क्रांतिकारियों के जाने के बाद भी स्थिति अराजक

अपना इंदौर
1 से 4 जुलाई 1857 को इंदौर रेसीडेंसी आजाद रही। 4 जुलाई को विद्रोही सैनिक यद्यपि इंदौर से दिल्ली के लिए रवाना हो गए थे किंतु उनके जाने के बाद भी नगर में चारों ओर आतंक, अशांति व अव्यवस्था का वातावरण था। महाराजा होलकर ने 4 जुलाई के बाद ही अंगरेजों की सहायता का उपक्रम प्रारंभ किया। तत्कालीन परिस्थितियां भी ऐसी बन गई थीं कि महाराजा को यह प्रदर्शित करना जरूरी था कि वे अंगरेजों के हितैषी हैं।
 
इंदौर नगर, छावनी बाजार व रेसीडेंसी में जो अव्यवस्था फैली थी, उसका लाभ उठाकर कई नागरिकों ने भी लूटपाट की थी और लूट का धन अपने घरों में, घांस की गंजी (ढेर) में या कुओं, बावड़ियों में छिपाकर रखा था। महाराजा ने सख्ती से काम लिया और इस प्रकार के लूट के धन को एकत्रित करने का अभियान चलाया। सीतामऊ का वकील वजीर बेग, जो इन घटनाओं का चश्मदीद गवाह था, अपने 5 जुलाई के पत्र में लिखता है-
 
'फोज गए पीछे खजाने के रुपों की तहकीकात महाराज ने की सो लोगों के झोपड़ों में से वा घास की गंजी व लकड़ियों के अंबार, कुआ, बावड़ी, नदी-नाला में से आठ लाख रुप्या के करीब फेर खजाने में जमे हुए, जीस पर महाराज ने बखसी खुमाणसिंह व पंडत रायचन्दर राव को मऊ भेजा। ओर मऊ में अलयट (कैप्टन ए. इलियट) साहेब गीराई का हे उसके पास ओर खजाने सोंपने का सवाल कराया वा उजरवाई (क्षमा प्रार्थना) कराई जिस पर साहेब लोगों ने भीतर किले के तो आने दिया नहीं ओर बाहर से सवाल जवाब किया के हमारे सब बाल बच्चे कटवा डाले अब हम रुप्ये को लेकर क्या करेंगे? अब मुनासब हे कि साहेब लोगों वा मेमें बाड़े में हें उने हीफाजत से ईस जगे पोहचादो। जिस पर खजाने का रुप्या सोले किरांची (गाड़ी) भर के मऊ रवाने किया ओर साहेब लोगों को मय मेमों के मरेठी पोसाक पहेनाकर भेष बदलकर मऊ भेज दिए। ओर वो रुप्या घणी तकरार से अलियट (इलियट) साहेब ने रखा वो बाकी रुप्या छावनी के खजाने में लगा हे। उस पर भी ज्यापता महाराजा का हे। ओर लोगों के घरों में से नीकलकर रोज खजाने में जमा होता जाता हे।'
 
लूट की आशंका से भगदड़ मची रही
 
इंदौर में विद्रोहियों ने जो माल-असबाब लूटा था, वह लेकर वे आगरे को चल दिए थे। नगर में अनेक ऐसे नागरिक पकड़े गए थे जिनके घरों से लूट का धन बरामद हुआ था। ऐसे लोगों को गिरफ्तार करवाकर महाराजा ने महू भेज दिया था। वजीर बेग लिखता है- 'महराज ईस जगे फेर अंग्रेजों के बुलाने की खटपट कर रहे हें। मऊ में पांच आदमी अगली पलटन के थे, उन्हें फांसी हो गई। गाड़ी तीन ईस जगे से भरकर उन लोगों की के जीनोंने रुप्या खजाने का लूटा उनके घर में निकाला वा नोकर वा बेनोकर सब मउ को भेजे हें, महाराज ने, सो देखते हें इन लोगों को फांसी होती हे के तोप के छरे से उड़ाए जाते हें।'
 
इन गिरफ्तारियों से इंदौर नगर में दहशत फैल गई थी। रेसीडेंसी क्षेत्र में निवास करने वाले तमाम रियासतों के वकील भी अपने माल असबाब के साथ इंदौर से भाग रहे थे। सीतामऊ के वकील वजीर बेग ने भी अपने मालिक से इंदौर छोड़ने की इजाजत चाही थी, जो उसे नहीं मिली और उसे इंदौर में ही बने रहने का हुकुम दिया गया। इस पर विचलित होकर वजीर बेग 14 जुलाई के पत्र में लिखता है- 'ओर सावन बीदी तीन का कागद भगोर के बखता बलाई के हाथ आया। ईसमें लिखा के इन्दौर में अमन हे ओर सब रीयासतों के वकील हाल हाजर हें, सो तुम भी हाल वहीं ठहरना ऐसा सरकार का हुकुम हे। लेकिन ईस जगे की सारी हकीकत लिखी जाती हे इस पर साद आपको एतबार नहीं हे। मातादीन के कहने पर आपके तहरीर से एतबार पाया जाता हे। अमन की वजे तो ये हे की टीमन साहब पर कोन सी भीड़ (संकठ) भी सो भाग गए। ऐसी अमन सब जगे हे ओर मातादीन खुद-बुद डर के मारे खासगीवालों की हवेली में रहा।'
 
