीत व आशंकित थे। भील सिपाही जिन्हें रेसीडेंसी की रक्षा के लिए लगाया गया था, भयभीत होकर रेसीडेंसी भवन के भीतर भाग गए। उस वक्त केवल 14 भारतीय गोलंदाज, 8 सैनिक अधिकारी, 2 डॉक्टर, 2 सार्जेन्ट और 5 योरपीय नागरिक रेसीडेंसी की सुरक्षा कर रहे थे।विद्रोहियों का नेतृत्व प्रमुख रूप से सआदत खां और बंसगोपाल ने संभाल लिया था। उनका साथ अरारोसिंह, भागीरथ, नवाब वारिस मोहम्मद खान, मौलवी अब्दुल समद व अन्य व्यक्ति दे रहे थे।
सआदत खां के विषय में वकील वजीर बेग ने अपने 1 जुलाई 1857 के पत्र में लिखा- 'ओर फेर सआदत खां बाड़े में सो गया सो महाराजा ने तीन बार सआदत खां को गोली से मार डालने का हुकुम दिया सो सिपाहियों ने गोली मारी नहीं, सो फेर सआदत खां को कैद कर दिया। फेर रात के वकत उन तीनों कंपनियों को उड़ा देने का हुकुम दीया जीनों ने फसाद करा था लेकिन फोज वालों ने हुकुम माना नहीं।'
संभवतः अपनी फौज का यह रुख देखकर ही महाराजा ने सआदत खां को कैद से मुक्त कर दिया और उसे वापस रेसीडेंसी इस वचन के आधार पर जाने दिया कि वह रेसीडेंसी जाकर विद्रोही होलकर सैनिकों को शांत करेगा और उन्हें विद्रोह न करने के लिए मना लेगा। महाराजा द्वारा इतनी सहायता व सद्भावना दिखाए जाने के बावजूद रेजीडेंट डुरेंड ने महाराजा पर यह आरोप लगाया कि वे विद्रोहियों के समर्थक थे।
डुरेंड रेसीडेंसी से भाग निकला
पहली जुलाई 1857 को इंदौर रेसीडेंसी परविद्रोहियों द्वारा इतना भीषण प्रहार किया गया था कि दो घंटे की गोलाबारी के बाद ही अंगरेजों के हौसले पस्त हो गए थे। महू से उनकी सहायता के लिए कोई सैनिक सहायता नहीं पहुंची थी। इसलिए उनमें और भी निराशा फैलती जा रही थी। अपने प्राणों को असुरक्षित पाकर डुरेंड ने रेसीडेंसी से पलायन कर जाने का निर्णय लिया। पहले महिलाओं व बच्चों को रेसीडेंसी भवन के पीछे भेजा गया। तत्पश्चात अंगरेज पुरुष व उनके रक्षक भारतीय सैनिक वहां पहुंचे। यह घटना प्रातः साढ़े दस बजे की है। डुरेंड के साथ भागने वाले इस दल के आगे सिख सवार थे व पीछे भील सिपाही थे। भोपाल कांटीजेंट के कुछ सिपाही भी साथ थे। विद्रोही सैनिक उधर रेसीडेंसी पर बराबर तोपों से गोले बरसा रहे थे।
इसी बीच महू का सैनिक अधिकारी कैप्टन हंगरफोर्ड अपनी सैनिक सहायता के साथ रेसीडेंसी के लिए चल पड़ा था। वह महू और इंदौर के बीच राऊ तक आ पहुंचा था कि दोपहर में उसे कर्नल ट्रेव्हर्स के हाथ से लिखे दो पेंसिल नोट मिले, जिसमें उसने सूचना दी थी कि डुरेंड अपने साथियों के साथ रेसीडेंसी से पलायन कर चुका है और सिमरोल घाट होते हुए महू पहुंचेगा। हंगरफोर्ड तत्काल वापस लौटाऔर दोपहर 3 बजे महू पहुंच गया।
उधर डुरेंड के साथ जा रहे भोपाल कांटीजेंट के सिपाही महू न जाने पर अड़ गए थे। जैसे ही यह दल इंदौर से 10 मील दूर तिल्लौर ग्राम पहुंचा तो वहां के कुछ निवासियों ने इस दल को सूचना दी कि होलकर सेना के सिपाही काफी बड़ी तादाद में 4 तोपों के साथ सिमरोल घाट को घेरे बैठे हैं। तब भोपाल कांटीजेंट व सिख सवारों ने डुरेंड से आग्रह किया कि वे महू न जाकर सीहोर की ओर चल दें।
