होलिका उत्सव - एक विवेचन

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फाल्गुन सुदी पूर्णिमा अर्थात होलिकोत्सव। इस दिन लोग थोड़ा मुक्त मन से विचरते हैं। सख्त अनुशासन और शिथिल स्वेच्छाचार के बीच का मध्यम बिन्दु जो ढूँढ सकता है, वही होली के उत्सव को मनःपूर्वक मना सकता है।
 
होली का उत्सव वसंत के आगमन के स्वागत का उत्सव है, परन्तु वसंत के वैभव में भी संयम का सूत्र नहीं भूलना चाहिए। भगवान शिव का किया गया काम दहन भी एक सुंदर बात समझाता है। वसंत को निमित्त बनाकर यदि काम शिवत्व पर हमला करने का प्रयत्न करे तो समझ लो कि वह स्वयं के विनाश का सर्जन करता है। मर्यादा में रहा तो काम भी भगवान की विभूति है और मर्यादा छोड़ दे तो वह आत्मघातक बनता है।
 
होली के उत्सव के पीछे की कथा बहुत ही प्रसिद्ध है। हिरण्यकश्यप नाम का एक राक्षस था। उसे सर्वत्र हिरण्य यानी सुवर्ण ही दिखाई देता था। भोग ही उसके जीवन का प्रधान भाव था। राक्षस का अर्थ है 'खाओ, पिओ और मजा करो' वाली मनोवृत्ति का मानव। भोग के सिवाय जो कुछ करता ही नहीं और स्वार्थ के सिवाय कदम आगे बढ़ाता ही नहीं। हिरण्यकश्यप के राज्य में सबको रोटी व मकान मिले इतना ही देखने का उसने प्रयत्न किया था। लोगों के भावी जीवन की ओर उसने सदैव दुर्लक्ष किया। स्वयं को भगवान समझने वाला वह दूसरे भगवान को कैसे स्वीकार करता?
 
कीचड़ में कमल की तरह उसके यहाँ प्रहलाद जैसे भक्त पुत्र का जन्म हुआ। प्रहलाद जब गर्भ में था, तब उसकी माता नारद के आश्रम में रही थी। वहाँ के संस्कारों का प्रभाव प्रहलाद पर पड़ा था। प्रहलाद का अंतःकरण भगवद् भक्ति से पूर्ण था। उसके पिता ने उसे बदलने के लिए अनेक प्रयत्न किए, परन्तु निष्ठावान बालक को बदलने में वह असफल रहा। इसके बाद वह उसको मार डालने के प्रयत्नों में उद्यत हुआ। प्रहलाद का ईश्वरवाद यदि सर्वत्र फैल जाएगा तो भोगवाद के आधार पर खड़े उसके राज्य में खलबली मच जाएगी।
 
असुरवृत्ति का पिता लड़के की ऐसी बात कैसे सहन करता? प्रहलाद को मार डालने के अनेक प्रयत्नों में एक प्रयत्न यह था कि उसे जीवित ही अग्नि में जला दिया जाए। प्रहलाद अग्नि में से उठकर भाग न जाए, इसके लिए उसकी बुआ की गोद में उसे बिठाया गया। उसकी बुआ, हिरण्यकश्यप की बहन, होलिका को तो वरदान मिला था कि अगर वह सद्वृत्ति के मानव को हैरान नहीं करेगी तो अग्नि उसको नहीं जला सकेगी। अपने भाई के आग्रह के कारण होलिका प्रहलाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठने को तैयार हुई।
 
परिणाम जो होना था, वही हुआ। होलिका जलकर भस्म हो गई, जबकि सद्वृत्ति वाला ईश्वरनिष्ठ प्रहलाद हँसता-खेलता बाहर आया। प्रहलाद छोटा था, दुनिया में सद्वृत्ति के लोग अल्पसंख्या में ही होते हैं, परन्तु वे अगर प्रभुनिष्ठ हों, तपस्वी तथा क्रियाशील हों तो व्यापक असद्‍वृत्ति भी उनको स्पर्श नहीं कर सकती, ऐसा अनुपम संदेश होलिका का उत्सव हमें देता है।
 
होलिका दहन से खुश हुए लोगों ने उत्सव मनाया। आनंद के वातावरण से मस्त बने लोगों ने एक-दूसरे पर रंग, गुलाल आदि फेंकना प्रारंभ किया। किसी ने धूल उड़ाना शुरू किया और उसी में से धुलेटी का सर्जन हुआ। आसमानी रंग और धरती की धूल का इस उत्सव में मिलन हुआ है। छोटे-बड़ों का भेद भूलकर महल और झोपड़ी के लोग इकट्ठे होकर उल्लास से नाचने लगे। इसमें प्रहलाद जैसे महापुरुष का कर्तृत्व दिखाई देता है।
 
प्रहलाद ने छोटे, बड़े सभी को प्राणवान बनाया था। हिरण्यकश्यप के मारने के लिए स्तम्भ में से जो नरसिंह प्रकट हुआ, उसका अर्थ ही यही था। स्तम्भ जैसे जड़, चेतना शून्य और निष्क्रिय लोगों में प्रहलाद ने प्राणों का संचार किया। नर में सिंह उत्पन्न किया। नर का प्रेम और सिंह का अविवेक या साहस एकत्रित हुआ और हिरण्यकश्यप का विनाश हुआ। लोक हृदय में प्रहलाद के प्रति प्रेम ने लोगों को अविवेकी बनाया और उनमें निर्माण हुई साहसी वृत्ति ने हिरण्यकश्यप को मारने के लिए प्रेरित किया।
 
हिरण्यकश्यप ने नर या पशु, घर या बाहर, रात को या दिन को कोई मार न सके ऐसा जो वरदान मिला था, वह उसकी अतिशय सख्त संरक्षण व्यवस्था का द्योतक है। असद्वृत्ति के मूल में भय होता है। वह हमेशा अपनी रक्षा के लिए ऐसा कड़ा प्रबंध करती है। परन्तु जनमानस में जागृति निर्माण होने के बाद इस विराट नरसिंह के सामने असद्वृत्ति को झुकना ही पड़ता है। जनजागृति और जनसंघटन के सामने दुष्ट वृत्ति का पराभव होता है। यह बात होली हमें समझाती है।
 
होली में केवल निकम्मी चीजें या कूड़ा ही नहीं, अपितु हमारे जीवन में हमें हैरान करने वाले गलत विचार तथा मन के मैल या कूड़े को भी जलाना चाहिए। संघनिष्ठ को शिथिल बनाने वाले गलत तर्क-कुतर्कों को होली में जलाना चाहिए। शक्ति व समझ के अभाव में जड़वाद या भोगवाद के सामने लड़ने वाला प्रभुनिष्ठ सैनिक, भावयुक्त बुद्धि तथा बुद्धिनिष्ठ भावना से सुसज्ज होना चाहिए।
 
होली के उत्सव में थोड़ी सी अश्लीलता का भी दर्शन होता है। उसका कारण यह है कि यह सार्वजनिक उत्सव है। समाज के सभी स्तर के लोगों के संस्कारों का सम्मिश्रण रूप यहाँ देखने को मिलता है।
 
संक्षेप में, होली का उत्सव फाल्गुन के रंगों से हमारे जीवन को रंगीन बनाने वाला, वसंतोत्सव में भी संयम की दीक्षा देने वाला, संघनिष्ठा की महिमा समझाने वाला और मानव मन में तथा समाज में स्थित असद्वृत्ति को भस्म करने का संदेश देने वाला उत्सव है।

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