होलकर दरबार के कुछ अधिकारियों ने महू की यात्रा की तब उन्हें महू किले के अंदर चल रही सैनिक तैयारियां देखने को मिलीं जिनका हाल वजीर बेग लिखता है- 'जबानी अन्ना साहेब के सुना के अन्दर तीन सै आदमी काले हें। तोपों केफड़ पाए तैयार होने जाते हें। हजारों पीपें छोटे-बड़े पानी के भर रखे हें ओर सहदा गोला सफा करके मसाले दे देकर त्यार कर जमीन पे रखे जाते हें। ओर साठ-सतर तोपें तो तैयार हें ओर त्यार होती जाती हें। समान जंग त्यार हे ओर त्यार होता जाता हे।'
 
इस प्रकार के समाचार जब इंदौर नगर में फैले तो लोगों में भारी दहशत फैल गई। वे अपना-अपना सामान लेकर इंदौर से भागने लगे। बकलम वजीर बेग- 'निजाम की फोजें नरबदा तक आ चुकी हें, पीछे गोरे हें और उनके पीछे फिर काले हें। सारे सेहर में गुलशोर हे के एक मर्तबे ईनदोर लुटेगी ओर कतल होगी। दाना-नादानांओ का सबका यही कोल हे। ओर सहदा हिन्दू, मुसलमांन साऊकारों के खटले असबाब उजेन, देवास, धार वगेरा के तरफ निकल जाते हें।'
 
खिसियाया हुआ था डुरेंड
 
कर्नल एच.एम. डुरेंड 1 जुलाई को इंदौर रेसीडेंसी से भाग खड़ा हुआ था। अपने पलायन से वह बहुत बुरी तरह खिसियाया हुआ था। होशंगाबाद पहुंचने के बाद वह वहां से 14 जुलाई को औरंगाबाद के लिए रवाना हुआ जहां से वह मेजर वुडबर्न की फौज को शीघ्रता से सेंट्रल इंडिया में लाना चाहता था। कर्नल डुरेंड ने अपने लक्ष्य को अभिव्यक्त करते हुए लिखा है 'नर्मदाक्षेत्र की सुरक्षा के लिए मेजर वुडबर्न को महू की ओर कूच करने के लिए मनाना, सेंट्रल इंडिया को सैन्य अराजकता से बचाना, जो मेजर वुडबर्न की अनुपस्थिति में यहां बनी रहेगी, महू या इंदौर में अपनी पूर्व स्थिति हासिल करना... इंदौर या महू में इतनी सैन्य शक्ति के साथ पहुंचना कि होलकर सेना पर तत्काल बलपूर्वक नियंत्रण किया जा सके... मेरे आधीन देशी रियासतों में विद्रोह के पूर्व ब्रिटिश सरकार के प्रति जो सम्मान था, उसकी पुनर्स्थापना करना...'
 
कर्नल डुरेंड, मेजर वुडबर्न की फौज के साथ महू की ओर रवाना हुआ। वुडबर्न की अस्वस्थता के कारण इस फौज की कमांड मेजर स्टुअर्ट ने संभाली थी। यह पल्टन 1 अगस्त को सिमरोल घाट आ पहुंची व वहां से उसने महू के लिए मार्च किया। इसमें 700 योरपीय तथा 1200 भारतीय सिपाही थे। खलघाट से निजाम की पल्टन भी महू आ पहुंची जिसमें 300 अश्वारोही थे। बंबई इन्फेन्ट्री की एक कंपनी भी उनके साथ थी।

सैन्य बल पाकर अब डुरेंड के तेवर भी बदल गए थे। वह देशी रियासतों के वकीलों से भी ठीक पेश नहीं आ रहा था। वजीर बेग लिखता है- 'ओर मुंशी लोग सलाम कू पेले दिन गए, हुकुम दिया के तुम लोग दफतर में हाजिर रेहकर काम दो, फेर तुम लोगों से जवाब सखत पूंछेगा, सो सारों के होस बिगड़ रहे हें। ओर खुद बदोलत के मिजाज पे बहुत हद से जादे खबगी वतुरसी (नाराजी) हे। मुलाकात भी किसी की लेते नी हें। ओर जमादार जीवासींध व चपरासी 15 बर बकत बलवे के नोकरी पर हाजर थे ओर उस वकत साथ नहीं गए थे, तरे देकर बेठे रहे थे, अब सारों की चपरासें ले ली व जमादार मजकूर को व तिवारी दफेदार व चपरासी लोगों को हुकुम हे के सामने मत आओ और हाजर रहो। हम तुम लोगों से भी जबाब सखत पूंछेगे। सो सारे गजब में हें। आगे पर ईन लोगों के हक में क्या होगा, वा हाल तक महाराज हुलकर के तरफ से सफाई मुतलक हुई नहीं पाई जाती हे। बाजे-बाजे लोग ऐसा भी मसहूर करते हें कि ईनदोर की फोज पे छापा पड़ेगा। ओर बाजे ऐसा कहेते हें के जो लोग अव्वल फसाद में हें वे लोग महाराज से तलब करे जाएगें, ऐसा मसहूर हो रहा हे।'

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