यह दल चलता हुआ 3 जुलाई को आष्टा पहुंचा और 4 जुलाई को वे लोग सीहोर जा पहुंचे। भोपाल की शासिका सिकंदर बेगम ने उनसे सीहोर भी खाली करने का आग्रह किया, क्योंकि उनकी उपस्थिति से इस दल के साथ-साथ सिकंदर बेगम के लिए भी भारी खतरा उत्पन्न हो गया था। अगले ही दिन डुरेंड का दल सीहोर से भी चल पड़ा औऱ होशंगाबाद जाकर डेरा डाला।
चार अंगरेज टेलीग्राफिस्ट की हत्या
भारत में टेलीग्राफ सुविधा के आते ही अल्पकाल में इंदौर रेसीडेंसी को भी उसके साथ जोड़ दिया गया था। यह सुविधा केवल ब्रिटिश अधिकारियों के उपयोग के लिए ही थी। इंदौर नगर की आम जनता तो दूर, महाराजा होलकर को भी इसका उपयोग नहींकरने दिया जाता था। यही कारण था कि इंदौर की जनता व महाराजा दोनों इससे क्षुब्ध थे।
इंदौर में जो टेलीग्राफ सुविधा थी वह आगरा तथा बंबई प्रेसीडेंसी को जोड़ने वाली लाइन थी। मार्ग में ग्वालियर, सेंधवा व मालेगांव को भी इस सुविधा से जोड़ा गया था। इंदौर तथा नीमच के बीच भी रतलाम, जावरा तथा मंदसौर से होते हुए एक टेलीग्राफ लाइन स्थापित की गई थी।
इंदौर रेसीडेंसी के समीप वर्तमान जी.पी.ओ. में यह टेलीग्राफ ऑफिस स्थापित था। सारे उत्तर भारत में जब अंगरेजों के विरुद्ध 1857 के महान स्वाधीनता संग्राम का शंखनाद हुआ तो उत्तर से दक्षिण भारत की अंगरेजी फौजी छावनियों तक दूरलेख समाचार भेजने में इस कार्यालय की महत्वपूर्ण भूमिका थी। उस वक्त इंदौर में इंग्लिश जानने वाले लोग थे अतः जो संदेश आगरा से बंबई या बंबई से आगरा भेजे जा रहे थे, उनकी लिपि बदल दी गई। वे फ्रेंच या ग्रीक में भेजे जाने लगे ताकि भारतीय उन्हें पढ़ न सकें।
इंदौर नगर में 1 जुलाई 1857 को जब अंगरेज रेसीडेंसी पर हमला बोला गया तो क्रांतिकारियों ने समाचार संप्रेषण के इस महत्वपूर्ण कार्यालय पर भी आक्रमण किया। सारा कार्यालय ध्वस्त कर दिया गया। इस कार्यालय केचार अंगरेज टेलीग्राफिस्टों को पकड़कर उनकी हत्या कर दी गईं। आक्रोश इतना भीषण था कि उनकी पत्नियों और बच्चों के शीश भी काट लिए गए थे।
वर्ष 1857 के स्वाधीनता संग्राम की विफलता के बाद इंदौर में पुनः टेलीग्राफ लाइन को बहाल किया गया किंतु वर्ष 1908 तक भी इस सुविधा का लाभ नगरवासियों को नहीं दिया गया। वर्ष 1908 में होलकर सरकार ने भारत सरकार के साथ मिलकर एक संयुक्त डाक संघ कायम किया। इंदौर नगर को विभिन्ना नगरों के साथ टेलीग्राफ सुविधा से जोड़ा जाना था किंतु वर्ष 1914 में योरप में प्रथम विश्व युद्ध प्रारंभ हो गया और इस कार्य को पूरा करने में ब्रिटिश सरकार ने अपनी असमर्थता प्रकट कर दी। अंततः प्रथम विश्व युद्ध समाप्ति (वर्ष 1918) के पूर्व ही वर्ष 1917 में यह सुविधा नगरवासियों को मिल गई।
रेसीडेंसी में 21 अंगरेज मारे गए
इंदौर के विद्रोहियों का आक्रोश कंपनी सरकार और प्रत्येक अंगरेज व्यक्ति के विरुद्ध था। पहली जुलाई को जब रेसीडेंसी परिसर में बगावत भड़की तो निशाना रेसीडेंसी भवन और अंगरेजों को बनाया गया। अधिकारी या कर्मचारी, स्त्री, पुरुष या बच्चा जो भी अंगरेज सामने दिखाई पड़ा, उसका बचना मुश्किल हो गया।
सीतामऊ के वकील वजीर बेग ने 1 जुलाई के अपने पत्र में लिखा- '...तलवार कोतवाल को लगी और पुरानी अफीम कोठी में (वर्तमान आयकर विभाग भवन) पांच अंगरेज व चार मेम छुपे थे। लूटने वाले वहां गए, सो अंगरेज ने तमंच्या मारा, सो फेर तोपें लगा दीं, सो अंगरेज लोग बाहर निकल आए, सो दोय कालों को तमंचे मारे, जख्मी करे। फेर वो पांच अंगरेज च्यार मेमें मारे गए। अंगरेज लोग और मेमें लोग मरे पड़े हैं। ओर खबर लगी के दो-दो, च्यार-च्यार कोसों पर अंगरेज लोग मारे गए। सआदत खां, बक्षी हकीम के लड़के ने एक अंगरेज मारा...।'
अगले दिन वजीर बेग स्वयं रेसीडेंसी परिसर में गया और उसने जो आंखों देखा हाल लिखा वह इस तरह है-
'दूसरे दिन फजर को हमने जाके खेत देखा सो उनमें 21 साहेब लोग मारे गए, जिसमें मेम तो 6 और अंगरेज 7, लड़के-बचे 6, सुजर 2, ईस मुजब मारे गए, सो लासें अब तक पड़ी हें। कुत्ते खा रहे हें। ओर उसी बखत से तीन रोज हुए कि बाड़े (राजबाड़े) के दरवाजे अब तक बंद हें। सबब के तीन मेंम व दो साहेब लोग, लड़का एक बाड़े में पकड़े आए हें। जिनको महाराजा ने हिफाजत से रखा है। ओर उन लासों के वास्तेसंदूक भी त्यार कराए हें।'
इंदौर रेसीडेंसी की टेलीग्राफ लाइन उन तनावपूर्ण दिनों में उत्तर भारत से दक्षिण की ओर महत्वपूर्ण संदेश भेजने की अत्यंत उपयोगी साधन सिद्ध हो रही थी। डुरेंड 1 जुलाई की प्रातः टेलीग्राम द्वारा बंबई के गवर्नर लॉर्ड एलफिंस्टन को इंदौर के लिए सेना भेजने का संदेश बना ही रहा था कि विद्रोह फूट पड़ा।
रेजीडेंट के पलायन के बाद रेसीडेंसी पर विद्रोहियों का नियंत्रण हो गया। विद्रोहियों ने सभी उपलब्ध योरपीय लोगों को मौत के घाट उतार दिया। मरने वालों में रोज मैकमोहन, सिविल इंजीनियर थामस सेनरी ब्रुक, टेलीग्राफ विभाग श्री एवं श्रीमती आइवरी, श्री एवं श्रीमती डेविड बोन, श्री एवं श्रीमती जेम्स बटलर तथा उनका शिशु, मिस्टर डेविड मेंकबेथ, उनकी पत्नी औऱ उनके 5 बच्चे, मि. एडविन मुरारे, श्री एवं श्रीमती विलियम नोविस तथा मि. जॉन पेनी प्रमुख थे। एक अनुमान के अनुसार मरने वाले योरपीय व्यक्तियों की संख्या 38-39 थी। उनके शव बिना कफन के 4 जुलाई तक वहीं पड़े रहे जहां उनकी हत्याएं की गई थीं।
इंदौर से प्रेरणा पाकर महू में विद्रोह हुआ
महू की स्थापना मंदसौर की संधि के अंतर्गत 1818 में एक ब्रिटिश फौजी छावनी के रूप में कीगई थी। मेरठ, नीमच, नसीराबाद, महिदपुर व आगर की छावनियों में हुई बगावत के बाद महू बहुत संवेदनशील हो उठा था। इंदौर व महू के क्रांतिकारियों में बराबर पत्रों व संदेशों का आदान-प्रदान चल रहा था और उनमें जीवंत संपर्क बना हुआ था। 1 जुलाई 1857 की प्रातः जब इंदौर रेसीडेंसी पर तोपें बरसने लगीं तो इन तोपों की गर्जना महू तक सुनाई दी।
उधर महू में कैप्टन हंगरफोर्ड ने पर्याप्त सुरक्षात्मक व्यवस्था कर रखी थी। बैरकों के सामने आर्टीलरी तैनात थी। 23वीं भारतीय इन्फेन्ट्री के गार्ड योरपीय परिवारों के बंगलों की सुरक्षा के लिए लगाए गए थे। कर्नल प्लाट ने सतर्कता बरतते हुए उसी शाम योरपीय महिलाओं और बच्चों को महू के किले में भेज दिया था। इंदौर से आने वाले मार्ग पर अग्रिम सैनिक दस्ते भेजे गए ताकि इंदौर से आने वाली विद्रोहियों की फौज की सूचना महू के सैन्य अधिकारियों को पर्याप्त समय रहते मिल जाए। महू नगर के चारों ओर सिपाही तैनात थे। शस्त्रागार पर पहरेदारों की संख्या बढ़ाकर 30 कर दी गई थी। महू के सैन्य अधिकारी बाहरी आक्रमण के प्रति पूरी तरह सचेत थे, किंतु उनकी अपनी फौज भी हावी हो सकती है, इस आशंका पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया।
रात 11 बजे के लगभग महू छावनी से तोप दागने की आवाज इंदौर में सुनाई दी जो इस बात का सबूत था कि महू में भी विद्रोह हो गया है। वहां नियुक्त 23वीं रेजीमेंट बंगाल इंडियन इन्फेन्ट्री व फर्स्ट रेजीमेंट ऑफ बंगाल लाइट केवेलरी के एक दस्ते ने बगावत की थी। इन विद्रोहियों ने कर्नल प्लाट, फेगन, मेजर हेरिस व अन्य योरपीय अधिकारियों की हत्या कर दी। अंगरेजों के आवासगृहों व रेजीमेंट मेस हाउस में आग लगा दी। भयभीत अंगरेज, जो किले में छिपकर अपने प्राणों की रक्षा कर रहे थे, इन बागियों का सामना करने के लिए किले से बाहर न आए।
सारी रात विद्रोहियों ने महू शहर को खूब लूटा। तड़के वे लोग महू से इंदौर के लिए चल पड़े। अगली सुबह उन्होंने रेसीडेंसी परिसर में आकर अपना डेरा जमाया। महू के इन विद्रोहियों का नेतृत्व मुराद अली खान कर रहा था। इधर रेसीडेंसी के विद्रोहियों का नेता सआदत खां था। दोनों में चर्चाएं हुईं।
2 जुलाई को ही महू के बागी, महाराजा तुकोजीराव होलकर के पास पहुंचे और उन्होंने मांग की कि 1 जुलाई के दिन राजबाड़े में जिन योरपीय व्यक्तियों को शरण दी गई है, उन सबको बागियों के हवाले कर दें।महाराजा ने उनकी इस मांग को अस्वीकार करते हुए कहा कि वे उनकी शरण में आए हैं। अतः वे अपना शीश भी कटवाकर उनकी रक्षा करेंगे। महाराजा के दृढ़ उत्तर को पाकर महू के विद्रोही वापस रेसीडेंसी लौट गए।
चार दिनों तक विद्रोहियों का कब्जा, अंगरेजी झंडा नष्ट
इंदौर रेसीडेंसी पर पहली जुलाई 1857 की प्रातः 9 बजे से विद्रोहियों ने भीषण गोलाबारी प्रारंभ कर दी थी। दो घंटे बाद ही रेजीडेंट यहां से अंगरेजों को लेकर भाग गया था। रेसीडेंसी पर क्रांतिकारियों का कब्जा हो गया। उन्होंने रेसीडेंसी परिसर में रखा खजाना लूट लिया। भोपाल कांटीजेंट के सैनिक जो रेसीडेंसी की सुरक्षा के लिए बुलाए गए थे, इस लूट में शामिल हो गए। योरपीय लोगों के निवासों को ध्वस्त कर दिया गया और कच्चे भवनों को आग लगा दी गई। संपूर्ण रेसीडेंसी क्षेत्र से ब्रिटिश संप्रूभता समाप्त हो गई और रेसीडेंसी आजाद हो गई। वहां लहराने वाले ब्रिटिश ध्वज को उतारा गया औऱ उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए। उसके स्थान पर होलकर महाराजा का झंडा फहरा दिया गया।
वजीर बेग ने 5 जुलाई के अपने पत्र में लिखा- 'और बाद जाने बड़े साहब के रईयत लोगों के ये अदर कश केभारी कोठी (रेसीडेंसी) व बंगले, अस्पताल, मुलती लोगों के मकान अछी तरह से लूटे। हींगार, मांग, फसल डेरा वगेरा चांदी के बल्लम, घोड़ागाड़ी के घोड़े, ऊंट, सामान, अंगरेजी रईयत, मकान, डोरा लोग छावनी का करीब का माल लूटा गया। ओर छावनी में आग लगा दी। वहां दूसरे रोज जमादार मोलाबक्स व मुंसी का घर बाकी था, सो सारा लुट गया...। जूनी इंदौर व सेहर में घोड़ा, ऊंट, टटू, गाड़ी, बैल वगेरा हाथी छोड़ा नहीं। बुंदेलखंड के वकील सारे छावनी से भागकर मुसाफरखाने में आन उतरे थे ओर अपने मालकों के पास जाने को त्यार थे सो, उन लोगों के ऊंट, टटू, बैलगाड़ी, हाथी वगैरह लुट गये सामान सुदां ओर अब तक हमारे ऊपर भी यही नोबत है। मगर सूरत बचने की जान-माल की आती नहीं। ओर रतलाम के वकील का भी असबाब लुट गया। और सेहर अधर हो रहा हे नहीं मरने में, नहीं जीने में हे...। रात की नींद, दिन की भूख सब गई..., पांच रोज में आज अनं पानी भेले हुआ हूं रोटी-पानी मुरदार रहा। घर में घोड़ा छुपा के रखा हे, मेरा असबाब एक के घर में गड़ा हे, इस सरत से के सेहत सलामत रहा तो रु. 20 देऊंगा। धोबी के घर कपड़े धोने डाले थे वो लुट गएऔर कलईगर के बर्तन 4 कलई करने भेजे थे, वो लुट गए। कुछ असबाब व घोड़ा, ऊंट व जान खत लिखने तक बाकी हे, सो देखिए रहे हें के जावे हें...।'
अंगरेजों ने वेशभूषा बदलकर जान बचाई
1 जुलाई को रेसीडेंसी पर आक्रमण हुआ उसके कुछ समय बाद ही सआदत खां घायल अवस्था में राजबाड़े पहुंचा था और उसने महाराजा को विद्रोह की सूचना दी थी। महाराजा ने तत्काल सआदत खां को कैद करवा लिया किंतु बाद में उसी रात उसे कैद से मुक्त भी कर दिया। सआदत खां इंदौर रेसीडेंसी व महू के क्रांतिकारियों के नेता बन गए। उनके आदेश माने जाने लगे और साथी उसे नवाब सआदत खां कहकर संबोधित करने लगे थे।
वकील वजीर बेग ने इंदौर के इन हालात का बड़ा रोचक विवरण अपने 5 जुलाई 1857 के पत्र में दिया है। वह लिखता है-
'फजर को मऊ का रिसाला व पल्टन सब आए व छावनी में खजाने के पास डेरा करा हे और महाराजा से तोपें मांगते हें, सो दम तो देते हें पर देते नहीं हें। और मऊ की फोज हुलकर की फोज सब एक जी होकर घर (म) करम से त्यार हें। महाराजा की मरजी तो हाल तक अंगरेजों के तरफ हे व फोज बरसरे फसाद है। ओर फोज के बदलने सेअंगरेज लोग मरे हुओं को गड़वाते थे सो बी बंद रहा ओर इसी दबाव से हफीज के बेटे सआदत खां को खिल्लत देकर छावनी में जो फोज हुलकर व मऊ की हे उस पर भेजा गया और खातर की मगर अब तक किसी ने मंजूर करा नहीं।'
महाराजा होलकर पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने महू के विद्रोहियों को इंदौर में रोकने या उनकी शक्ति को नष्ट करने के लिए कुछ नहीं किया अपितु उन्हें रसद, दाना, चारा व खाद्यान्ना दिया। यदि यह सत्य भी मान लिया जाए तो महाराजा ने उन परिस्थितियों में सही कदम उठाया था अन्यथा इंदौर व महू के विद्रोहियों का जो आक्रोश अंगरेजों के प्रति था, वह होलकर के विरुद्ध भी उपज सकता था। फिर भी महाराजा ने साहस का परिचय दिया और राजबाड़े में जो अंगरेज उनकी शरण में आ गए थे, उनके प्राणों की रक्षा उन्होंने भारतीय परंपरानुसार दृढ़तापूर्वक की थी।
परिस्थितियां इतनी विकट थीं कि न केवल अंगरेज लोग छिप गए थे, अपितु होलकर महाराजा के महत्वपूर्ण अधिकारी भी अपनी हत्या के भय से छिप गए थे। अंगरेज महिलाओं को मराठी परिधान- साड़ी व चोली पहना दी गई थी और अंगरेज पुरुषों ने भारतीय परिधान पहन लिए थे ताकि वेशभूषा से एकाएकउन्हें पहचाना न जा सके।
महाराजा ने नेतृत्व संभालने से इंकार किया
इंदौर रेसीडेंसी पर गोले दागे जाने की घटना के बाद ही इंदौर राजबाड़े के द्वार बंद कर दिए गए थे। होलकर सेना के बागी हो जाने का भय महाराजा को भी था। 1 से 4 जुलाई 1857 तक रेसीडेंसी पूरी तरह क्रांतिकारियों के कब्जे में थी। उन्होंने ब्रिटिश कोष अपने कब्जे में कर लिया था जिसमें 9 लाख रुपए थे। सारा शहर लूटपाट व मार-काट का केंद्र बन गया था।
पांच जुलाई को वजीर बेग लिखता है-
'...ओर च्यार दिन से बाड़ा बंद था, आज खुला हे। ओर चार दिन से सारे सेहर में अन-पानी हराम हे। ओर सेर अनाज लेकर इदर से उदर जाता हे तो लुट जाता है। अेकी पकड़ी अेक ले जाता हे कोई पूछता नही हे। अेक को अेक मार डालता है कोई पूछता नही हे। दोपहर (4 जुलाई 1857) के बकत सराफे तक लुटने की नोबत पोहची। जद सारा साऊकार लोग ताईबाई साहेब पास गया सो ताईबाई ने सिर पीटा ओर बाल खसोटे जिस पर महाराजा ने जसवंतराय महाराज से भाला मंगाया ओर हाथ में लेकर कमबर बांध घोड़े पर सवार होकर अवल छतरियों के दरसन कर छावनी में अपनी फोज वा मऊ की फोज में गए।फोज ने पेशवाई करी, महाराज ने खातर करी के 'हम तुममें स्यामील हें, तुम लोग कहो सो करें' जिस पे फोज वालों ने महाराजा से अरज की के हमारे सर पे हाथ धरोगे तो मऊ का किला व मंदलेसर (मंडलेश्वर) का कीला फते करा आपकी आलमदारी करा देंगे, ओर अेल्या पल्टन (अहिल्या पल्टन) वा अरजन (अर्जुन) पल्टन वा 22 बाईसी रिसाले सारे बदलकर हुलकर से, ओर मऊ की फोज में मिल गए हें सो सब अफसर छावनी में महाराजा को गायसे पर बीठाकर चार घड़ी तक इकांत करते रहे। सो सुनने में आता हे के धरम-करम हुआ, ओर तोपें बी देने का करार हे...।'
महाराजा ने रेसीडेंसी पहुंचकर वहां एकत्रित सैनिकों से एक औपचारिक अपील की कि वे अपनी बैरकों में लौट जाएं। इस अपील को सुनकर विद्रोह के नेता ने कहा- 'यह दुःख की बात है कि आप स्वर्णिम अवसर खो रहे हैं। संपूर्ण भारत में योरपीय लोगों को मार भगाया जा रहा है और ऐसे समय में आप अपने पूर्वजों का अनुसरण करते हुए तलवार नहीं उठा रहे हैं। हम लोग अपने प्राणों का मोह त्यागकर आपकी सेवा में उपस्थित हैं।'
महाराजा इस अवसर का लाभ उठा सकते थे, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी स्थिति का सही मूल्यांकन भी कर लिया था। महाराजा ने नेतृत्व संभालने के आह्वान का आदर करते हुए अपनी भावना को इन शब्दों में अभिव्यक्ति दी- 'मैं इतना अधिक शक्तिशाली नहीं हूं और न ही इतनी बड़ी सेना का व्यय वहन करने की मेरी क्षमता है।' महाराजा का यह उत्तर पाकर क्रांतिकारियों को समझते देर नहीं लगी कि महाराजा उनका नेतृत्व संभालने के लिए तैयार नहीं हैं।
क्रांतिकारियों को देवास महाराजा से मिली ठोस सहायता
4 जुलाई 1857 को महाराजा होलकर की रेसीडेंसी यात्रा के बाद क्रांतिकारियों को साफ जाहिर हो गया था कि महाराजा उनका नेतृत्व नहीं करेंगे। उसी दिन यह तय किया गया कि 4 जुलाई की रात में ही दिल्ली के लिए कूच करना है। रेसीडेंसी का खजाना उन्होंने अपने साथ लिया और घोड़े, टट्टू, बैलगाड़ियों पर अन्य सामान लादा गया।
शनिवार 4 जुलाई को आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की बारहवीं तिथि थी। अतः चांदनी रात का लाभ उन्हें मिलना था। 9 तोपें, लाखों का खजाना, गोला-बारूद आदि के साथ इस दल ने 4 जुलाई की रात 10 बजे आगरा-बंबई मार्ग पकड़ा और इंदौर से अलविदा कहा। इस दल का उद्देश्य दिल्ली पहुंचकर मुगल सम्राट के नेतृत्व मेंअंगरेजों को भारत से मार भगाना था।
इन क्रांतिकारियों के इंदौर से रवाना हो जाने के बाद अगली रात (5 जुलाई) महाराजा ने एक फौजी दस्ता इन्हें रोकने के लिए भेजा, जो केवल औपचारिकता मात्र थी। सीतामऊ का वकील वजीर बेग 10 जुलाई के पत्र में लिखता है- 'मऊ की फोज के गए पीछे महाराज ने छापे के इरादे से तोपें 2, सवार रिसाला का 300, हुजरात का सवार 100 मेजर बंदे अली को मुखतार कर इस सरत से भेजा के सआत खां का सिर लाना, वो तोपें, छिनाय काम कर हाजर होगा, जद जागीर मिलेगी, सो ये सब बातें येब छिपाने वास्ते हें। फोज तो अब दूर निकलकर सारंगपुर उतर गई ओर ये हाल पोहोंचे भी नहीं होंगे...।'
पीछा करने की औपचारिकता का निर्वाह करके होलकर सैनिक दल वापस लौट आया और क्रांतिकारी बिना किसी क्षति के आगे बढ़ गए। इसी बीच देवास के शासकों ने बहुत महत्वपूर्ण सहायता क्रांतिकारियों को दी। उनके पास रेसीडेंसी खजाने के व जो अन्य ब्रिटिश पौंड और सिक्के थे, उनके बदले में देवास महाराजा ने उन्हें सोना दिया ताकि मार्ग में वे पकड़े न जा सकें और यदि देश में अंगरेज कंपनी की हालत खराब होते देख ब्रिटिश मुद्राको लोग अस्वीकारने लगे तो भी सोना पास होने से क्रांतिकारियों को कोई दिक्कत न हो।
देवास से चलकर यह दल मक्सी व शाजापुर पहुंचा। मार्ग में उन्होंने लखंदरा व कालीसिंध नदियों को पार किया। 9 दिनों तक चलते रहने पर यह दल 112 मील की दूरी तय कर पाया और 12 जुलाई को ब्यावरा पहुंचा। मार्ग में यह ब्रिटिश डाक बंगलों को जलाता व टेलीग्राफ लाइनों को ध्वस्त करता चल रहा था। जेल के बंदियों को भी वे मुक्त कराते जा रहे थे। यह सैन्य दल गुना, पिपलिया, बदरवास, कोलारस, शिवपुरी होते हुए 30 जुलाई को मुरार पहुंचा। बाद में उन्होंने ग्वालियर में शिविर डाला।